सोमवार, 21 जनवरी 2013

परिवर्तन - 2

रघु का पिता केसरीमल एक भूतपूर्व म्युनिसिपल चेयरमैन  के बंगले की साफ़-सफाई के काम में नियुक्त था. उसने देखा/समझा कि समाज में लोगों के आगे बढ़ने के पीछे शिक्षा ही एक बड़ा कारक है. इसलिए उसने रघु को स्कूल भेजा और बाद में कॉलेज में बी.ए. तक पढ़ाया, हालांकि रघु पढ़ाई में औसत से भी कमजोर रहा, पर कैसे भी ग्रेजुएट हो गया. उन दिनों दलितों में भी दलित, मेहतर समाज, में इतनी बड़ी डिग्री प्राप्त करना बड़ी बात थी. रघु के साथ वाले तमाम लड़के इधर-उधर म्युनिसपेलिटीज में नौकरी पाकर, अपने पुश्तैनी धन्धे पर लग कर गृहस्थ हो गए थे. कुछ तो आवारा नशेड़ी भी बन कर घूम रहे थे.

रघु के मन में कई दिनों तक उथल पुथल चलती रही. वह समझ नहीं पा रहा था कि अपने इस दलित समाज में कैसे इन्कलाब यानि परिवर्तन  लाया जा सकता है. क्योंकि लाख सुविधाओं/आरक्षण के वावजूद समाज के लोग अपनी लीक को नहीं छोड़ रहे थे. उसने एक बड़ा सा बैनर बनवाया जिस पर रंगीन अक्षरों में लिखा गया कि ‘जब तक हम खुद नहीं बदलेंगे, यह समाज कभी नहीं बदलेगा.’ इस बैनर को उसने बस्ती के पंचायती चबूतरे के पास मजबूती से लगा दिया.

बस्ती के छोटे बड़े सभी बाशिंदों ने इस बैनर को पढ़ा या पढ़वाया. आपस में बतिया कर इसके अर्थ निकाल रहे थे, कोई कहता था, “अब रघु नेता बनाना चाहता है.” वार्ड मेंबर ने अपनी प्रतिक्रिया यों बयान की, “ऐसे लिखने से कोई बदलने वाला नहीं है.”

सचमुच इसका उन लोगों पर कोई असर नहीं दिख रहा था. नौजवान लड़के साथ में अधेड़ उम्र तक के लोग शाम होते ही कच्ची शराब पीकर रोज गाली गलौज करते रहते थे, और हुक्कों पर दम लगाया करते थे. महिलायें सुबह सुबह डलिया के ऊपर झाड़ू रख कर शहर की तरफ निकल जाया करती थी, अधिकतर औरतें पान, खैनी, तम्बाकू, खाती. व बीड़ी पीती थीं. मोहल्ले में केवल बूढ़े व बीमार बचे रहते थे.

घरों के बगल में सूअरों के बाड़े/दड़बे बने थे. सूअरों का बेधड़क आवागमन साथ में गन्दगी कोढ़ की तरह फैली रहती थी. सुअर-पालन को लोग आमदनी का जरिया बताते हुए पुश्तैनी कारोबार की संज्ञा देते थे. वार-त्यौहार गोश्त के लिए किसी सूअर का चीत्कार फिर उसकी ह्त्या रघु को बहुत अखरती थी, पर वह अपने आप को लाचार पाता था कोई भी इस तरह का इन्कलाब नहीं चाहता था कि सामाजिक ढांचा बदले. नालियों में गन्दगी में मुँह मारते हुए मुर्गे-मुर्गियों को देख वह घिन से मुँह बिचकाया करता था. कई बार सोचता था कि मैं गलत जगह पैदा हो गया हूँ.

रघु ने देश की राजनैतिक बयार को भी ठीक से पहचान लिया था, उसने बाबा साहेब अम्बेडकर की आत्मकथा दो बार आमूलचूल पढ़ी. फिर उनकी अध्यक्षता में बने देश संविधान के उन अंशों को भी पढ़ा, जिनमें दलितोद्धार की व्यवस्थाएं थी. इससे उसमें नई चेतना जागृत हो गयी. वह सोचने लगा कि समाज के लिए कुछ नया तो करना ही पड़ेगा ताकि दलित लोग भी राष्ट्र की मुख्य धारा में आकर सम्मान पूर्वक जी सकें. इसके लिए उनके दब्बूपने को हटाना जरूरी था. धीरे धीरे परिवर्तन के सिद्धांत को वह पचा नहीं पा रहा था. उसको यह भी अहसास था कि केवल उसकी एक बस्ती में सुधार करने से पूरे देश के मेहतर समाज में परिवर्तन लाना संभव नहीं होगा, पर यह भी तो सच है कि बूँद बूँद से घड़ा भर सकता है.

कहने को देश में पहले से बहुत से दलित राजनेता मौजूद हैं, प्रशासन में भी कई लोग बड़े जिम्मेदार पदों तक पहुँच गए हैं, पर लगता है कि असल दलित तो अभी भी अपनी ही जगह पर हैं. जो आगे बढ़े हैं, उनकी अलग जाति/बिरादरी सी बन गयी है. वे जानकार व  सुविधाभोगी हो गए हैं, और अब मुड़कर नीचे की तरफ देखते भी नहीं हैं. सारा गुणा-भाग करने के बाद रघु ने एक राष्ट्रीय राजनैतिक पार्टी की सदस्यता लेकर अपने मिशन को आगे बढाने का निश्चय किया और अपनी वाक् प्रतिभा के बल पर वह पार्टी के बड़े नेताओं की नजर में आ गया. पार्टी में उसे दलित मुखौटे के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा. यह स्थिति काफी दिनों तक चलती रही जिस पर रघु का मन कई बार विद्रोह करने को भी हुआ, पर अनुशासन की जंजीर उसने नहीं तोड़ी. वह इस तरह एक सांचे में फिट होकर रह गया. रघु पर पकड़ मजबूत रखने के लिए प्रांतीय अध्यक्ष जी ने उसे प्रांतीय कोषाध्यक्ष बना कर नई जिम्मेदारी दे दी.

प्रांतीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने के बाद रघु ने जब विधान सभा के चुनावों में अपने क्षेत्र से अपनी दावेदारी पेश की तो उसे पार्टी का टिकट मिल ही गया. चुनाव में सारे चुनावी तिकड़म करने के बावजूद भीतरघातियों व धूर्त जातिवादी लोगों ने उसे जीतने नहीं दिया.

यद्यपि रघु का पारिवारिक जीवन आम सामाजिक कार्यकर्ता की तरह ही था, पर दलित की छाप लगी रहने से वह नेताओं के समाज में ज्यादा घुलमिल नहीं पाया था. एक कारण यह भी था कि उसकी पत्नी अनपढ़ देहाती थी.

इस बार कुछ ऐसे समीकरण बने कि बिना मांगे ही हाई कमांड ने दलित कोटा में से उसको लोकसभा के लिए टिकट दे दिया. हवा अनुकूल थी. रघु उर्फ रघुनाथ मछेरवाल जीत कर दिल्ली पहुँच गये और राष्ट्रीय धारा में आ गए. कई महत्वपूर्ण कमेटियों में नामजद भी हो गए. इस धटना क्रम के चलते उनके जीवन मे भारी परिवर्तन आ गए. थोड़े वर्षों में ही उनकी आर्थिक स्थिति सुधर गयी. कहते हैं कि ‘पैसा भगवान तो नहीं, पर भगवान से कम भी नहीं है.’ उनका जयपुर में अपना एक आलीशान घर बन गया है, बेहतरीन गाड़ी भी है. इस साल उन्होंने परमिट वाली दो बड़ी बसें जयपुर-कोटा रूट पर डाल दी हैं. कहने को यह सब बैंक लोन पर हुआ है, पर सच्चाई यह है कि सब ऊपर वाले की कृपा से हो रहा है. खुलासा यह है कि जब कार्यकर्ता नेता बन जाता है तो वह एजेंट का काम आसानी से कर लेता है. वह ठेके दिला सकता है, परमिट दिला सकता है, नौकरी दिलवा सकता है, स्थानान्तरण करवा सकता है, प्रशासन में फंसे मामलों में मनचाहे फैसले करवा सकता है, और जरूरतमंद लोग खुशी से नोटों की गड्डियां थमा जाते हैं.

रघुनाथ जी का भविष्य आगे भी उज्ज्वल है क्योंकि उनके मन्त्री बनने की संभावनाएं बरक़रार हैं. मन्त्री पर लक्ष्मी जी की कृपा न बरसे ऐसा हमारे देश में कभी नहीं हो सकता. परिवर्तन तो आना ही था चाहे किसी भी रूप में आये.
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4 टिप्‍पणियां:

  1. पैसे का रंग बड़ा ही मोहक होता है, सब भुला देता है..

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  2. रघु के रूप में एक कटु सामाजिक सत्य से साक्षातकार करने के लिए साधुवाद पैसा सभी की नियत बदल देता फिर ओ चाहे रघु हो या कोई और ..

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  3. समूची सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था तदर्थ वाद को समेटे है यह कहानी तत्व किस्सागोई लिए, आपकी पोस्ट .आज का सामाजिक राजनीतिक विद्रूप यही है .सुविधा भोगी होना ,सुविधा भोग का

    पोषण करते

    रहना यथा स्थिति बनाए रहना .मेहतर को मेहतर रहने दो माली को माली .दलित देवी भी यही कर रहीं हैं .हीरों से तौल करवातीं हैं अपनी जवाहरात खाती हैं ,डायमंड हगती हैं .

    .आभार

    आपकी महत्वपूर्ण टिप्पणियों का .

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  4. आभार

    आपकी महत्वपूर्ण टिप्पणियों का .

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