पटेल चेस्ट
इन्स्टीट्यूट (दिल्ली विश्वविद्यालय) से ट्रेनिंग लेकर मुझे दिल्ली नगर निगम के
कालका जी कॉलोनी हॉस्पीटल में सर्विस मिल गयी थी. उन दिनों मैं अपनी अंग्रेजी सुधारने के लिए The Hindustan Times अखबार
लिया करता था. अंग्रेजी तो ज्यादा नहीं सुधरी, पर 7 अप्रेल 1960 के पेपर में मुझे
ए.सी.सी. का एक ऐड जरूर मिल गया, जो मेरे जीवन का एक टर्निनिंग पॉइंट बना.
मुझे बतौर मेडीकल
लेबोरेटरी टैक्नीशियन ए.सी.सी. में नियुक्ति मिल गयी. लाखेरी पहली दृष्टि में मुझे
यों भी भा गयी; चारों तरफ नैसर्गिक छटा बिखेरते हुई पहाडियां और लबालब भरे बड़े तालाब, बरसात के दिनों की हरियाली, और सबसे विशिष्ट बात कि पितातुल्य स्नेही बॉस डॉ.
कृपालसिंह सोढ़ी.
डॉ. सोढ़ी भव्य
व्यक्तित्व के धनी थे -- श्वेत दाढ़ी, कबरी आँखें, श्वेत ही पगड़ी और श्वेताम्बर.
स्वभाव से कड़क व अक्खड़. मैंने तो केवल आठ ही महीने उनके नेतृत्व में काम किया, और उसके
बाद वे रिटायर हो गए थे. पुराने लोग बताते थे कि उनका डाईग्नोसिस बहुत सटीक व सही
हुआ करता था. जिसको भी उन्होंने टी.बी. का रोग बताया, वे बाद में सही साबित हुए. यद्यपि एक वक्त लोग इसे उनका दिमागी फितूर कहा करते थे. झूठ-मूठ का ‘सिक’ बनाने
वालों को वे पकड़ लेते थे. उनके सामने बहाने नहीं चलते थे. वैसे वह ज़माना अपनेपन का
था. किसी की तबीयत बिगड़ने की खबर सुन कर कर
बिना बुलाये ही वे उनके घर पहुँच जाया करते थे.
कारखाने के कैंटीन
हॉल में जब उनकी विदाई पार्टी हुयी तो बहुत से कामगारों की आँखें सजल हो आई थी. उस
मौके पर मैंने भी अपनी एक हस्तलिखित कहानी संग्रह "विष के बीज" उनको भेट की थी. दुर्भाग्य से मेरी प्रारम्भिक 11 कहानियों का यह संग्रह मेरे पास नहीं रहा. उसकी मूल पांडुलिपि किसी साथी ने पढ़ने के लिए माँगी थी और लौटाई नहीं.
डॉ. सोढ़ी जी के एक
पुत्र लेबर ऑफिसर बन कर दो बार लाखेरी कारखाने में थोड़े थोड़े समय के लिए रहे. वे बाद में पोरबंदर/शिवालिया को स्थानांतरित हो गए थे. साथी लोग बताते थे कि पिता की
प्रतिमूर्ति डॉ. सोढ़ी जी का एक बड़ा बेटा भी था, जिसकी किसी दुर्घटना में मृत्यु हो
गयी थी. पुत्रशोक से बड़ा शोक और कोई नहीं होता है, ऐसा कहा जाता है. संभवतः डॉ. सोढ़ी इसी कारण
बहुधा अपसेट रहा करते थे. पर मुझसे तो वे सदा पितृस्वरुप में ही मिला करते थे.
सुनहरे दिनों के वे चांदी के से लोग अब स्मृतिशेष हैं.
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