पचासी साल की उम्र
में जब मास्टर जगदीश उपाध्याय जी ने अपना नश्वर शरीर छोड़ा तो गाँव के सभी लोगों को
डर था कि उनकी जीवनसंगिनी रुपसा देवी भी कहीं भावावेश में ऐसा ना कर बैठे कि गाँव-बिरादरी को दोहरा सूतक झेलना पड़े. इसमें बहुत सच्चाई है कि इस जोड़े को आपस
में अगाध प्रेम रहा. इसे यों भी व्यक्त किया जा सकता है कि वे ‘एक
जान दो शरीर’ थे. इनका साठ वर्षों का वैवाहिक जीवन ‘दो
हंसों के जोड़े’ की तरह रहा. हालत यहाँ तक रही है कि गाँव
के लोग इनके प्रेम-बंधन की कसमें खा लेते हैं.
पिछले महीने ही एक अनपेक्षित
घटना इसी गाँव में घटी कि मदनलाल शर्मा के देहावसान पर उनकी अर्धांगिनी सुमित्रा
रानी ने लाश उठाने से पहले ही चुपचाप सल्फास की छ: गोलियां निगल ली थी और शर्मा जी
को अकेले विदा नहीं होने दिया. इस बारे में बहुत सी चर्चाएँ हुई. कोई कहता है की
उनके बेटों में माता-पिता के प्रति प्रतिबद्धता नहीं थी और बहुएँ कर्कश तथा दुःखदायिनी हैं; कोई कहता है कि सुमित्रा रानी पति की जुदाई बर्दाश्त नहीं कर पाई
थी. इस घटना के मद्देनज़र अब जब जगदीश उपाध्याय मरणासन्न हैं तो सबकी तीखी नजरें वृद्धा रुपसा देवी पर थी.
ग्रामप्रधान ने तुरंत कुछ जिम्मेदार लड़कों को उसकी ख़ास निगरानी पर लगा दिया ताकि वह जहर खाकर या कोसी नदी में कूदकर अपने प्रियतम के साथ ही जाने का उपक्रम न कर सके.
ग्रामप्रधान ने तुरंत कुछ जिम्मेदार लड़कों को उसकी ख़ास निगरानी पर लगा दिया ताकि वह जहर खाकर या कोसी नदी में कूदकर अपने प्रियतम के साथ ही जाने का उपक्रम न कर सके.
जगदीशचंद्र उपाध्याय
पेशे से अध्यापक थे और सत्ताईस साल पहले सेवा से रिटायर हो गए थे. रुपसा देवी उम्र
में उनसे केवल दो साल छोटी थी. उनके पास भगवान का दिया हुआ बहुत कुछ था, लेकिन ऊपर
वाले ने उनके नाम कोई औलाद नहीं लिखी थी. जगदीशचन्द्र जी कहा करते थे जिन बच्चों को उन्होंने पढ़ाया है, वे सब उनकी
संतान ही तो हैं. हाँ, प्रौढ़ होने तक पति-पत्नी दोनों ही औलाद के लिए मंदिरों में
मन्नतें जरूर मांगते रहे थे पर दैविच्छा पर
किसका वश है? वे ये भी सोचते विचारते हैं की जिनके आठ आठ संतानें हैं, वे कहाँ सुखी
रहते हैं? उलटे बच्चों के कार्यकलापों व व्यवहार से दुखी रहते हैं.
हमारे ग्रामीण समाज
में वृद्धाश्रम जैसी संस्था की कोई कल्पना नहीं है, पर ‘पुतघर’
(धर्मपुत्र) रखने की कई मिसालें हैं. मास्टर जगदीश उपाध्याय जी ने अपने एक भतीजे
नवीनचंद्र को विधिवत गोद तो नहीं लिया, पर बचपन से ही अपनाया हुआ है. इसलिए उसी को
अपने बुढ़ापे का सहारा समझ कर स्नेह-प्यार न्यौछावर करते रहे हैं. नवीन भी अपनी
जिम्मेदारियों को बखूबी समझता है. मदनलाल शर्मा के घर में हुई दुखांत घटना से बहुत
भयभीत है. वह ताऊ जी की मृत्यु की कल्पना से सिहर उठता है कि कहीं ताई जी को
हृदायाघात ना हो जाये या वह कोई घातक कदम ना उठा ले. इसलिए उसने घर का कोना कोना
छान मारा है कि कहीं कोई विषैली चीज ना पड़ी हो. वह केवल ताई जी का एक ताला पड़ा हुआ
संदूक नहीं खोल सका है जिसमें संदेहास्पद सामान हो सकता था.
जब से जगदीशचंद्र जी
के बोल बंद हो गए थे, रुपसा देवी ने भी बोलना बंद कर दिया था. निगरानी में लगे सभी लड़के अंतिम क्षणों में चैतन्य होकर घर-बाहर घूम रहे थे. मास्टर जी ने अपने प्राण नेत्र
द्वारों से त्यागे तो शरीर को नहला धुला कर मुंह में तुलसीपत्र, गंगाजल व स्वर्ण पत्रिका
डाली गयी. बैतरनी पार करने के लिए बछिया की पूंछ पकड़ाई गयी, शरीर पर चन्दन का लेप किया
गया, बांस और सूखी घास का बिछोना बनाकर सफ़ेद चादर से चारों कोने बांधे गए, तब मास्टर
साहब को अंतिम यात्रा के लिए इस पर लिटाया गया. दर्शनार्थियों ने अंतिम दर्शन किये। रुपसा देवी को
महिलाओं ने सहारा देकर सात उलटे फेरे लगवाये, और फिर वह प्रणाम की मुद्रा में पैरों के
पास बैठ गयी. ऊपर से कफ़न का लाल कपड़ा डाला जाने लगा. पुष्प और गुलाल डालने की तैयारी हुई तो रुपसा देवी
एकाएक उठकर घर में गयी अपना बक्सा खोला अंजुरी
भर कर चांदी के सिक्के निकाले और अर्थी के पास बाहर आ गयी. अर्थी उठाने के साथ जब ‘राम
नाम सत्य है’ की आवाज हुयी तो रुपसा देवी सिक्के अर्थी
पर उछालते हुए जोर से बोल पड़ी, “जाओ जगदीश्वरो! खुशी, खुशी जाओ. मेरी फ़िक्र
मत करना.”
उपस्थित जन समूह ग़मगीन होते हुए भी मुस्कुरा उठा.
उपस्थित जन समूह ग़मगीन होते हुए भी मुस्कुरा उठा.
***
क्या बात वाह!
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