गृह-प्रवेश का एक
सुन्दर व आकर्षक निमंत्रण-पत्र कूरियर के हाथों मुझे मेरे घर पर मिला तो मुझे बड़ा
आश्चर्य हुआ क्योंकि भेजने वाले सज्जन, गोविन्द जोहारी, को मैं बिलकुल नहीं जानता था. ना इस नाम के किसी व्यक्ति से दूर दूर तक कोई रिश्ता था. कुमायूं में ‘जोहारी’
उपनाम धुर उत्तर में जोहार ( हिमालयी क्षेत्र ) के आदिवासी जनजाति के लोग लगाया करते
हैं.
श्री गोविन्द जोहारी
ने अपने पते में नाम के आगे आई.ए.एस. लिखा था, तथा अपने दो मोबाईल नंबर दे रखे थे. गृह-प्रवेश अल्मोड़ा
शहर के आउट स्कर्ट में बिनसर मार्ग पर काफी ऊँचाई वाले स्थान पर नए बनाए भवन में
होना था. मैं समझ नहीं पाया कि दूर के शहर में रहने वाले मुझ अपरिचित को बुलावा
क्यों भेजा गया होगा? कहीं पता लिखने वाले ने गलती से तो मेरा पता लिख दिया?
शंकातुर होकर मैंने उनसे फोन से सम्पर्क करके पूछना उचित समझा. फोन पर उनकी आवाज
एक बूढ़े आदमी की सी भारी और बोझिल लग रही थी. उन्होंने कहा कि मुझे निमंत्रण कुछ ख़ास प्रयोजन से भेजा गया है. उन्होंने
मेरी लिखी किताबें और बहुत से लेख पढ़े थे, और उनकी अपेक्षा थी कि मैं उनकी आत्मकथा
लिखूं. बातों बातों में उन्होंने यह भी कह डाला कि वे मुझे मेरा लेखकीय पारिश्रमिक
मुंहमांगा देंगे. बहुत सोचविचार करने के बाद मैंने निश्चय किया की उनका निमंत्रण
स्वीकार कर लिया जाए. इस प्रकार मैं गृह-प्रवेश से एक दिन पहले ही सड़क मार्ग से
उनके परिसर में पहुँच गया.
अल्मोड़ा शहर की
ढलानों के ऊपर पूरब दिशा की और से बल खाती हुयी सड़क से जाते हुए मेरी गाड़ी उनके
परिसर में पहुँच गयी. जहाँ एकांत में टीला काटकर सुन्दर दुमंजिला महलनुमा घर बनाया गया था. अहाते को मौसमी फूलों से सजाया हुआ था. चारदीवारी को
ताजा ताजा रंगबिरंगे बिजली की रोशनियों से संवारा जा रहा था. कुछ कारिंदे अन्दर
बाहर जा रहे थे. घर के निकट पहुँचते ही खुद जोहारी जी बाहर निकल कर आ गए. उनके
बारे में जैसी मेरी कल्पना थी, वे उतने भी ज्यादा बूढ़े नहीं थे. उम्र करीब सत्तर वर्ष
होगी पर उनकी आवाज और हाथों में कम्पन मुझे स्पष्ट मालूम हो रहा था. उन्होंने मेरे ड्राईवर
और अपने एक कारिंदे को मेरे ठहरने की व्यवस्था के बारे में समझाया और बड़ी
आत्मीयता से मेरा हाथ थाम कर अपनी बैठक में ले गए. उन्होंने बताया कि गृह-प्रवेश
तो उन्होंने महीने भर पहले ही कर लिया था, पर बरसात के चलते विधिवत पूजा अगले दिन
के लिए टाल दी गयी थी. उन्होंने मुझ से कहा, “आप यहाँ घूमिये, फिरिए, इन वादियों का
आनंद लीजिये; पूजा के बाद आपके साथ बैठक करूंगा.”
अपने घर से चलते समय
तो मैं इसे सिर्फ एक बिजनिस ट्रिप मान कर चला था, पर यहाँ का नैसर्गिक सौन्दर्य और
अक्टूबर माह की पुष्पित, सुगन्धित छटा को देखकर भावविभोर हो गया. दूर तक पर्वत
श्रंखलाओं का घेरा और बीच में नीचे गहराई में कोसी नदी का सर्पीला मार्ग, सामने की
पहाड़ियों पर हंसती हुई दन्तपंक्ति सी श्वेत बस्तियां; कोई प्रदूषण नहीं, शीतल मंद
पवन के झोंके, कुल मिला कर एक अद्भुत अनुभूति हो रही थी. जिसकी मैंने कभी कल्पना भी
नहीं की थी.
जोहारी साहब ने देवदार
की लकड़ी के बहुत महंगे फर्नीचर बनवा रखे थे, जिनकी भीनी भीनी खुशबू हर तरफ महक रही
थी. रात काफी ठंडी थी, पर गुदगुदे नरम बिस्तर पर सोते हुए मैं दूसरी दुनिया के
सपनों में खोकर सो गया. अगली सुहानी सुबह को तरोताजा होकर अपनी कल्पनाओं को
लेखनी से उकेरना शुरू कर दिया. दिन में पूजा पाठ हुआ. उनके आमंत्रित अनेक गणमान्य मेहमान आये, भोज में शामिल हुए. मैंने देखा कि कार्यक्रम में वैभव तथा व्यवस्था की
कोई कमी नहीं थी. जब सब कार्यक्रम शालीनता पूर्वक सम्पूर्ण हो गया, तब जोहारी जी ने अपनी
रामकहानी सुनाने के लिए मुझे अपने विशेष कमरे में बुलाया. मैं पेन, पेपर, और एक
टेप-रेकॉर्डर लेकर पूरी तैयारी के साथ गया. कमरे में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती खेमा
(क्षमा) देवी मौजूद थी. उनके चेहरे पर भी बुजुर्गी की सैकड़ों झुर्रियां थी. नैन-नक्श बिलकुल
पहाड़ी/नेपाली थे. खुद जोहारी जी का चेहरा भी तिब्बतियन सा लग रहा था. मैंने
उनकी पृष्ठभूमि पर उनसे पूछना चाहता था, पर वे अपनी निजी जीवन की परतें खुद ही खोलते चले गए.
“मेरा नाम गोविन्द जोहारी है. ये मेरी
अर्धांगिनी खेमा है. हमारा एक ध्रुव नाम का बेटा है, जो नेदरलैंड में रहता है.
हमारा मूल स्थान मुनस्यारी के पास जोहार दारमा में है, जो हिन्दुस्तान व तिब्बत की सीमा पर है. मेरे पिता के पास एक सौ भेड़ें (मेंढे) हुआ करती थी. वे अपने अन्य
गांववालों की तरह ही भेड़ों पर नमक, आलू, ऊन, और पहाड़ी मसाले जम्बू-गंध्रायण आदि लाद
कर, पैदल मार्गों से हल्द्वानी, नैनीताल के आढ़तियों तक पहुँचाते थे और वहाँ से गुड़,
चावल तथा कुछ अन्य खाद्य सामग्री तिब्बत के व्यापारियों तक लेकर जाते थे. बचपन में
मैं भी दो बार उनके काफिले के साथ पैदल धारचूला से हल्द्वानी तक आया गया था. जब
हिन्दुस्तान आजाद हुआ तो हमारी ‘भोटिया’ जनजाति को आदिवासी के रूप में अनुसूचित जनजाति की सूची में
रखकर आरक्षण व विशेष सुविधाएं दी गयी. इसके लिए हम लोग स्व.गोविन्द बल्लभ पन्त और
पंडित जवाहरलाल नेहरू जी के शुक्रगुजार हैं.
मुझे पढ़ाई के लिए
नैनीताल छात्रावास में रहने का अवसर मिला, जहां मैंने औसत विद्यार्थी की तरह पढ़ाई करके
बी.ए. पास किया. सभी आदिवासी छात्रों के लिए मुफ्त भोजन व छात्रवृत्ति की व्यवस्था
थी. सच पूछो तो ये हमारे लिए एक क्रान्ति के समान था. सभी लड़कों में पढ़ने और
नौकरी करने की होड़ थी.
मैं सन १९७१ में पाकिस्तान से हुई लड़ाई के समय शार्ट सर्विस कमीशन के तहत सेना में भरती हो गया था. पांच साल बाद
ही एक कैप्टन के बतौर पैंशन लेकर निवृत्त हो गया. सरकार ने मुझे फिर से सिविल में नौकरी
दे दी. मैं जल बोर्ड का एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर बन गया. मैं पी.सी.एस. की परीक्षा में सफल रहा तो मुझे
राजस्व विभाग का सेक्रेटरी बनाया गया. मैंने आर्मी में की गयी अपनी सेवा को
जुड़वाने का आवेदन किया, जिसे स्वीकार कर लिया गया. वरिष्ठता के हिसाब से कुछ
सालों के बाद मुझे आई.ए.एस. का प्रमोशन मिल गया. हर जगह मुझे अनुसूचित जनजाति होने
का लाभ भी मिलता रहा. मैं महाराष्ट्र के एक जिले में जिलाधीश के रूप में नियुक्त हुआ, तत्पश्चात अनेक जिलों में स्थांनातरण होता भी रहा. उसी दौरान पूना में
मैंने अपना एक घर बनवाया. जिसकी लागत तब करीब पचास लाख रूपये आयी थी. हम लोग उस घर को
अपना स्थाई निवास समझने लगे थे. वहीं हमारे बेटे का जन्म भी हुआ. पूना में ही
ध्रुव की पढ़ाई-लिखाई हुई. उसने एम.सी.ए.
करके एक इन्टरनेशनल कंपनी में नौकरी कर ली. आजकल उसकी नियुक्ति नेदरलेंड में है.
मैं तो चाहता था की वह भी भारतीय प्रशासनिक सेवा में रहे, पर उसकी मर्जी नहीं थी."
ऐसा कहते हुए वे बहुत उदास हो गए थे और बहुत देर तक उनके बोल नहीं निकले. खेमा देवी चुपचाप उनका वक्तव्य सुन रही थी. मैं बीच बीच में उनके चेहरे के बदलते भावों को भी देख लेता था. वार्ता के बीच उन्होंने चाय भी मंगवाई। उन दोनों ने फीकी चाय पी क्योंकि दोनों ही मधुमेह से ग्रस्त थे. उन्होंने आगे कहना शुरू किया, “ध्रुव ने अपनी इच्छा से अपने साथ काम करने वाली एक यूरोपीय लड़की से शादी कर ली, और अब उनके दो बच्चे हैं. ये लोग हिदुस्तान आने में कई तरह की परेशानियां बता कर टालमटोल करते आये हैं. हम ही कई बार वहां जाकर आये हैं. अब भी जाने को मन तो होता है, पर अब हवाई यात्रा में दिक्कत महसूस करने लगे हैं.
ऐसा कहते हुए वे बहुत उदास हो गए थे और बहुत देर तक उनके बोल नहीं निकले. खेमा देवी चुपचाप उनका वक्तव्य सुन रही थी. मैं बीच बीच में उनके चेहरे के बदलते भावों को भी देख लेता था. वार्ता के बीच उन्होंने चाय भी मंगवाई। उन दोनों ने फीकी चाय पी क्योंकि दोनों ही मधुमेह से ग्रस्त थे. उन्होंने आगे कहना शुरू किया, “ध्रुव ने अपनी इच्छा से अपने साथ काम करने वाली एक यूरोपीय लड़की से शादी कर ली, और अब उनके दो बच्चे हैं. ये लोग हिदुस्तान आने में कई तरह की परेशानियां बता कर टालमटोल करते आये हैं. हम ही कई बार वहां जाकर आये हैं. अब भी जाने को मन तो होता है, पर अब हवाई यात्रा में दिक्कत महसूस करने लगे हैं.
सरकार ने मुझे सेवा के अंतिम वर्षों में प्रांतीय चुनाव आयोग का कमिश्नर बना दिया था. अब मुझे रिटायर
हुए भी दस साल हो चुके हैं. पूना में इतने वर्ष बिताने पर भी हम वहाँ परदेस जैसा
ही अनुभव कर रहे थे इसलिए यहाँ अपने मूल जिले में रहने का ठिकाना बनाया. यद्यपि हमने ये निर्णय बहुत देर से लिया है. अब तो अल्मोड़ा जिले के चार टुकड़े हो गए हैं, पर अल्मोड़ा शहर कई मायनों
में हमारे लिए सुरक्षित और सुविधाजनक है. मैंने पूना वाला घर तीन करोड़ रुपयों में फर्नीचर व सामान सहित बेच दिया है, और यहाँ अल्मोड़ा में सवा करोड़ में आप देख रहे
हैं, ठीक-ठाक घर बन गया है. बड़ी बात ये है कि इस मिट्टी की खुशबू में अपनेपन का
एहसास होता है, लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर हम दोनों ही थक से गए हैं. बेटा बार बार
कहता है कि नेदरलैंड में उनके साथ रहने को आ जाओ पर अब इन पुराने दरख्तों को कब तक
नई नई जगह रोपते रहेंगे.” ये कहते हुए उनका गला फिर से भर आया. खेमा देवी की आँखें भी छलछला आई.
वे थोड़ा रुकने के बाद
बोले, “मुझे अस्सी हजार रूपये पैंशन मिलती है. एक लाख से ज्यादा
रूपये मेरी जमापूंजी के ब्याज व शेयर्स का रिटर्न आता रहता है. आप देख रहे हैं हम
दोनों डाईबिटीज वाले हैं, सब कुछ होते हुए भी खा नहीं सकते हैं. अब ऊपर वाले से
शिकायत भी नहीं कर सकते हैं; उसने हमको अपनी तरफ से सब कुछ दिया है.
मैंने इंटरनेट पर
आपके ब्लॉग व सारगर्भित प्रसंग पढ़े हैं. आपकी लेखनी द्वारा चुने हुए शब्द विन्यास
बहुत प्रिय लगते हैं इसीलिये मैंने आपको बुलाया और आपने भी मेरा मान रखा है. आप
मेरी कथा को शब्दबद्ध कर दीजिये. मैं अपनी वसीयत के साथ इस कहानी को भी बांटना चाहता
हूँ ताकि मेरे नजदीकी रिश्तेदार, जो अब मेरी जायदाद पर टकटकी लगाये हुए हैं, उनका आपस में कोई विवाद ना हो.”
ऐसा कहते हुए वे सोफे पर निढाल हो गए. संध्या समय में मैंने उन्हें आत्मकथा के छूटे हुए अंशों को उजागर करने वाले उनकी निजी जिन्दगी से सम्बंधित अन्य पहलुओं पर एक लम्बी प्रश्नावली बनाकर दी. जिसका जवाब उन्होंने तैयार करके, मेरे द्वारा चाहे गए पारिवारिक चित्रों, तथा बैंक के एक हस्ताक्षरित ब्लैंक चेक सहित उसके अगले दिन मुझे सौंप दिये. मैं अपने घर लौट आया हूँ. अब भी मैं जरूरत महसूस करने पर उनसे फ़ोन पर वार्ता करके उनके जीवन के अनछुए वृत्तांत पूछता रहता हूँ. एक बार पुनः मिलने जाऊंगा. मुझे गोविन्द जोहारी जी की ये आत्मकथा अगले दो माह में सम्पूर्ण करनी है.
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