सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

हकीम परसादी खां

परसादी खां के दादा लड्डू खां कभी रामपुर रियासत  के खिदमतगारों में शामिल थे. उन्होंने वहीं हकीम हाशिम अली से जर्राही का काम सीख लिया और अधेड़ उम्र में आगरा के ताज इलाके में आकर रहने लगे. घर के बरामदे में बैठक कर ली. दो चार नुस्खे भी याद थे सो गरीब-गुरबा आकर मामूली सी फीस देकर चोट पटक पर पट्टी या फोड़ा-फुंसी पर पुलटिस बंधवा कर अपना ईलाज करवा लेते थे. लड्डू खां ने अपने साहबजादे बाबू खां को दिल्ली के नामी हकीम अजमल खां की खिदमत में यह कह कर भेजा कि “बेटा, उस्ताद से तालीम हासिल करके आओ. आगे ज़माना कीमियागिरी का आने वाला है.”

हकीम अजमल खां साहब का उस जमाने में बड़ा नाम था. उनके पास बीसियों आदमी तो दवाएँ कूटने पीसने का काम करते रहते थे. बाबू खां जितना देख सके सीखते रहे. पाँच साल बाद आगरा लौटे और कायदे से अपनी हिकमत की दुकान खोल ली.

दिल्ली में रहते हुए उन्होंने एक खास बात जो सीखी वह थी कि अपने फन का व्यापारिक प्रचार होना चाहिए. उन्होंने खानदानी दवाखाने वालों के पूरे कारोबारी रहस्यों के बारे में देखा-सुना भी था. अपने ‘हाशमी दवाखाने’ के प्रचार के लिए चार पेन्टरों को चार दिशाओं में खूब पैसा देकर दीवारों पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखने को भेज दिया. इसका व्यापक असर होना ही था. देखते ही देखते दवाखाने की जगह कम पड़ने लगी. उन्होंने बड़े मन से नई जमीन पर बड़ा सा दवाखाना बनवा लिया. अल्लाह के करम से हाथ में शफा था और खूब दौलत बरसने लगी. उनके पाँच बेटे थे जो छुटपन से ही अब्बा के काम में हाथ बँटाते बँटाते काम भी सीखते गए. बड़े बेटे परसादी खां को तिब्बी-यूनानी चिकित्सा पद्धति की पढ़ाई के लिए दक्षिण हैदराबाद भेज दिया, जो बाद में अब्बा के कारोबार के खास वारिस बन कर उभरे. उनके दो छोटे भाई तो अलग कारोबार करने के लिए आगरा से बाहर निकल गए. हकीम इस्माइल खां टूंडला में बस गए और हकीम जफर खां अपने ससुराल अमरोहा में जाकर कारोबार करने लगे.

यों दादा से पोतों तक आते आते परिवार के कुल सदस्यों की तादाद बढ़ते बढ़ते एक सौ के पार हो चुकी है. बड़े बुजुर्ग इंतकाल भी फरमाते रहे, पर परसादी खां १०५ की पकी उम्र में भी बिना लाठी के सहारे सीधे सीधे चल लेते थे. लम्बी सफ़ेद दाढ़ी, सफ़ेद ही पगड़ी, गोल मोटा चश्मा, और रौबीली आवाज उनकी अलग ही पहचान थी. हाँ, अब उनको सुनाए नहीं देता था क्योंकि कान जवाब दे गए थे.

अल्लाह के फजल से परसादी खान के बेटे, पोते, परपोते सब खुशहाल हो गए थे. भाइयों की औलादें भी बहुत आगे बढ़ गयी. खानदान के बच्चे अलीगढ़ युनिवर्सिटी से पढ़ाई करके बड़े सरकारी ओहदों में पहुँच गए हैं. सभी छोटे-बड़े, बड़े दादा का खूब अदब मी करते रहे हैं.

अब इस उम्र में हकीम साहब शारीरिक रूप से लगभग स्वस्थ होने के बावजूद मानसिक रूप से बीमार से हो गए थे. कारण दोनों बेगमें बरसों पहले गुजर गयी थी, दो बेटे भी एक एक करके हार्ट अटैक से जाते रहे, उन्होंने ईलाज का वक्त ही नहीं दिया. दुनिया को कभी केवल राख या चूल्हे की मिट्टी से शफा देने वाले भरोसेमंद हकीम साहब अपने अजीज बेटों को बचाने में बहुत लाचार रहे. अब अल्लाह के नाम के मनके फेरते रहते थे और दिन में कई बार कह उठाते थे, “या परवरदिगार, अब तो मुझे भी उठा ले,” पर अल्लाह को सुनने की फुर्सत कहाँ थी. परसादी खां पड़े पड़े बचपन से आज तक की तमाम घटनाओं को सिनेमा की चालू रील की तरह आँखें बन्द करके देखा करते थे. दादा-दादियों, बीबियों-बेटों, चाचा-चाचियों, भतीजों, व परिवार के जो लोग इंतकाल फरमाते गए सबको अपने हाथों मिट्टी देते रहे. उनके लिए फातिहा पढ़ते रहे. यह सोच कर कि यही इस संसार का दस्तूर है, गमगीन होते थे. उनसे कम उम्र के भाई-बंधु व उनके बच्चे भी एक एक करके चले गए. उनके खुद के चौदह बच्चों में से अब केवल पाँच ही ज़िंदा बचे हैं. अपने दोनों अजीज बेटों को याद करके उनकी गुफा सी बन गयी, आँखें डबडबा कर भर आती थी.

आज सुबह हकीम साहब ने अपने परपोते डॉक्टर अजीम को बुलाकर कहा, “गाड़ी में कब्रिस्तान तक घुमा कर ले आ बेटे, मुझे अपने अजीजों का आरामगाह देखने को मन हो रहा है.” डाक्टर अजीम ने अपनी होंडा सिटी निकाली, परदादा को धीरे धीरे हाथ थाम कर गाड़ी तक ले गया. वे आज बड़ी मुश्किल से गाड़ी तक चल पाए. पिछली सीट पर दादा को बिठा कर उसने गाड़ी शुरू की. सारे रास्ते बहुत भीड़भाड़ थी. जब वह कब्रिस्तान के गेट पर पहुँचा तो चौकीदार हॉर्न सुनकर भी नहीं पहुँचा तो डॉ. अजीम खुद बाहर निकला. गेट की तरफ बढ़ने से पहले उसने दादा को निहारा तो पाया वे निढाल पड़े हुए थे. उसने उन्हें हिलाया दुलाया पर वे तो निष्प्राण से लुढ़क गए. डॉ. अजीम उनको सीधे मेडिकल कॉलेज ले गया, जहाँ जाँच करने पर घोषित कर दिया गया कि हकीम साहब खुदा को प्यारे हो चुके हैं. इस तरह एक युग का अंत हो गया.
***

4 टिप्‍पणियां:

  1. मिलने की इच्छा बड़ी बलवती हो गयी, अजीजों से..

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  2. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 5/2/13 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है
    दो

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  3. किस्सा -कथा शैली में बेहतरीन संस्मरण .किस्से बयानी कोई पुरुषोत्तम पांडे जी से सीखे .शुक्रिया मेहरबान कद्रदान टिपियाने का ,हौसला दिलाने का .

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  4. क्या ये वही "हाशमी दवाखाना" वाले कि कहानी है, जिसका प्रचार हमें अलीगढ से दिल्ली तक के रेल रास्ते में मिलता है?

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