शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

रात गयी, बात गयी

ए.सी.सी. कॉलोनी, लाखेरी (राजस्थान) की जी-टाइप क्वार्टर नम्बर ४ में श्री वेद प्रकाश शर्मा, हेड ड्राफ्ट्समैन सपरिवार रहते थे. पिता स्वर्गीय श्री बिहारीलाल जी (चीफ स्टोरकीपर) के जमाने से ही वे आर्थिक रूप से संम्पन्न थे. परम्परागत पारिवारिक व्यवस्थाओं के तहत घर में खूब सारे सोने और चांदी के जेवरात थे. उन दिनों लाखेरी मे कोई बैंक या लॉकर नाम की चीज नहीं होती थी. उनके पास एक लाइसेंसी बन्दूक भी थी.

ढाई कमरों वाले उस घर में छ: छोटे-बड़े सदस्य सोये हुए थे. रात में रौशनदान से रस्सी के सहारे चोर घुसे, दरवाजा खोला और सारे बक्से उठाकर पीछे खेत में ले गए. उनको खंगाल कर जेवर तथा बन्दूक लेकर चलते बने.

सब लोग सकते आ गये क्योंकि बड़ी तरकीब से सेंधमारी हुई थी. स्थानीय पुलिस तफतीश में जुट गयी. बूंदी के तत्कालीन एस.पी. मिस्टर सिंघल (नाम मुझे ठीक से याद नहीं रहा), जो कि हाल में लन्दन के स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज से क्राइम सम्बन्धी विशेष ट्रेनिंग लेकर लौटे थे, इस केस मे बहुत रूचि ले रहे थे.

सेंधमारों ने खेत मे कुछ टोटका किया हुआ था, वहाँ उनके बालों का एक गुच्छा मिला. सिंघल साहब ने मेरी लैब मे बालों का माइक्रोस्कोपिक विश्लेषण किया ताकि सेंधमारों की उम्र का अंदाजा मिल सके. इस प्रकार एस.पी. सिंघल साहब से मेरा परिचय हुआ. जाते समय उन्होंने मुझसे कहा, कभी बूंदी आओ तो जरूर मिलना.

सेंधमारी करने वाली ये गैंग कोटा-बाराँ रोड की बावरिया बस्ती की थी, पकड़े गए. जेवरात कुछ उन्होंने बेच डाले थे, कुछ बरामद किये गए. निशानदेही पर बन्दूक भी एक जगह नहर मे डली हुई मिल गयी. बहरहाल ये केस आगे लंबा चला.

मेरी उम्र तब लगभग २६ वर्ष थी. मैं सीमेंट कर्मचारियों की बहुधंधी सहकारी समिति की प्रबंधकारिणी का आनरेरी जनरल सेक्रेटरी चुना गया था. यद्यपि मैं आज भी, उम्र की इस दहलीज पर अपने आप को वैचारिक दृष्टि से परिपक्व नहीं मानता हूँ, तब तो मैं ज्यादा ही खुराफाती था. मैंने सन १९६२ में अपने कुछ साथियों को लेकर होलिकोत्सव के अवसर पर स्थानीय स्तर पर एक मूर्ख समेलन का आयोजन शुरू किया, जो बहुत जल्दी ही लोकप्रिय हो गया. ३ घंटों के स्टेज प्रोग्राम मे तमाम स्थानीय हास्य, खबरें, नाटक, कवितायें, चुटकुले, रिकार्ड डांस, तथा अंत में कस्वे के गणमान्य लोगों को उनके चाल-चरित्र से मेल खाती हुई उपाधियां वितरित की जाती थी. लोग पूरे साल भर इस कार्यक्रम का इन्तजार किया करते थे. ये हास्य सम्मलेन पूरे २५ साल, यानि सन १९८६ तक प्रतिवर्ष आयोजित होता रहा. चूँकि इसमें मैं मुख्य सूत्रधार होता था इसलिए मुझे आज भी इसकी खट्टी-मीठी अनेक यादें ताजा हैं. कुछ लोग, उनके बारे मे कही गयी बातों का बुरा भी मानते थे, जिनसे बाद मे कई बार मुझे माफी मांगनी पड़ती थी.

सन १९६६ या ६७ में श्री बृजमोहन पारीख लाखेरी मे थानेदार हुआ करते थे. वे सिपाही से प्रोन्नत थे. सरल सज्जन थे. लोग कहते थे कि काम मे बहुत ढीले थे. उपाधियों की लिस्ट मे हमारी कमेटी ने उनको लीपने का न पोतने का उपाधि प्रदान की थी. वे स्वयं श्रोताओं मे उपस्थित थे. ये कहावत राजस्थान मे प्रत्यक्ष रूप से बिल्ली का गू से जुड़ी है. पारीख साहब को उनका इस तरह मजाक बनाया जाना बहुत अखरा. वे गुस्से में थे. मुझे बाद मे बुलाकर उन्होंने धमकाया भी कि ईलाका हाकिम की बेइज्जती करने के जुर्म मे वे मुझे अन्दर कर सकते हैं. जिस अंदाज मे उन्होंने व्यवहार किया मुझे भी तब माफी माँगना गवारा नहीं हुआ. अत: उनसे दुआ-सलाम बन्द हो गयी.

कुछ महीनों बाद कोऑपरेटिव सोसाइटी के कार्य हेतु मैं जिला मुख्यालय बूंदी गया तो एस.पी. सिंघल साहब से भी मिलने उनके कार्यालय चला गया. जब मैं उनके कार्यालय मे दाखिल हुआ तो मुझे पहचानते हुए उन्होंने बैठने को कहा. वहाँ उनके सामने वाले एक कुर्सी पर थानेदार बृजमोहन पारीख पहले से विराजमान थे. इधर-उधर की बातें करते हुए एस.पी. साहब ताड़ गए कि हम दोनों लाखेरी से आये थे पर आपस मे संवाद नहीं कर रहे थे. अत: उन्होंने मुझ से इसका कारण पूछा. मैंने उनको सही सही बताया कि होलिकोत्सव पर मूर्ख सम्मलेन में इनको हमारी कमेटी ने एक गलत उपाधि से नवाजा था, उपाधियां पढ़ी मैंने थी, तब से हमारी दुआ सलाम बन्द है.

उन्होंने पूछा, क्या उपाधि दी गयी थी? मैंने कहा मैं दुबारा नहीं बोल सकता हूँ. इन्ही से पूछ लीजिए.

सिंघल साहब ने पारीख साहब से पूछा, तुम्ही बताओ ऐसी क्या उपाधि थी जो झगड़े का कारण बनी? पारीख साहब ने झिझकते हुए बताया कि लीपने का न पोतने का जिसका अर्थ होता है, बिल्ली का गू.

सिंघल साहब हँसते हुए लोटपोट हो गए, बोले, वाह भाई, क्या खूब सोच समझ कर उपाधि दी है. मैं भी होता तो यही उपाधि देता. इसके आगे वे बोले, मिलाओ हाथ. ये कोई बात है? वो होली की बात थी रात गयी बात गयी उसे अब भूल जाओ.” ये कहते हुए वे अपनी सीट से उठ खड़े हो गए.

इस घटना को अब ४५ साल से ज्यादा हो गए हैं, स्मृतिशेष पारीख साहब से मैं उनके रिटायरमेंट के बाद भी कई बार कोटा में मिला, और उनके आशीर्वाद लेता रहा.
                                        ***

3 टिप्‍पणियां:

  1. सच है, रात गयी बात गयी, मन में क्यों बसा के रखना उसे..

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  2. खूब आनंद आता था महामूर्खसम्मेल में । अभी भी कई उपाधियाँ याद करके हँसी आ जाती है।

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  3. खूब आनंद आता था महामूर्खसम्मेल में । अभी भी कई उपाधियाँ याद करके हँसी आ जाती है।

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