डी.ए.वी. का फुल फॉर्म है, ‘दयानंद एंग्लो वैदिक.’ स्वामी दयानंद सरस्वती (१८२४-१८८३) एक महान समाज सुधारक, चिन्तक, देशभक्त सन्यासी हुए हैं. उन्होंने अंध विश्वासों और समाज में फैले पाखंडों के विरुद्ध जन जागरण किया. आर्यसमाज की स्थापना की और सर्वप्रथम स्वराज का सन्देश दिया. हरिद्वार में गुरुकुल कागडी की स्थापना उन्होंने ही की. उनकी मृत्यु अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा एक जघन्य षडयंत्र के तहत जहर देकर कराई गयी थी. मृत्युपरांत उनके अनुयाईयों में एक लाला हंसराज ने सन १८८६ में सर्वप्रथम ‘एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना लाहौर में की उन्ही दिनों जालंधर (पंजाब) में डी.ए.वी. विश्वविद्यालय की स्थापना भी हुयी थी इसे आधुनिक भारत का नालदा कहा गया है. धीरे धीरे डी.ए.वी. स्कूलों की श्रंखला पूरे देश में फैलती चली गयी. २०१० में जब इसकी १२५ वीं जयन्ती मनाई गयी थी, तो उस वक्त के आंकड़े के अनुसार ५६० पब्लिक स्कूल व ८५ सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल थे. इसके अलावा ७० सस्थान ऐसे हैं जिनमें आर्ट, साईंस, क़ानून, कृषि, आयुर्वेद, इंजीनियरिंग, फार्मेसी, नर्सिंग, डेंटल, फीजियोथेरेपी, और वैदिक रिसर्च का अध्ययन एवं अध्यापन किया जाता है.
लाखेरी में सन १९७० तक कोई अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं था. उन दिनों उत्तर भारत के सभी शहरों में बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाने प्रचलन शुरू हुआ था. यह एक तरह से आवश्यकता भी हो गयी थी क्योंकि बंगाल एवं दक्षिण भारत के बच्चे अंग्रेजी की वजह से प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त कर रहे थे. नेता लोग जरूर अंग्रेजी का विरोध सार्वजनिक स्तर पर कर रहे थे, पर अपने खुद के बच्चों को इंग्लिस मीडियम स्कूलों में पढ़ाते थे.
शिक्षा के क्षेत्र में क्रिश्चियन मिशनरीज ने बहुत काम किया है. हालाँकि कट्टरपंथी लोग इसे ईसाई धर्म प्रचार का एक तरीका मानते रहे हैं. देश भर में ईसाई नन्स द्वारा यह पुनीत कार्य बहुत गौरवशाली ढंग से अनवरत किया जाता रहा है. चूंकि पब्लिक स्कूल खोलना व चलाना अब एक कमाऊ व्यवसाय भी बन गया है इसलिए आज देश भर में गली-गली, मोहल्ला-मोहल्ला में पब्लिक स्कूल के बोर्ड लगे हुए दिखाई देते हैं.
हमारी लाखेरी में १९७० के आसपास जब कोटा से इमैनुअल मिशनरी स्कूल वाले एसीसी मैनेजमेंट से अपना स्कूल खोलने के सम्बन्ध में मिले तो मैनेजमेंट ने सहर्ष ईश्वर नगर में क्लब के पीछे वाले नए जेएसक्यू (जूनियर स्टाफ क्वार्टर) उनको दे दिया. ये कुछ सालों तक चला, लेकिन आमदनी कम और खर्चा ज्यादा होने से गाड़ी आगे रुक गयी. मैनेजमेंट ने अजमेर के एक रिटायर्ड प्रिंसिपल श्रीवास्तव जी से संपर्क करके नई व्यवस्था ‘प्रोग्रेसिव इंग्लिश मीडियम स्कूल’ खुलवाया, जो सन १९८० तक चला. कंपनी ने उनके स्कूल को आर्थिक सहायता के साथ एक रिहायसी टीआरटी क्वार्टर भी आवंटित किया. इस समय तक एसीसी के कई अन्य कारखानों में पहले से ही डी.ए.वी द्वारा स्कूल संचालित हो रहे थे. दिल्ली मुख्यालय से लिखा-पढ़ी करके यहाँ भी पब्लिक स्कूल की शुरुआत की. छात्रों की संख्या बढ़ने पर एक और जेएसक्यू दिया गया. यहाँ के पहले प्रिंसिपल श्री जे.एन. ऋषि थे. धीरे धीरे स्कूल को अच्छी मान्यता मिलती गयी. छात्र संख्या बढ़ती रही तो कंपनी ने नीचे जींद की बावडी के पास बिल्डिंग बनाकर दी. इसको बनाने में आर्थिक योगदान डी.ए.वी. मैनेजमेंट का भी था या नहीं, मुझे मालूम नहीं है. बाद में नया स्टाफ व नए प्रिंसिपल आते रहे, लेकिन विस्तार का कार्य मुख्यत: मोहनलाल गोयल जी ने किया. उनकी एसीसी मैनेजमेंट से अच्छे सम्बन्ध थे. वे बाद में जयपुर में रीजनल डाईरेक्टर बने.
डी.ए.वी. में भी तब सारा टीचिंग स्टाफ अच्छा नहीं था. पैसा बचाने के लिए ग्रीष्मावकाश के बाद नए चेहरे (अनट्रेंड भी) रखे जाते थे. मैंने एक बार श्री गोयल जी से इस बाबत जब चर्चा की तो वे बोले “आमदनी से खर्चा बड़ा है, ३००० रुपयों में तो ‘GIRL गिर्ल’ ही मिल सकती है.” पर बाद में ये स्थिति नहीं रही थी. आज श्री ए.के. लाल यहाँ प्रिंसिपल हैं. पुराने अध्यापकों में सर्वश्री आर.के. यादव, आर.एस.एल.शर्मा, गिरिराज जायसवाल, व आर.के. गोचर मौजूद हैं. स्टाफ पूरा प्रशिक्षित है. अच्छा स्कूल होना लाखेरीवासियों का सौभाग्य है. यहाँ से पढ़ कर निकले हुए बच्चे अपने जीवन की ऊंचाईयों को राष्ट्रीय स्तर पर छू रहे हैं. इस स्कूल का नाम बूंदी जिले में ही नहीं, पूरे राजस्थान प्रदेश के अग्रिम पब्लिक स्कूलों में गिना जाता है. यहाँ से पढ़ कर निकले हुए बच्चे विदेशों में भी परचम लहरा रहे हैं. स्कूल को इस ऊँचाई तक पहुँचाने का श्रेय जरूर स्कूल प्रबंधन को है, पर एसीसी मैनेजमेंट ने भी भरपूर सहयोग दिया है, विशेषकर पूर्व जनरल मैनेजर श्री पी.के.काकू की व्यक्तिगत शुभचिन्ता नहीं भुलाई जा सकती है. मैं समझता हूँ कि कंपनी अपने कर्मचारियों के बच्चों के अनुपात में आज भी आर्थिक सहायता स्कूल को देती होगी. स्कूल प्रबंधन बताता है कि अब दूर दराज के इलाकों से भी बच्चे यहाँ पढ़ने आने लगे हैं.
लाखेरी में सन १९७० तक कोई अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं था. उन दिनों उत्तर भारत के सभी शहरों में बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाने प्रचलन शुरू हुआ था. यह एक तरह से आवश्यकता भी हो गयी थी क्योंकि बंगाल एवं दक्षिण भारत के बच्चे अंग्रेजी की वजह से प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त कर रहे थे. नेता लोग जरूर अंग्रेजी का विरोध सार्वजनिक स्तर पर कर रहे थे, पर अपने खुद के बच्चों को इंग्लिस मीडियम स्कूलों में पढ़ाते थे.
शिक्षा के क्षेत्र में क्रिश्चियन मिशनरीज ने बहुत काम किया है. हालाँकि कट्टरपंथी लोग इसे ईसाई धर्म प्रचार का एक तरीका मानते रहे हैं. देश भर में ईसाई नन्स द्वारा यह पुनीत कार्य बहुत गौरवशाली ढंग से अनवरत किया जाता रहा है. चूंकि पब्लिक स्कूल खोलना व चलाना अब एक कमाऊ व्यवसाय भी बन गया है इसलिए आज देश भर में गली-गली, मोहल्ला-मोहल्ला में पब्लिक स्कूल के बोर्ड लगे हुए दिखाई देते हैं.
हमारी लाखेरी में १९७० के आसपास जब कोटा से इमैनुअल मिशनरी स्कूल वाले एसीसी मैनेजमेंट से अपना स्कूल खोलने के सम्बन्ध में मिले तो मैनेजमेंट ने सहर्ष ईश्वर नगर में क्लब के पीछे वाले नए जेएसक्यू (जूनियर स्टाफ क्वार्टर) उनको दे दिया. ये कुछ सालों तक चला, लेकिन आमदनी कम और खर्चा ज्यादा होने से गाड़ी आगे रुक गयी. मैनेजमेंट ने अजमेर के एक रिटायर्ड प्रिंसिपल श्रीवास्तव जी से संपर्क करके नई व्यवस्था ‘प्रोग्रेसिव इंग्लिश मीडियम स्कूल’ खुलवाया, जो सन १९८० तक चला. कंपनी ने उनके स्कूल को आर्थिक सहायता के साथ एक रिहायसी टीआरटी क्वार्टर भी आवंटित किया. इस समय तक एसीसी के कई अन्य कारखानों में पहले से ही डी.ए.वी द्वारा स्कूल संचालित हो रहे थे. दिल्ली मुख्यालय से लिखा-पढ़ी करके यहाँ भी पब्लिक स्कूल की शुरुआत की. छात्रों की संख्या बढ़ने पर एक और जेएसक्यू दिया गया. यहाँ के पहले प्रिंसिपल श्री जे.एन. ऋषि थे. धीरे धीरे स्कूल को अच्छी मान्यता मिलती गयी. छात्र संख्या बढ़ती रही तो कंपनी ने नीचे जींद की बावडी के पास बिल्डिंग बनाकर दी. इसको बनाने में आर्थिक योगदान डी.ए.वी. मैनेजमेंट का भी था या नहीं, मुझे मालूम नहीं है. बाद में नया स्टाफ व नए प्रिंसिपल आते रहे, लेकिन विस्तार का कार्य मुख्यत: मोहनलाल गोयल जी ने किया. उनकी एसीसी मैनेजमेंट से अच्छे सम्बन्ध थे. वे बाद में जयपुर में रीजनल डाईरेक्टर बने.
डी.ए.वी. में भी तब सारा टीचिंग स्टाफ अच्छा नहीं था. पैसा बचाने के लिए ग्रीष्मावकाश के बाद नए चेहरे (अनट्रेंड भी) रखे जाते थे. मैंने एक बार श्री गोयल जी से इस बाबत जब चर्चा की तो वे बोले “आमदनी से खर्चा बड़ा है, ३००० रुपयों में तो ‘GIRL गिर्ल’ ही मिल सकती है.” पर बाद में ये स्थिति नहीं रही थी. आज श्री ए.के. लाल यहाँ प्रिंसिपल हैं. पुराने अध्यापकों में सर्वश्री आर.के. यादव, आर.एस.एल.शर्मा, गिरिराज जायसवाल, व आर.के. गोचर मौजूद हैं. स्टाफ पूरा प्रशिक्षित है. अच्छा स्कूल होना लाखेरीवासियों का सौभाग्य है. यहाँ से पढ़ कर निकले हुए बच्चे अपने जीवन की ऊंचाईयों को राष्ट्रीय स्तर पर छू रहे हैं. इस स्कूल का नाम बूंदी जिले में ही नहीं, पूरे राजस्थान प्रदेश के अग्रिम पब्लिक स्कूलों में गिना जाता है. यहाँ से पढ़ कर निकले हुए बच्चे विदेशों में भी परचम लहरा रहे हैं. स्कूल को इस ऊँचाई तक पहुँचाने का श्रेय जरूर स्कूल प्रबंधन को है, पर एसीसी मैनेजमेंट ने भी भरपूर सहयोग दिया है, विशेषकर पूर्व जनरल मैनेजर श्री पी.के.काकू की व्यक्तिगत शुभचिन्ता नहीं भुलाई जा सकती है. मैं समझता हूँ कि कंपनी अपने कर्मचारियों के बच्चों के अनुपात में आज भी आर्थिक सहायता स्कूल को देती होगी. स्कूल प्रबंधन बताता है कि अब दूर दराज के इलाकों से भी बच्चे यहाँ पढ़ने आने लगे हैं.
अंत में, जैसा कि डी.ए.वी, के नाम से ही जाहिर है, इसमें अंग्रेजी के अलावा संस्कृत व हिन्दी में भी बच्चों को ज्ञान दिया जाता है. उनके चरित्र निर्माण पर विशेष ध्यान रखा जाता है. जय हो.
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-10-2015) को "पतंजलि तो खुश हो रहे होंगे" (चर्चा अंक-2126) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
महोदय,
जवाब देंहटाएं'गुरुकुल काँगड़ी', हरिद्वार की स्थापना महात्मा हंसराज ने नहीं, स्वामी श्रद्धानन्द ने की थी।
-शचीन्द्र
आदरणीय भाई साहब ,आपनें डी.ए.वी स्कूल लाखेरी के बारे में लिखा ,अच्छा लगा । मैं भी इस संस्था में 86-87में कार्यरत थी । अब समझ नहीं आ रहा कि मैं किस श्रेणी में आती हूँ ।उसके बाद 10 वर्ष पोरबंदर Saint Mary's में भी अध्यापन कार्य किया ।
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