बुधवार, 22 अप्रैल 2015

बैठे ठाले - १४

पिछले लोकसभा चुनावों के बाद हमारी ठलुआ पंचायत भंग हो गयी थी. कारण था मोदी जी का आक्रामक योजनाबद्ध चुनावी दौर, जो कि अभूतपूर्व था, और उसके अप्रत्याशित परिणाम. जहां मोदी जी के आलोचक खिसिया रहे थे वहीं समर्थक विभोर हो उठे थे. वर्षों से अलसाई हुई जनता, जो कि भ्रष्टाचार से तंग थी, उसमें नया संचार हो गया. लोग परिवर्तन की उमंग में आ गए. इस सूनामी में राजनीति के बड़े बड़े महारथी खेत रहे, बह गए. ये एक ऐतिहासिक युगांतकारी परिवर्तन था.

भारतीय जनता पार्टी की सरकार आते ही एकाएक सभी हिन्दुत्ववादी शक्तियां सब तरफ हावी/प्रभावी हो गयी, जो धार्मिक उन्माद उभरा उसके बारे में कहा जाने लगा कि इससे हिन्दुस्तानी संस्कृति का जो मूल स्वरुप है उसकी चूलें हिलने लगी हैं’. पूर्ववर्ती शासन से अघाए व खार खाए प्रबुद्ध जन इसे भगवत गीता के प्रथम चरण के श्लोक यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति से जोड़ते हुए अकल्पनीय परिवर्तनों के सपने देखने लगे थे.

अब मोदीराज का लगभग एक वर्ष का समय बीत गया है, लेकिन जनसाधारण फिर कसमसाने लगा है. ये सत्य है कि विपक्ष के पास मोदी जी के मुकाबले वाकचतुर, बड़बोला, कर्मठ तथा प्रशासनिक अनुभव वाला कोई नेता नहीं है. कांग्रेसवाले ले दे कर एक अदद राहुल गांधी को धक्का दे देकर सीढ़ियों से ऊपर जाने के लिए प्रेरित करते रहे हैं; आज भी खूसट कांग्रेसियों की मानसिक स्थिति गांधी परिवार की आड़ में सुरक्षित राजनीति खेलने को प्रतिबद्ध है. कब नौ मन तेल होगा? और कब राधा नाच पायेगी? यक्ष प्रश्न जीवंत है.

इधर मोदी के धुर विरोधी नामनिहाल समाजवादी विचारधारा के वारिस एकजुट होकर आत्मरक्षा की तैयारी में अपने भोंटे हथियार तेज कर रहे हैं क्योंकि अस्तित्व का खतरा आन पड़ा है. मुलायमसिंह यादव जी के भरोसे ये सप्तपदी सेना बिहार और यूपी के आगामी विधान सभा चुनावों में अपना जौहर आजमाएंगे. ये कितने ताकतवर बन कर उभरेंगे या सिमट कर रह जायेंगे? भविष्यवाणी करना जल्दबाजी लग रहा है.

कम्युनिस्ट शासन सिर्फ छोटे से राज्य त्रिपुरा तक सिमट कर रह गया है, हाल में कामरेड सीताराम येचुरी को कमान सौप दी गयी है, जो कट्टर सिद्धान्तवादिता से हटकर समझौतावादी की तरह खंडित वामपंथ के लिए फेविकॉल की तलाश में रहेंगे. राष्ट्रीय स्तर पर विकल्पी बनने का सपना शायद उनको ना आ पाए.

मायावती जी, जयललिता जी ममता बनर्जी जी आदि सभी क्षेत्रीय लड़ोकनियाँ अपने अपने मुकाम के चरम पर रही हैं, पर अब इनका ग्राफ शायद ही ऊपर उठ पाए. इसी तरह अरविन्द केजरीवाल जी का भविष्य दिल्ली विधान सभा में प्रचण्ड बहुमत के बावजूद अनिश्चय के घेरे में यों आ गया कि उनकी पार्टी अन्दुरुनी कलह से त्रस्त है. मीडिया जोर शोर से उनका मजाक बनाने में लगा है. जिसे सुनकर आम लोगों का विश्वास उनके प्रति डगमगाने लगा है. लगता है, जब तक चल सके चलाये चलो का सिद्धांत का अनुसरण कर रहे हैं. प्रशासनिक अनुभव की कमी के कारण केंद्र में काबिज भाजपा इसे स्थिर नहीं होने देगी.

पंजाब में अकाली सरकार पूरी तरह से मोदी जी के भरोसे पर आ टिकी है क्योंकि पंजाब में दल का जनाधार बहुत घट गया है, जिसका नमूना अमृतसर में लोकसभा चुनाव में सबने देखा है, जहां अरुण जेटली जी को हार का मुंह देखना पड़ा है. भाजपा को जिस दिन लगेगा की इसको अब निगला जा सकता है, तो परिणाम अप्रत्याशित ही होगा.

काश्मीर में भाजपा ने मजबूरी व स्वार्थ दोनों की वजह से सत्ता में हिस्सेदारी की, पर अलगाववादियों, कश्मीरी पंडितों, धारा 370 पर विरोधाभासी चरित्रों के कारण न थूकते बन रहा है और ना निगल सकते हैं. चुनावों में अलगाववादियों को नेस्तनाबूद करने की बड़ी बड़ी बड़ी डींग हांकने वालों को अब जवाब देते नहीं बन रहा है.

ये थीसिस बहुत लम्बी हो रही है, क्योंकि आलोचना के कई बिंदु अभी भी अनछुए हैं, जैसे कि, मोदी जी की जन धन योजना के दो करोड़ से ज्यादा खाते निष्क्रिय से हो गए हैं. इनमें नियमानुसार प्रति माह लेनदेन नहीं होने से दो लाख रुपयों का बीमा बेमानी हो गया है. विदेशी काला धन पर कुछ टिप्पणी करना अब हास्य का विषय बन गया है. ये चुनावी जुमला बताया जा रहा है, जो आने वाले चुनावों में भाजपा को चुभता रहेगा.

चूंकि मोदी जी ने अपनी छवि स्वयंभू की बना ली है इसलिए उनको सोचना पडेगा कि सिर्फ कांग्रेस की सात पीढ़ियों को गलियाने से देश की जनता संतोष करने वाली नहीं है. उन्होंने मोदी जी को भरपूर समर्थन इसलिए दिया था कि व्यवस्था परिवर्तन हो. निराशा इसी बात की है कि कमोवेश सब तरफ प्रशासनिक व न्यायिक मामलों में स्थिति में यथावत अनुभव हो रहे हैं. महंगाई के बारे में जो सरकारी आकड़ों का मकड़जाल दिखाया जा रहा है, जो कि जमीनी हकीकत से मेल नहीं खा रहा है. क्योंकि उपभोक्ता रिटेल बाजार भाव, औषधीय खर्चे, परिवहन व्यय पहले से काफी बढ़ गए हैं. मध्यवर्गीय लोग इसकी मार झेल रहे हैं. केवल अल्प प्रतिशत सरकारी कर्मचारियों, पेंशनरों के महंगाई भत्ते में बढ़ोत्तरी से महंगाई पीड़ित आम लोगों को ज्यादा दिन तक थपकी दे कर शांत नहीं रख सकते हैं. चीन-पाकिस्तान से दोस्ती का नापाक नाटक के बाद अलगाववादी+आतंकवादी तथा नक्सलवादी आक्रमण तेज हो गए हैं. ये कैंसर का रूप बनते जा रहे हैं. ना खाऊ ना खाने दूं भी केवल जुमला बन कर रह गया है. बिना रिश्वत आज भी कोई काम नहीं हो पा रहा है.

ज्वलंत गंभीर मुद्दा मौसम की मार से उत्तर भारत के कई राज्यों के काश्तकारों पर आई आपदा का है. किसान कर्जों के कारण आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं. चुनावों के दौरान मोदी जी का एक मुद्दा किसानों की आत्महत्या का रहा था. अब मोदीराज के इसी तिमाही में मौत का आंकड़ा सौ के पार पहुँच चुका है, जो बहुत दुखद व चिंतनीय है.

लेख के अंत में नरेंद्र मोदी जी से यह कहना चाहता हूँ की अब विदेश नीति से ज्यादा देश के अन्दर की नीति पर ध्यान देने की जरूरत है. अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इंग्लेंड, फ्रांस, जर्मनी तथा कनाडा में बसे हुए भारतीयों के प्यार का दोहन करना तो ठीक है, पर लोग समझने लगे हैं कि ये आपके खुद के द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम हैं. भारतवंशी तो हर हाल में भारतमाता की जय' बोलेगा

अब आपको ओबामा जी के सर्टीफिकेट या विश्वबैंक की तहरीर पर लोग नहीं मापेंगे. कृपया अपने चुनावी वायदों की फेरहिस्त की एक बार फिर से नजरसानी कीजिये.
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