इस संसार की
व्यवस्थाओं और घटनाक्रमों पर गौर करें तो यह विश्वास अडिग होता है कि कोई अदृश्य
शक्ति जरूर है जो सारे चराचर/ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करती है. इसी अदृष्ट शक्ति
को हम लोग ईश्वर, अल्लाह, गॉड, आदि नाम से याद करते हैं. बहुत से
सच्चे योगी, बैरागी/सन्यासी तथा आत्मज्ञानी लोग उस शक्ति से साक्षात्कार भी करते
आये हैं.
ईश्वर ने पृथ्वी पर
मौजूद समस्त प्राणियों में मनुष्य को श्रेष्ठतम बनाया है, जिसे अनेक सांसारिक सुख
भोगने को दिए हैं. सुखों के अनुभव के लिए साथ साथ दु:खों की अनुभूति भी आवश्यक हुई है. दु:खों की
कल्पना के इतर इन्द्रियों के सुखों का त्याग करने वाला मनुष्य बैरागी कहलाता है. उसे राग-द्वेष, क्रोध, शोक, माया-ममता, व इच्छा-ऐषणा का कोई कोप नहीं होता है.
हमारी सनातनी सामाजिक व्यवस्था में सारे सुख-दुःख भोगने के बाद बैराग्य उत्पन्न
होने के अनेक ऐतिहासिक उदाहरण हैं. सामाजिक या पौराणिक कारणों से अहं को चोट लगने
पर बैराग्य की उत्पत्ति को एक मुख्य कारण माना जाता है, पर ऐसे भी अनेक दृष्टांत
हैं जिनमें मानव मन बाल्यकाल में कलुषविहीन अवस्था में ही बैरागी हो जाता है; आदि
शंकराचार्य व स्वामी विवेकानंद इसके अच्छे उदाहरण हैं. ये जरूरी भी नहीं है कि ऐसे
मनीषी आत्मप्रचार करते आये हों. अनेक जगत कल्याणी मानव समय समय पर समाज को नई दिशा
दे कर अनंत में विलीन हो गए.
यहाँ जिस बैरागी बाबा
की चर्चा की जा रही है, वे कौन थे, कहाँ से आये, किसी को याद नहीं. रामगंगा के पावन
तट पर एक सुरम्य स्थान को उन्होंने अपनी तपोस्थली बनायी थी. कन्द-मूल, फल या भिक्षा से प्राप्त थोड़े से
अन्न से वे अपने शरीर का पालन करते थे. निकटवर्ती गावों में कुछ अटूट श्रद्धा वाले
लोग नित्य आकर वेद-पुराणों की ज्ञानवर्धक चर्चाएँ सुनने के लिए उनके आश्रम में
आते रहते थे. बाबा के आश्रम ने धीरे धीरे एक छोटे तीर्थ का रूप ले लिया था.
सात गाँव के जमींदार
ने श्रद्धापूर्वक एक सफ़ेद रंग का घोड़े का बच्चा बाबा को भेंट कर दिया. वैसे तो
बच्चे सभी जानवरों के बड़े प्यारे लगते हैं, पर वह घोड़े का बच्चा ज्यादा ही सुन्दर
था. उसे पाकर मानो बाबा का बैराग्य छू-मंतर हो गया. वे उससे प्यार करने लगे. बच्चा
साल भर के अन्दर ही पूरा घोड़ा बन गया. अब बैरागी बाबा को ‘घोड़े
वाला बाबा’ के नाम से जानने लगे. एक दिन एक डाकू
की नजर उस घोड़े पर पड़ी तो उसने बाबा से मुंहमांगी कीमत पर घोड़े को खरीदना चाहा.
बाबा को आभास हो गया कि सामने वाला व्यक्ति डाकू/चोर/लुटेरा है इसलिए उन्होंने
अपने प्यारे घोड़े को अशुभ हाथों में देने से इनकार कर दिया. डाकू के मन में घोड़ा
प्राप्त करने की तीव्र लालसा थी. उसने थोड़ा
समय गुजर जाने के बाद एक दिन अपाहिज का वेष बनाया, और जब बाबा घोड़े पर बैठ कर जा रहे
थे तो कराहते हुए मदद के गुहार लगाई. बाबा को उस असहाय अपाहिज पर दया आ गयी
और उसे सस्नेह घोड़े पर बिठा कर साथ साथ चलने लगे. तभी ठग डाकू ने अपना असली रूप
दिखाया और घोड़े को चाबुक लगाकर दौड़ाने लगा. पीछे से बाबा की आवाज सुनकर घोड़ा रुक
गया. बाबा ने डाकू से कहा, “अच्छा हुआ तुमने मेरा मोहभंग कर दिया. मैं बैरागी होकर भी घोड़े के प्रेम-बंधन में बंध गया था. तुम घोड़े को ले जा सकते
हो लेकिन किसी को ये मत कहना कि बाबा को ठग कर घोड़ा हासिल किया है, अन्यथा दुनिया में
मजबूर अपाहिज लोगों के प्रति दयाभाव समाप्त हो जाएगा.”
डाकू शर्मिन्दा तो हुआ
ही उसे ज्ञान भी प्राप्त हो गया. वह उतर कर बाबा के चरणों में गिर गया, और उसके बाद
लूटपाट का धंधा छोड़कर सद्मार्ग पर अपना जीवन बिताने लगा.
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