गुरुवार, 27 सितंबर 2012

काखी

कुमाऊंनी बोली-भाषा में चाची/काकी को ‘काखी’ पुकारा जाता है. जिस तरह से आजकल शहरों में ‘अँकल-आंटी’ के संबोधन का आम चलन हो गया है, उत्तराखंड में वयोवृद्ध महिला को ‘आमा’ व अधेड़ उम्र की महिला को ‘काखी’ कह कर बात करना आदरणीय पहचान है. प्यार व आदर कर रिश्ते अनजानों के साथ भी कभी कभी यों ही बन जाते हैं. एक ७५ वर्षीय महिला को ७० वर्षीय व्यक्ति काखी कहे तो बुरा नहीं माना जाएगा.

दिल्ली के बाहर नवीन ओखला विकास प्राधिकरण, यानि ‘नोयडा’ (Noida), के कुछ सेक्टरों में संभ्रांत लोगों के आलीशान घर हैं. RWA (रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन) द्वारा तमाम नागरिक सुविधाओं की निगरानी की जाती है. महानगर की भीड़ भरी दुनिया से थोड़ी दूरी पर ये नवविकसित कॉलोनियां बहुत व्यवस्थित हैं. बीच-बीच में पार्क भी बनाए गए हैं, जो धीरे धीरे विकसित किये जा रहे हैं. इन पार्कों में जाड़ों में धूप सेकने वाले, अन्य मौसमों में भी शाम सुबह घूमने वाले लोग, तथा खेलने वाले बच्चों की धूम रहती है.

जनवरी माह के एक सर्द दिन जब मैं अपनी पत्नी सहित पार्क की एक बेंच पर धूप का आनन्द ले रहा था, तभी लगभग ७५+ वर्षीय एक महिला लाठी टेकते हुए संधिवात के रोगिओं की तरह चलते हुए हमारी ही बेंच पर आकर विराजमान हो गयी और स्नेह पूर्वक बतियाने लगी. उसने बताया कि कुमाऊँनी सुहागिनों के गले में ‘काला चरेऊ’ (बारीक काली मोतियों की माला) देखकर उसने हमें पहचाना. हमें उसकी बातें-अपनापन बहुत अच्छा लगा. उसने बहुत साधारण से सस्ते कपड़े [धोती-ब्लाउज) पहने हुए थे, जो एकदम घिसे-पिटे पुराने से लग रहे थे. पैरों में भी पुरानी घिसी हुई हवाई चप्पल थी.उसकी बातों से मालूम हुआ कि उसका बेटा किशनचन्द्र पांडे भारत सरकार के विदेश विभाग में बड़ा ऑफिसर था, जिसने ज्यादा समय विदेशों में ही बिताया है और अब एक बड़े अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक संगठन के प्रशासनिक पद कार्यरत है.

माँ कभी भी बेटे के साथ विदेश नहीं गयी. एक ही बेटा है और एक बेटी भी है, जो अल्मोडा के किसी गाँव में सपरिवार रहती है. किशंनचंद्र के लंबे समय तक विदेश में रहने के दौरान वह बेटी के ही पास् रही. अब जब बेटा दिल्ली में व्यवस्थित हुआ है तो वह उसके साथ आ गयी है. उसको यहाँ का वातावरण कतई अच्छा नहीं लग रहा है. यहाँ सब शहरी लोग हैं. अपनी बोली-भाषा वाला कोई नहीं है. दिल के तमाम दर्द और गुबार किसे सुनाये? संयोग से हम मिल गए तो बुढ़िया ने सारी बातें उगलनी शुरू कर दी. बातों बातों में उसने अपनी बहू की बुराई शुरू कर दी. उसकी प्रकृति और प्रबृत्ति के बारे में ऐसी ऐसी बातें कही कि हमें अच्छा नहीं लग रहा था. उसने बताया कि ‘वह किसी से बात नहीं करने देती है ओर बात-बात में डांटती-फटकारती रहती है. इस प्रकार उसका बेहाल हुलिया देख कर और बातें सुन कर मन हुआ कि उसके बेटे-बहू से जरूर मिला जाये. उसे अपने घर का नम्बर मालूम नहीं था, घर नजदीक में ही था इसलिए उसने घर की तरफ ले जाकर दूर से ही अपना तिमंजिला मकान दिखाया और कहा, ‘इतवार को आना, उस दिन मेरा किशन घर पर ही रहता है.” मैंने उसको कहा कि हम इतवार को अवश्य आयेंगे.” मेरी बात से वह बहुत उत्साहित नजर आई.

आगामी रविवार की सुबह १० बजे मैं और मेरी पत्नी दोनों जने उत्कंठा लिए हुए उनके बंगले पर पहुँच गए. गेट पर दरबान खड़ा था, उसने हमारी कैफियत पूछी और अन्दर सूचना देने के बाद हमें दाखिल होने दिया. एक तरफ दो भीमकाय जर्मन शेफर्ड कुत्ते बंधे हुए थे. सजा सवांरा घर अपनी विशेषता लिए हुए था. वृद्धा ने आकर हमारी आगवानी की और अपने बेटे से हमारा परिचय कराया, श्रीमती किशनचन्द्र भी मुस्कुराते हुए सामने आई. दोनों बहुत सभ्य और संभ्रात लगे. बातें हुई. हमने उनको बताया कि हम यहाँ अपने बेटे के पास आये हुए हैं. उन्होंने भी अपने परिवार के विषय में बताया, उनकी दो बेटियाँ हैं, और दोनों ही मेडीकल डॉक्टर हैं तथा विदेश में हैं. उन्होंने बताया कि वे चामी गाँव के पांडे हैं. श्रीमती पांडे रंग रूप में कुछ सांवली और बोलचाल में पंजाबी लहजा था. मुझे नहीं लग रहा था कि वह भी कुमाऊंनी है अत: पूछ ही लिया, “पांडे साहब तो चामी के हैं, आपके मायके वाले कहाँ के हैं?” इस प्रश्न के जवाब में वह कुछ अचकचाई. बोली, “मैं तो कभी पहाड़ गयी ही नहीं.” फिर अपने पति की तरफ मुड़कर बोली, “आप बता दीजिए कि मेरे माँ बाप कहाँ के थे?”

किशन जी ने पिथोरागढ़ के किसी गाँव का नाम लिया. इस पर आगे कोई चर्चा नहीं हुई. शिष्टाचार वश चाय भी आयी. मैंने उनकी माता जी की चर्चा करते हुए कहा कि “ऐसा लगता है कि इनकी जड़ें पहाड़ में होने से यहाँ के नए वातावरण में आत्मसात नहीं हो पाई है.” इस पर उनकी बहू का मिजाज बिगड़ गया. मानो कोई ततैया काट गया हो. बोली, “इनकी पहाड़ी सोच बदलने वाली नहीं है. यहाँ भी नौकर चाकरों से घरेलू बातें किया करती हैं, हमारी इज्जत का भी इनको कोई ख्याल नहीं है. अच्छे अच्छे कपड़े देते है तो पहनती नहीं है, छुपाकर रख देती है. लोगों में हमारी बदनामी करती रहती है.” किशन पांडे अपनी पत्नी के कठोर वचन सुनकर प्रतिक्रियाहीन बैठे रहे. वृद्ध रूआंसी होकर रह गयी. जिसके आमंत्रण पर हम वहाँ गए थे उसकी फजीहत देख कर अजीब दु:ख हो रहा था. मुझे अफ़सोस हुआ कि मैंने गलत सन्दर्भ छेड़ दिया.

वातावरण को हल्का करने के लिए मैंने आत्मीयता बताते हुए कहा “काखी, बुढ़ापा इनके साथ ही काटना है, अब पुराना समय बदल गया है. जैसा ये कहती हैं, वैसे ही रहो. यहाँ तो सब तरह की सुख सुविधा है.”

बृद्धा अपनी डबडबाती आँखों को पोंछते हुए बोली, “तूने मुझे काखी कहा है, तो सुन यहाँ मुझसे बात करने वाला कोई नहीं है. ये लोग मुझे बोझ समझते हैं. मैं वापस अपनी बेटी के पास पहाड़ जाना चाहती हूँ. अगर तू मुझे वहाँ पहुँचा दे तो उपकार मानूंगी.” इस पर उसका बेटा बोला, “ठीक है, जब तू यहाँ नहीं रहना चाहती है तो इनको क्यों बोलती है. मैं तुझे पहुंचा दूंगा.”

वातावरण बहुत बोझिल हो गया. मेरी पत्नी ने चलने का इशारा किया और मैं खिसियानी हँसी हँसते हुए उठा, नमस्कार के साथ, यह कहते हुए कि “काखी, हम फिर मिलने आयेंगे,” हम चले आये.

सगी माँ के साथ ऐसा तिरस्कार पूर्ण व्यवहार से हम दोनों ही बहुत आहत हुए, पर हम दुबारा कभी उनके घर नहीं गए.
(इस कहानी में बृद्धा के बेटे और उसके गाँव का नाम काल्पनिक है अन्यथा  शेष सभी बातें सच हैं.)
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4 टिप्‍पणियां:

  1. जहाँ नहीं चैना, वहाँ नहीं रहना । जहाँ सम्मान न हो बड़ों का, वहाँ जाने से बचना चाहिये ।

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  2. Pandey ji - Charn bandna. Lagta hai aap ki Ph.D. mein lakhoo paney ho gai honge.

    Good research. Really eye opener for we people who belongs to rural background. keep on exposing such realities.

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