रविवार, 31 मार्च 2013

चुहुल - ४७

(१)
जय और वीरू पक्के दोस्त थे. एक दिन जब जय ने सुना कि वीरू दहाडें मार कर रो रहा है तो वह सारे काम छोड़ कर वीरू की कुशल लेने दौड़ पड़ा. वहां पहुँचा तो पाया सचमुच वीरू बुक्का फाड़ कर रो रहा था और हिचकियाँ ले रहा था.
जय: क्या हो गया? इतनी बुरी तरह क्यों रोये जा रहा है?
वीरू: यार मेरी मुर्गी मर गयी है.
जय: इसमें इस तरह रोने की क्या बात है? मैं तो अपने बाप मरे में भी इतना नहीं रोया था.
वीरू: पर तेरा बाप अंडे थोड़े दिया करता था.

(२)
एक आदमी ने अपने एक लीचड़ पड़ोसी से कहा, “काफी दिन हो गए हैं, अब तो मेरा छाता वापस कर दो.”
लीचड़ पड़ोसी बोला, “कौन सा छाता? जहाँ तक मुझे याद है, मैंने कभी आपसे छाता माँगा ही नहीं होगा. अगर माँगा भी होगा तो लौटा दिया होगा और अगर नहीं लौटाया होगा, तो अब लौटाऊंगा भी नहीं क्योंकि बारिश होने वाली है.”

(३)
तब एक पान की कीमत दो रूपये हो गयी थी, लेकिन बाबूलाल जी पुराने ग्राहक थे इसलिए एक रुपया ही दिया करते थे. पनवाड़ी ने कई बार कहा कि अब पान की कीमत बढ़ गयी है, पर वे अक्खड़ आदमी थे, उधार करते नहीं थे. पहले रुपया फैंकते थे फिर गिल्लोरी पकड़ते थे. शायद पनवाड़ी ने उनके पान में मसाले कम डालने शुरू कर दिये थे.
आज  जब वे पान की दूकान पर आये तो एक रुपया पनवाड़ी की तरफ उछालते हुए बोले, “भाई पान बढ़िया लगाना. लौंग-इलायची व मीठा मसाले के अलावा खुशबू के लिए कोने में जरा किमाम भी लगा देना.”
पान वाला मुस्कुराते हुए बोला, “आप कहें तो ये सिक्का भी इसी में डाल दूं.”

(४)
एक नवयुवक बड़ी हिम्मत करके बांकेलाल आढ़तिया के पास पहुँच कर संकोच के साथ बोला, “अँकल जी, मैं आपकी बेटी निम्मी से शादी करना चाहता हूँ.”
बांकेलाल जी की स्थिति यह थी कि उनके घर में बीवी का राज रहता था. उसकी पसन्द-नापसंद से ही सारे काम चलते थे. बांके लाल कुछ सोचकर बोले, ‘तुम निम्मी की माँ से मिले?”
युवक बोला, “नहीं अँकल जी, मुझे तो निम्मी ही पसन्द है. मैं उसकी माँ को पसन्द करके क्या करूँगा?”

(५)
एक आदमी का मकान चिड़ियाघर के नजदीक में ही था. अपनी झगड़ालू पत्नी से तंग आकर वह बाहर निकला और सीधे चिड़ियाघर में जाकर एक शेर के खाली पिंजरे में सुरक्षित महसूस करते हुए सो गया.
उसकी पत्नी जब उसको तलाशते हुए उस पिंजड़े के पास पहुँची तो उसे देख कर बोली, “कायर कहीं के, मेरे डर के मारे यहाँ शेर के पिंजड़े में छुपे हो, निकलो बाहर.”
***

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

दास्तान-ए-आनसिंह

मैं आनसिंह रौतेला, नेवी का रिटायर्ड ले.कमांडेंट, पुत्र स्व. दीवानसिंह रौतेला, बागेश्वर में दुग पट्टी के काफलखेत गाँव का मूल निवासी हूँ, पर अब मैं काठगोदाम में आकर बस गया हूँ. गाँव में बिना पानी वाली थोड़ी सी पुश्तैनी जमीन है, जिस पर अब बिरादरी वालों का कब्जा हो गया है. वैसे भी उस जमीन पर पूरी मेहनत के बावजूद परिवार के लिए साल भर का गुजारा मुश्किल से जुटाया जाता था. मुझे याद है मेरा बचपन बहुत गरीबी में गुजरा था. मैं ‘खातड़ा-संस्कृति’ से उठा हुआ आदमी हूँ. इस खातड़ा अर्थात् गुदड़ी संस्कृति को सब लोग ठीक से नहीं समझ पाते हैं इसलिए मैं बताना चाहता हूँ कि पहाड़ में दूर दराज इलाके में ऐसे अभावग्रस्त गरीब लोग हुआ करते थे अथवा आज भी हो सकते है जिनके घरों में रजाई, कम्बल, गद्दे नहीं होते थे. पुरानी कपड़ों को हाथ से सिल कर खातड़े बनाए जाते थे, उसमें फटी धोतिया, कुर्ते-पायजामे, यहाँ तक कि माँ या दादी के पुराने घाघरे भी समायोजित होते थे.

उन दिनों हमारे गाँव में बच्चों को पढ़ाना असामान्य बात थी. बच्चों को छुटपन से ही जानवर चराने के काम में लगा दिया जाता था, पर मेरे पिता ने मुझे दूर कांडा भेजकर हाईस्कूल तक पढ़ाया. पूरे इलाके में कांडा में ही एकमात्र हाईस्कूल हुआ करता था. हाईस्कूल करने के बाद मैं बागेश्वर जाकर उत्तरायणी मेले के अवसर पर ‘बॉय कम्पनी’ में भर्ती हो गया, तथा नेवी के लिए छाँट लिया गया. रंगरूटी करने के बाद मैं दक्षिण भारत के समुद्री तटों पर नियुक्ति पाता रहा. घर से इतनी दूर नौकरी पाना हम पहाड़ी लडाकों के लिए कोई नई बात नहीं थी. साल भर बाद एक महीने की छुट्टी पाकर गाँव लौटता था तो मुझे वहाँ का अभावपूर्ण जीवन भी सुखद लगता था, पर रोजगार के लिए बाहर जाना एक मजबूरी थी. पाँच साल बाद मेरी शादी नजदीकी गाँव चौरा से लछिमा देवी के साथ हो गयी. फैमिली क्वार्टर की सुविधा मिलते ही मैं उसे अपने साथ ले गया.

मेरा हेडक्वार्टर लम्बे समय तक गोवा में रहा. वहीं मेरे बेटे अमर तथा बेटी भागीरथी का जन्म हुआ. माता-पिता के स्वर्गवास होने के बाद पहाड़ की तरफ आना जाना धीरे धीरे कम होता गया. रिटायरमेंट के बाद तो वहाँ बसना बहुत दुरूह लग रहा था. इसलिए मैंने अपने लिए ‘गेटवे ऑफ पहाड़’ कहे जाने वाले शहर काठगोदाम में मकान लायक जमीन का प्लाट खरीद कर छोड़ दिया था, जिस पर अब एक तीन कमरों का सुन्दर सपनों का घर बनवाया. दोनों बच्चों को सेंट्रल स्कूल की पढ़ाई के बाद आगे की पढ़ाई के लिए केरल की राजधानी त्रिवेन्द्रम भेजा. दोनों ने आईटी में पोस्ट ग्रेजुएशन किया बेटे अमर को एक अन्तराष्ट्रीय आईटी कम्पनी में नौकरी मिल गई. वह वर्तमान में इंग्लैंड में रहता है. बेटे की शादी के लिए मुझे ज्यादा कसरत नहीं करनी पड़ी. मेरी अल्मोड़ा वाली साली ने अपनी भतीजी से उसका रिश्ता करवाकर मुझे बड़ी मदद दी. लेकिन बेटी भागीरथी के रिश्ते के लिए मुझे बहुत पापड़ बेलने पड़े, जो कि निरर्थक साबित हुए. मेरे जैसे जड़-जमीन से उखड़े हुए लोगों को या तो अपने जैसा ही कोई मिल जाए, या फिर ईश्वर की कृपा से ठीक लड़का मिल जाये, वरना रिश्ते तलाशना बहुत कठिन काम है, मेरा कटु अनुभव तो यही कहता है.

जाति-बिरादरी में दूर दूर तक ऐसा कोई लड़का नहीं मिला, जो भागीरथी के योग्य हो. दोस्तों-पड़ोसियों की सलाह पर अखबारों में शादी के विज्ञापन दिये. उनके जवाब तो बहुत आये - पचास से अधिक लोगों ने पत्राचार करके हमसे जानकारी मांगी, पर जब उनको बताया गया कि लड़की बंगलूरू में नौकरी करती है तो आगे बात नहीं बढ़ी. कुछ कुमाउनी/गढ़वाली लड़कों के माता-पिता ने रिश्ते में रूचि दिखाई थी पर जब बात आगे बढ़ती तो अनेक प्रश्नचिन्ह सामने आ जाते थे. इसमें उनके ज्योतिषियों व पुरोहितों का रोल अहम होता था. एक पण्डित जी ने गणना करके बताया कि ‘लड़की  की कुंडली नकली बनाई गयी है'. जन्मलग्न चिन्ह के अनुसार लड़की को साँवली- अनपढ़ होना चाहिये था.’ दूसरी जगह से जवाब आया कि लड़का-लड़की के चिन्हों में नाड़ीभेद खडकास्ट् है’, तीसरी जगह से बताया गया कि ‘लड़की की लम्बाई बहुत कम है. हमारा लड़का तो छ: फुट लम्बा है’. चौथी जगह से प्रत्युत्तर मिला, ‘लड़की के ग्रह लड़के से ज्यादा शक्तिशाली हैं इसलिए मेल नहीं खाते हैं’. पांचवी जगह से बताया गया कि ‘लड़की के ग्रह सास-ससुर को टोकने (मारने) वाले है’ एक विद्वान पण्डित ने तो यहाँ तक कह दिया कि इसकी कुंडली में शादी का योग है ही नहीं'. ऐसे अनेक हृदयविदारक सन्देश मिलते रहे, जिससे मैं और मेरी धर्मपत्नी बहुत दु:खी और चिंतित हो गए.

पिछली गर्मियों में जब भागीरथी एक महीने की अपनी छुट्टी लेकर घर आई तो सारी व्यथा-कथा से परिचित हो गई. किसी समझदार लड़की के लिए इससे बड़ी दुखदाई बात क्या हो सकती है कि सब तरह से योग्य व चरित्रवान होने के बावजूद घटिया किस्म के लड़के अथवा उनके परिवार वाले उसे किसी न किसी बहाने नापसंद करते रहें.

मेरी बेटी मगर बहुत समझदार है. उसने अपनी माँ व मेरे दिल के दर्द को महसूस किया और सामान्य होकर खुशी खुशी बोली, “आप लोग मेरे शादी की चिंता करना बिलकुल छोड़ दें. अगर मुझे कोई अपने लायक सही लड़का मिल गया तो मैं खुद आपको सूचित करूंगी आपको भरोसा देती हूँ की मेरे निर्णय से आपकी इज्जत पर कोई आंच नहीं आयेगी.”

सचमुच हुआ भी ऐसा ही, पिछले महीने उसने हम दोनों को बंगलूरू बुलाया हमसे भी पहले हमारा बेटा अमर तथा बहू वहाँ पहुंचे हुए थे. वहीं जाकर हमको पता चला कि श्रीराम शर्मा नाम के एक सहकर्मी के साथ भागीरथी ने अपनी शादी का रिश्ता पक्का कर रखा था. मैं अपने कुछ नजदीकी मित्रों/दोस्तों को विवाहोत्सव में बंगलूरू बुलाना चाहता था पर समय बहुत कम था. वैदिक रीति फेरे पड़वा कर हम बिटिया का विधिवत कन्यादान करके एक बहुत बड़े बोझ से हल्के हो गए. दामाद श्रीराम शर्मा के माता-पिता, भाई बन्धु और नजदीकी रिश्तेदार इस विवाहोत्सव में मौजूद थे. यह परिवार चेन्नई में निवास करता है, पर मूल रूप से राजस्थान के मारवाड़ इलाके के हैं. पिछली दो पीढ़ियों से चेन्नई में कपड़े का कारोबार कर रहे हैं. परिवार में नौकरी करने वाला पहला व्यक्ति मेरा दामाद ही है. इस परिवार से रिश्ता जुड़ने पर अनेक सुखद अनुभव हो रहे हैं.

बेटी-दामाद दोनों खुश हैं एक ही कम्पनी में जूनियर एक्जेक्यूटिव के पदों पर हैं. हम दोनों पति-पत्नी इस संयोग से अभिभूत हैं. काठगोदाम लौट आये हैं. अब अप्रेल महीने में समधी जी को सपरिवार यहाँ आने का निमंत्रण दे आये हैं, यहाँ सभी स्वजनों को आमन्त्रित करके अपनी खुशी में शामिल करना है. दिल से ईश्वर का धन्यवाद करता हूँ कि वह जो भी करता है, हमारे भले के लिए करता है.
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बुधवार, 27 मार्च 2013

आज होली में

चलो खेलें, नया खेल आज होली में
बदल डालें सारे बेमेल आज होली में.

बन्द कर दो ये समाचार-मीडिया जो दिल तोड़ते हैं
हड़ताल- हुल्लड़, अनशन, या जो माइक बोलते हैं
मुँह पर चिपका दो टेप उनके जो जहर घोलते हैं.
कह दो खुले में ना करो बकवास आज होली में.

             चलो खेलें, नया खेल आज होली में.
             बदल डालें सारे बेमेल आज होली में.

कलमकारों तुम कलम में विष-बीज मत डालो
लिखो कुछ ऐसा तुम समय की धार बदल डालो
रंगों-गुलालों में मुहब्बत हो, मन चाहे लगा डालो
दिलों का भेद मिट जाये, यही तमन्ना आज होली में

             चलो खेलें, नया खेल आज होली में
             बदल डालें सारे बेमेल आज होली में

सर्वे भवन्तु सुखिन: यह बात दिल में समाती है
सुख-समृद्धि रहे सर्वत्र, सभी को जो सुहाती है
भरे पिचकारी, उडेले प्यार, उसी में नहाती है
अनुपम है ये शक्तिरूपा अपनी, आज होली में.

             चलो खेलें, नया खेल आज होली में
             बदल डालें सारे बेमेल आज होली में.

न मंदिर, न मस्जिद, न कुर्सी का लफड़ा
न मोदी, न नीतिश, या राहुल का झगड़ा
छोड़ सभी मनभेद, नाचो-गाओ करो भंगडा
बच्चों को दे दो देश की कमान आज होली में.

        चलो खेले, नया खेल आज होली में
        बदल डालें सारे बेमेल आज होली में.
                              ***

सोमवार, 25 मार्च 2013

ठलुआ पंचायत ३

आज की बैठक केन्द्र सरकार द्वारा निकट भविष्य में प्रस्तुत किये जाने वाले ‘खाद्य सुरक्षा बिल’ पर विचार करने के लिए आहूत की गयी थी. उपस्थिति २२ रही.

न. १- आप लोग सभी प्रबुद्ध वरिष्ठ नागरिक हैं, अनुभवी हैं और मीडिया द्वारा प्रचारित ‘ खाद्य सुरक्षा बिल के बाबत अवश्य जानकारी रखते होंगे. मैं चाहता हूँ कि इस ऐतिहासिक बिल पर आप अपने विचार बताएँ.

न. ६- ये केवल एक राजनैतिक शगूफा है. चुनाव आने वाले हैं इसलिए सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने का तरीका लगता है.

न. ४- लेकिन जो आप समझ रहे हैं, ये पूर्ण सत्य नहीं है. सरकार के पास इस वक्त भंडारण क्षमता से ढाई गुना ज्यादा अनाज है. अगर उसे निकाला नहीं गया तो अगले फसल पर खरीद भी नहीं हो पायेगी.

न. ८- इसमें वर्तमान सत्ता के विरोधी लोगों को स्वभावत: पाप नजर आ रहा होगा, पर ऐसा ठीक नहीं है. देश की गरीब जनता को इस बिल के माध्यम से भोजन की गारंटी दी जा रही है. हर महीने बहुत सस्ते दर पर अनाज दिया जाने वाला है, इसमें कहाँ गलती है?

न. ५- ये बात आज ही सरकार को क्यों याद आ रही है, अब तक भी लोग भूखों मर रहे थे, किसान कर्ज व अभावों के कारण आत्महत्या करने को मजबूर होते रहे हैं?

न. ८- अगर आपकी याददाश्त कमजोर नहीं है तो आपको याद होगा कि २००९ के आम चुनावों में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी ने इस बारे मे स्पष्ट अपने घोषणापत्र में वायदा किया था. आपको कहना चाहिए ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’. मेरे ख्याल से इसमें कोई खोट नहीं है. अब रह गयी वोटों की बात, सो लोकतंत्र वोटों से ही चलता है.

न. ११- इस बाबत अभी बहुत शंकाएं हैं. आपकी वितरण मशीनरी व प्रणाली ठीक से बनी नहीं है. इसमें फिर से भ्रष्टाचार होगा. जिन लोगों को वास्तव में लाभ मिलना चाहिए उनको मुश्किल से मिलेगा.

न. ९- मैं भी यही समझता हूँ कि यह कदम एक स्टंट साबित होगा, अगर सस्ता अनाज बांटा भी गया तो आप पायेंगे कि वह अच्छी हालत में नहीं होगा.

न. ६- ऐसी बात तो नहीं है आप हर बात में खोट क्यों देख रहे हैं? अगर प्रणाली में कहीं भ्रष्टाचार होगा तो सरकार के शीर्ष पर बैठे लोगों को ही क्यों कोसते हो, उनकी नियत में कहाँ खोट है? दरअसल हमारे देश में सरकारी व गैर सरकारी तंत्रों में अन्दर तक बेईमानी घुसी हुई है, अन्यथा इस बिल का उद्देश्य बहुत बढ़िया और दूरगामी है.

न. ५- मुझे तो इस बिल में वोटों की खुली राजनीति नजर आती है. ये सरकार भ्रष्टाचार और काले धन पर कोई नियंत्रण तो कर नहीं पा रही है. इस बार देखना स्वामी रामदेव झंडा उठाने वाले हैं, इस सरकार को जीतने नहीं देंगे.

न. ८- लगा लेना तुममें जितना जोर हो. रामदेव की खुद की छलनी में कई छेद हैं. देश में कॉग्रेस का अभी भी सब तरफ असर है, जहाँ तक भ्रष्टाचार की बात है, कौन सी पार्टी के लोग दूध के धुले हैं ज़रा बताइये?

न. १- विषय से भटकिए मत, ये सोचिये कि जब बहुतायत में अनाज वितरण नियमित होता रहेगा तो आगे आने वाले समय में जब कभी उत्पादन में कमी आ गयी और भण्डार खाली हो जायेंगे तक भी क्या ये गारंटी काम करेगी?

न. ३- अगर आज भारतीय जनता पार्टी की सरकार होती तो आप लोगों को इस बारे में इतनी बातें करने की जरूरत ही नहीं होती. अटल जी के जमाने में शक्कर के भाव १५ रुपयों से ऊपर नहीं गए, खाद्यान्न के बारे में कोई हो-हल्ला नहीं हुआ.

न. १०- ये बात तो आपकी गलत है, भ्रष्टाचार तो तब भी बहुत था, पर उजागर नहीं हो रहा था. जॉर्ज फर्नान्डीस जब रक्षा मन्त्री  थे तो ताबूत काण्ड और सैनिक साजो सामान में कमीशनखोरी की बात जग जाहिर हुई थी.
बंगारू का स्टिंग तो आपको अवश्य याद होना चाहिए. ये अटल जी के जमाने की ही बातें हैं, माफ करना.

न.१५(शेरसिंह ड्राईवर)- महंगाई ने तो कमर तोड़ रखी है, ये क्यों नजर नहीं आ रहा है, आप लोगों को?

न. ८- महंगाई के कई कारण हैं, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय हालात और अंदरूनी व्यवस्था व जनसंख्या का बढ़ता दबाव आदि हैं. अब से पचास साल पहले ढाई रूपये किलो देशी घी तथा एक रूपये का दो किलो दूध मिला करता था. उससे अब तुलना करना बेकार सी बात है. महंगाई तो इसी तरह बढ़ती ही रहती है, चाहे कोई भी सरकार सत्ता में आये.

न. १- जहाँ तक अंतर्राष्ट्रीय बात आपने कही है, कई देशों में उपभोक्ता सामग्री के दाम कई वर्षों से स्थिर रखे गए हैं सरकार की इसमें कड़ी निगरानी रहती है. यहाँ हमारे देश में तो राम-राज है, डीजल-पेट्रोल के भाव बाद में बढ़ाते हैं पर जिंसों के भाव व उनकी ढुलाई पहले ही बढ़ जाती है. मुख्य मुद्दे की बात, ये बताइये कि आप इस ‘खाद्य सुरक्षा बिल’ को जायज मानते हैं या नहीं?

न. ४- नाजायज तो नहीं कहा जा सकता है. यदि इसकी सही मायनों में क्रियान्वित किया जाएगा और निगरानी, मशीनरी, ईमानदारी से काम करेगी तो यह एक क्रांतिकारी कदम होगा.

न. १- आज की बैठक अब यहीं समाप्त की जाती है.
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शनिवार, 23 मार्च 2013

मोर


मोर हमारा राष्ट्रीय पक्षी है. २६ जनवरी १९६३ को इसे राष्ट्रीय पक्षी की रूप में घोषित किया गया था. भारत के अलावा श्रीलंका और म्यांमार का भी राष्ट्रीय पक्षी मोर ही है. मोर दक्षिण पूर्वी एशिया में सभी गर्म स्थानों पर पाया जाता है. मोर के पँख बहुत सुन्दर इन्द्रधनुषी रंगों में आकर्षक लगते हैं. हमारे देश में मुख्यत: नीले गर्दन व नीली आभा वाले पंखों वाले मोर पाए जाते हैं. जावा-सुमात्रा में हरे रंगों के मोर भी पाए जाते हैं. रंग विविधता में जामुनी रंग के तथा श्वेत मोर भी कहीं कहीं पाए जाते हैं.

मोर एक जंगली पक्षी है, इसकी सुंदरता के कारण एवं सर पर रंगीन कलगी होने से इसे पक्षियों का राजा भी कहा जाता है. मोर थोड़ी ऊंचाई तक आसानी से उड़ता भी है. गाँवों व छोटे कस्बों-शहरों में निकट के जंगलों से आकर भोजन की तलाश में बस्तियों में आ जाते हैं.

हिन्दू धर्मावलंबी इसका धार्मिक सम्बन्ध भी जोड़ते हैं. मोर भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय की सवारी मानी जाती है. कृष्ण भगवान के मुकुट पर मोरपंख हमेशा विद्यमान रहता था. वास्तुशास्त्र में मोरपंख की बड़ी मान्यता है. इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि चंद्रगुप्त मौर्य का राजकीय सिंहासन मोर की आकृति का व रंगीन था. इसी प्रकार मुग़ल बादशाह शाहजहां का तख्तोताऊस हीरे-मोतियों से जड़ा हुआ मोर की आकृति में था. मध्यप्रदेश और राजस्थान के राजमहलों में भित्तिचित्रों में मोर के सुन्दर रंगीन चित्र होते थे, जो आज भी विद्यमान हैं. अभी भी गाँव-घरों में, यहाँ तक कि कच्चे मकानों में भी शुभ अवसरों पर मोर के रंगीन चित्र बाहरी दीवारों पर बनाए जाते हैं.

मोरनी का रंग मटमैला-भूरा होता है, उसको प्रकृति ने मोर के मुकाबले आकर्षक रंग प्रदान नहीं किये हैं. मोर साल में एक बार वर्षा ऋतु  में अपने पुराने पँख गिरा देते हैं. नए पँख उगते रहते हैं. स्थानीय निवासी गिरे हुए पंखों को इकट्ठा करके अनेक तरह के सजावटी सामान बनाते हैं. जिनमें मुकुट व हाथ के पंखे आम तौर पर मिल जाते हैं. मोर को मारना पाप समझा जाता है.

तांत्रिक /ओझा लोग भूतबाधा व पूजन में मोरपंखों का इस्तेमाल किया करते हैं. आयुर्वेद में मोरपंख का औषधीय उपयोग बताया गया है कि ‘मोरपंख भस्म’ को शहद के साथ चाटने से दुर्दांत हिचकी रोग शांत हो जाता है.

एक मसखरा व्यक्ति बच्चों को मोर पकड़ने की तरकीब बता रहा था, “रात में चुपके से देख लो कि मोर कहाँ सोता है. सुबह उसके जगने से पहले जल्दी अँधेरे में ही जाकर उसकी कलगी में एक मक्खन की टिकिया फिट कर आओ. बाद में जब सूरज निकलेगा तो मक्खन पिघल कर उसकी आँखों में आ जायेगा, जिससे वह कुछ समय के लिए अन्धा हो जाएगा. बस तुम आराम से जाकर उसे पकड़ कर घर ले आना.”

बच्चों से ही मोर के बारे में एक मजेदार सवाल मैं अक्सर पूछता हूँ कि मोर अपना अंडा घोंसले में देता है या जमीन पर देता है?

बच्चे बोलते हैं, "जरूर घोंसले में ही देगा..."

पर हा हा हा... मोर अंडे नहीं देता है. अंडे तो मोरनी देती है.

(चित्र: विकीमीडिया कॉमन्स) 
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गुरुवार, 21 मार्च 2013

मानवाधिकार?

मूल रूप से मनुष्य भी एक जानवर ही है. असभ्यता के दौर में वे सारी विषमताएं रही होंगी जो आज भी हम जंगली जानवरों में देखते हैं. समाज के गठन के बाद एक दूसरे के प्रति किये गए अन्याय के प्रतिकार के लिए सामाजिक कायदे मानवाधिकार की आदि सोच रही है, लेकिन यह सत्य है कि ताकतवर इन्सान अपने से कमजोरों पर हमेशा ही अन्याय करता आ रहा है. यह क्रम आज भी जारी है, चाहे वह शोषण के रूप में हो अथवा राज्य सत्ता की लड़ाई के तौर पर हो रही हो.

प्रबुद्ध लोगों ने इस प्रकार के अन्याय/असमानता के बारे में हमेशा ही सोचा होगा. इतिहास बताता है कि सभी धर्मों के प्रवर्तकों ने अपने उपदेशों मे सदा इस बात पर जोर दिया है. राजाओं/ उपनिवेशों पर काबिज विदेशियों / सैनिक तानाशाहों द्वारा एकतंत्री व्यवस्थाओं में मानवाधिकारों को कोई महत्त्व नहीं दिया.

यूरोप में मानवाधिकारों का सर्वप्रथम दस्तावेज The Twelve Articles Of Black Forest (1525) को माना जाता है. जर्मनी में peasants war (किसानों का विद्रोह) के बाद स्वाबियन संघ के समक्ष उठाई गयी माँग मानवाधिकार की माँग जैसी ही थी. इंग्लैण्ड में भी दमनकारी कार्यकलापों को अवैध करने के लिए ‘ब्रिटिश बिल आफ राइट्स’ सिलसिलेवार लाये गए. १७७६ में संयुक्त राज्य अमेरिका में और १७८९ में फ्रांस में प्रमुख क्रांतियां घटित हुई और मानवाधिकार हनन के मामले सबके सामने आये. जब दमन हुए तो नियम बनाए गए पर वे सब विवादास्पद रहे क्योंकि नियम क़ानून सत्ता में बैठे लोगों ने अपनी सुविधानुसार बनाए थे.

पिछली सदी में विश्व भर में राजनैतिक नवचेतना हुई और स्थानीय, राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी / गैर सरकारी संगठन अपने अपने दृष्टिकोण से इस विषय पर नियम क़ानून बनाते रहे, जिनमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता व सामाजिक बराबरी के अधिकारों का प्रावधान किया गया. १९४५ में यूनाइटेड नेशन्स चार्टर में इनका स्पष्ट उल्लेख किया गया. इसी आधार पर १९४८ में ‘यूनिवर्सल डिक्लेरेशन’ का नाम देकर सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व वैचारिक स्वतन्त्रता के रूप में प्रकाशित किया गया. हमारे देश के संविधान में ही इन मौलिक अधिकारों की गारंटी दी गयी है. यहाँ तक कि इनका उल्लंघन करने वालों को सजा का प्रावधान किया गया है.

जब राष्ट्रीय अखण्डता व संप्रुभता की बात आती है तो कोई भी देश अपने अलगाववादियों / विद्रोहियों को दबाने-कुचलने के लिए सारे हथियार इस्तेमाल करता है. इस सन्दर्भ में सारी दुनिया का इतिहास ज्यादतियों से भरा पड़ा है, इसको विस्तार से लिखा जाये तो महाभारत से भी बड़ा ग्रन्थ बन जाएगा.

संयुक्त राज्य अमेरिका, जो अपनी शक्ति व वैभव के बल पर सारी दुनिया में थानेदारी करता है, बहुत से मानवाधिकार उल्लंघन के काले पन्ने उसके नाम हैं. मानवाधिकारों का सबसे बड़ा पैरोकार आज वही बना है. चीन ने तिब्बत में राजनैतिक व सामाजिक दमन किया हुआ है, यह एक ज्वलंत परिदृश्य है. अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत द्वारा काश्मीर के अन्दर की गयी आतंकवादियों तथा अलगाववादियों के विरुद्ध की जाने वाली कार्यवाही को बहुत जोरशोर से सामने लाया जाता है, पाकिस्तान में बलूचिस्तान, अफगानिस्तान में तालिबानों के जुल्मों की दास्तान रोज अखबारों की सुर्ख़ियों में रहती हैं.

श्रीलंका में अलगाववादी तमिलईलम वालों ने पिछले कई वर्षों से गृहयुद्ध की स्थिति बनाई हुई थी. उनका दुस्साहस ही था कि हमारे एक प्रिय नेता राजीव गाँधी को असमय हमसे छीन लिया. नि:संदेह श्रीलंका की वर्तमान राजपक्षे सरकार ने उनका दमन किया है, पर कोई यह बताए कि देश की अखण्डता को बचाए रखने के लिए दूसरा रास्ता क्या था?

संयुक्त राज्य अमेरिका मानवाधिकार हनन के लिए संयुक्त राष्ट्र में श्रीलंका के विरुद्ध प्रस्ताव लाने वाला है. अमेरिका ने लेटिन अमरीकी देशों में ही नहीं, विदेशी भूमि पर वियतनाम से लेकर इराक-अफगानिस्तान तक में जो कार्यवाहियां की हैं उसे अभी लोग भूले नहीं हैं. ऐसे में हमारे तमिलनाडू के सत्ताच्युत  नेता एम. करूणानिधि का राजनैतिक चरित्र देशघाती है क्योंकि भारत के दक्षिण में प्रमुख देश श्रीलंका की अंतर्राष्ट्रीय उपस्थिति हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है. राजनैतिक पण्डित जानते हैं कि हमारा खतरनाक अमित्र देश चीन की गिद्धदृष्टि हिंद महासागर के इस क्षेत्र पर रही है. भारत के पैर उखाड़ते ही वह वहाँ पूरी तरह कब्जा जमा लेगा. वैसे भी यह उसका प्रभाव क्षेत्र बनता जा रहा है, मालदीव की हाल की राजनैतिक उठापटक इस बात की गवाह रही हैं.

इस लेख का अर्थ यह नहीं है कि हमें श्रीलंका की सैनिक कार्यवाही में जो तमिलों के मानवाधिकारों का हनन हुआ तथा मासूमों के साथ अत्याचार हुए, उनका समर्थन करना चाहिए, लेकिन हमारे अपने राष्ट्र हित की मजबूरियाँ हैं इसलिए करूणानिधि का केन्द्र से रिश्ते तोड़ने का कोई मलाल नहीं होना चाहिए. द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम ने तमिलनाडू में जनसमर्थन खोने के बावजूद केन्द्र की सत्ता का पूरे चार साल तक आनन्द लिया. कई मौकों पर ब्लैकमेल भी किया. टू जी स्पैक्ट्रम में उसके प्रतिनिधियों के लिप्त होने से पूरी सरकार को बदनामी मिली. यह पार्टी सिर्फ अपने स्वार्थों के लिए केन्द्र के साथ रही. इसके दूसरे साथी अन्ना डी.एम.के. ने इसकी इसकी गर्दन पर फूट का फंदा नहीं डाला होता तो ये खुद भी ‘स्वयंभू’ बन कर अलगाव की बातें करते रहते.
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बुधवार, 20 मार्च 2013

दादू की सगाई

कुसुमखेडा के आनन्द विहार कॉलोनी में आनंद सिंह नेगी के बंगले में बड़ी चहल पहल है. इस कॉलोनी में पहला घर आनंदसिंह नेगी बी.डी.ओ.(ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिसर) का बना था इसलिए उन्हीं के नाम पर इसका नामकरण आनन्द विहार हो गया. यह घर बनने के बाद से एकाकी निवास जैसा ही रहा क्योंकि नेगी जी के तीनों बच्चे बाहर व्यवस्थित हैं. बड़ा बेटा गजेन्द्र सिंह एक आई.टी. कम्पनी में मुलाजिम होकर संयुक्त राज्य अमेरिका के टैक्सस में अपनी पत्नी विमला और आठ साल के बेटे मोंटी के साथ रहता है. दूसरा बेटा वीरेन्द्र सिंह भारत सरकार की विदेश सेवा में कार्यरत है. वह वर्तमान में मॉस्को में रहता है. उसने वहीं एक रशियन लड़की से प्रेमविवाह कर लिया है. आनंद सिंह नेगी की एक बेटी भी है, जो उड़ीसा के उत्कल विश्वविद्यालय में फिजिक्स की प्रोफ़ेसर है. उसके पति रेलवे में एक बड़े पद पर कार्यरत हैं. सार यह है कि तीनों बच्चों के परिवार उनसे दूर हैं, लेकिन संचार क्रान्ति के इस युग में दुनिया बहुत छोटी हो गयी है. नेगी जी अपने बच्चों से लगभग रोज ही बात किया करते हैं. ज्यादा याद आने पर कंप्यूटर द्वारा ‘स्काइप’ के माध्यम से उनकी शक्ल देखते हुए बातें करके अपना एकांत दूर करते रहते हैं.

आनंद सिंह नेगी ने अपने कैरियर की शुरुआत एक ग्राम सेवक (वी.एल.डब्लू.) के बतौर की थी और कुमायूँ के कई ब्लॉक्स में सेवारत रहे. नेगी जी का पुश्तैनी घर शीतला खेत में है, जहाँ आज भी उनके चाचा-ताऊ के बेटे-पोते रहते हैं और खेती-बाड़ी करते हैं. गाँव की दृष्टि से उनका परिवार संपन्न परिवारों में से एक था. उनकी दादा और फिर उनके बाद उनके ताऊ गाँव के मालगुजार हुआ करते थे.

नौकरी लगते ही बाईस साल की उम्र में आनंद सिंह की शादी खीमा देवी से हो गयी थी और दस वर्षों के अंतराल में वह तीन बच्चों की माँ भी बन गयी थी. जब १९७५ के बाद देश में आपद्काल का दौर चला तो सरकारी कर्मचारियों पर परिवार नियोजन का दबाव बहुत बुरी तरह बनाया गया था. जिनके घर में दो या तीन बच्चे थे, उनको नसबंदी कराने के लिए हैरान किया गया. आनंद सिंह जब अपनी नसबंदी के लिए उद्यत हो रहे तो खीमा देवी ने उनको मना करते हुए खुद अपना आपरेशन कराने का मन बना लिया. कहते हैं कि ‘जैसी हो होतव्यता वैसी आवे बुद्धि’.  होनहार यह हुई कि डॉक्टरों की लापरवाही से खीमा देवी की कोई रक्त नलिका भी कट गयी. रक्तश्राव रुका ही नहीं. बहुत परेशानी हुई और अंत में उसे बचाया नहीं जा सका. ये एक बड़ी दुखद त्रासदी थी. तब तीनों बच्चे नादान थे. और नेगी जी की उम्र महज बत्तीस वर्ष थी.

यह दुर्घटना, सरकारी मातमपुर्सी व इन्क्वायरी में भटकती रही, पर नेगी जी का हँसता-खेलता परिवार गहरे सदमे में आ गया. तब आनंद सिंह के माता-पिता व दादा-दादी मौजूद थे. सभी ने उनको संबल दिया व ढाढस बढ़ाया. बच्चों के प्रति सभी का अतिरिक्त प्यार-दुलार छलकता रहा. थोड़े समय बाद परिवार के बुजुर्गों ने आनंद सिंह पर पुनर्विवाह का दबाव बनाया. अनेक तरह से समझाया, लेकिन आनंदसिंह ने किसी की बात नहीं मानी. उसका सोचना था कि दूसरा विवाह का मतलब बच्चों के साथ अन्याय होगा. इस प्रकार अल्पायु से विधुर जीवन जीते रहे. उन्होंने कोशिश करके अपना स्थान्तरण नैनीताल जिले के भीमताल ब्लॉक में करवा लिया. यहीं बच्चों को सयाना किया. बड़े बेटे व बेटी की शादियाँ यहीं के सामाजिक रीति-रीवाज से की. छोटे बेटे ने जब प्रेम विवाह किया तो उनको उसमें कोई बुराई नजर नहीं आई और अपनी सहमति दे दी

सं २००४ में साठ साल की उम्र होने पर उनको सेवामुक्ति मिल गई. सेवा काल के अन्तिम वर्षों में उन्होंने हल्द्वानी के आउटस्कर्ट कुसुमखेडा क्षेत्र में दो बीघा जमीन खरीद कर घर बनवा लिया था. घर का काम करने के लिए एक पहाड़ी लड़का, पिछले ५-६ सालों से, सेवक के रूप में उन्होंने रखा हुआ है.

अपने साहित्यिक शौक पूरा करने के लिए तथा समय साधना के लिए अपने कम्प्युटर को आना साथी बनाया हुआ है. घंटों उस पर दूसरे लेखकों की रचनाओं/ब्लॉगों को पढ़ कर या अपनी खुद की वेबसाईट पर अपने अनुभवों को लिखते हुए संतुष्टि अनुभव करते रहे हैं. नेगी जी ने अपना फेसबुक अकाउंट भी खोला हुआ है, जिसमें उनको अपने अनेक पुराने परिचितों तथा रिश्तेदारों से संपर्क करने का अच्छा अवसर मिल गया. इसमें वे नित्य नई नई बातें पढ़ते हुए व्यस्त रहते हैं. गत वर्ष उनकी फ्रेन्ड लिस्ट में एक हमउम्र महिला प्रेमा बिष्ट के नाम की दस्तक हुयी. वह एक अविवाहित, रिटायर्ड अध्यापिका है. लखनऊ में रहती है. मूल रूप से वह भी अल्मोड़ा की रहने वाली है.

फेसबुकीय मित्रता धीरे धीरे व्यक्तिगत मित्रता में बदलती रही. नित्य चैटिंग होने लगी. उम्र के इस पड़ाव पर किसी महिला से इस तरह लगाव हो जाएगा, ये उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था. एक दिन यों ही उन्होंने हेमा की जाँच करने के लिए लिख दिया “क्या तुम मुझसे शादी करोगी?” इसका उत्तर "हाँ” होते ही उनकी वीरान प्यार की दुनिया में मानो हजारों खुशबूदार फूल खिल उठे. नेगी जी ने संकोच के साथ यथास्थिति तीनों बच्चों को बताई तो उनको सब की तरफ से ये सुखद प्रत्युत्तर मिला, "हाँ पापा, यह बहुत पहले हो जाना चाहिए था. हम खुश हैं आप जल्दी सगाई की तारीख निकालिए हम लोग घर आने को उतावले हैं.”

ये सब गतिविधियां इतनी जल्दी हुई कि सुनने वाले विश्वास नहीं कर पा रहे हैं. उधर प्रेमा जी कल सुबह की ट्रेन से हल्द्वानी पहुँचने वाली हैं. नेगी जी के तीनों बच्चे सपरिवार पहले ही घर पहुँच चुके हैं. उनका पोता मोंटी सब को बता रहा है कि "कल दादू की सगाई है."
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सोमवार, 18 मार्च 2013

यथार्थ

कई बार आदमी जैसा सोचता है, वैसा हो नहीं पाता है. ये कहानी हरसहाय भाटिया और उनकी अर्धांगिनी सुनयना भाटिया की है, जिन्होंने जीवन की दौड़ जीरो से शुरु की थी और आज सात जीरो पर पहुँच गए हैं. उनके पास रेवाड़ी में एक बड़ा दुमंजिला घर है, बडी पेंशन है, बैंक खातों में बहुत रूपये है, गाड़ी है, तीन बेटे हैं. उनकी उम्र अस्सी पार होने वाली है. अपने घर के दुमंजिले पर बाल्कनी में पति-पत्नी धूप सेक रहे हैं. ऐसे बैठे हैं जैसे वे जिंदगी की जंग हार गए हैं. उनके पास सब कुछ होते हुए भी ऐसा लगता है कि कुछ भी नहीं है. घर में चारों तरफ उदासी का साम्राज्य है. पति पत्नी दोनों के चेहरों पर जैसे हंसी-खुशी गायब हो गयी है. आपस में  दवाओं पर या खाने के बारे में सांकेतिक वार्तालाप के अलावा कुछ और नहीं होता है.

बीस-बाईस साल पहले रेवाड़ी का ये इलाका बिलकुल बियावान सा था. रात-बेरात आते जाते डर लगता था, पर जमीन सस्ती थी तथा शहर के इस तरफ बढ़ने की सम्भावानें थी. दो हजार गज के बड़े प्लाट पर आर्किटेक्ट के सलाह अनुसार बढ़िया दुमंजिला घर बनवाया. तब उनके दो बेटे इंजीनियरिंग करके फरीदाबाद के कारखानों में काम करने लग गए थे, और तीसरा कॉलेज में पढ़ ही रहा था. हरसहाय भाटिया ने परिवार की अगले पचास वर्षों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए तीनों के लिए दो-दो बेडरूम वाले बड़े बड़े सेट बनवाए. अपने लिए एक बड़ा कमरा तथा साथ में गेस्ट रूम व सर्वेंट रूम की व्यवस्था रखी. लडकों ने अपनी पसंद के अनुसार पूरे घर में बढ़िया वुडवर्क करवाया. सभी कमरों में सागवान का आधुनिकतम फर्नीचर डलवाया. घर के आगे पीछे जो जगह बची थी उसमें नियमित माली लगा कर लॉन व गमले सजाये गए. इस सपनों के घर मे वे रिटायरमेंट से पहले ही आ गए थे.

अच्छा समय तेजी से गुजर जाता है. बड़ा बेटा शिव शादी के कुछ सालों के बाद अपने बीवी-बच्चों के साथ आस्ट्रेलिया चला गया.

दूसरा बेटा इंद्र भी अपनी सुयोग्य पत्नी के साथ इंग्लेंड में जाकर रहने लगा. तीसरे बेटे जय ने बी.काम. करने के बाद एक फर्म में नौकरी पा ली थी और अपने साथ काम करने वाली एक पूर्वोत्तर की रहने वाली ईसाई लड़की से गन्धर्व विवाह कर लिया. यहाँ तक सब ठीक चल रहा था, तीनों बेटों की पत्नियों ने समयांतर पर दो दो बच्चों को जन्म दिया, वंश बेल बढ़ रही थी. सुख, सौभाग्य और खुशियों का सूचक था.

दादा-दादी का बड़ा सुख होता है कि पोते-पोती गोद में खेलें, चिरोरी करें और अपने सामने बढ़ते हुए देखें. शिव व इंद्र के बच्चे सात समुन्दर पार थे, कभी दो-तीन सालों में भारत आते हैं तो उनका समय और लोगों से मिलने मिलाने में, घूमने में, और खरीददारी में बीत जाता है. जय ने अपने दोनों बेटों को अच्छी शिक्षा के लिए प्राइमरी से ही बोर्डिंग स्कूल में दूर जयपुर में रख दिया. कारण यह भी था कि उसकी पत्नी भी नौकरी करती थी तथा पति पत्नी दोनों ही बच्चों को अधिक समय नहीं दे पाते थे.

दो साल पहले हरसहाय  भाटिया अपनी श्रीमती सहित आस्ट्रेलिया, बड़े बेटे के पास, भी गए थे. बहुत उत्साह और उमंग के साथ पहली बार हवाई यात्रा करके विदेश गए. बेटे-बहू ने खूब खिदमत की, बच्चों के साथ रहते हुए अवर्णनीय आनन्द मिला, पर वह सब अल्पकालिक था क्योंकि वे टूरिस्ट वीजा पर वहाँ गए थे.

बाहर वालों को कहने के लिए भाटिया दम्पति गर्व से कहते रहे हैं कि तीनों बेटों के बच्चे बहुत अच्छी शिक्षा पा रहे हैं, सब की मौज हो रही है, पर अन्दर ही अन्दर बच्चों के वियोग में घुलते भी रहे हैं. गत वर्ष एक बड़े दुर्भाग्य की छाया परिवार पर पड़ी कि जय की पत्नी को ब्रेस्ट कैंसर हो गया. सारे संभव उपाय/ईलाज के बावजूद उसे बचाया नहीं सका. पारिवारिक आपदा पर सभी रिश्तेदार इकट्ठे हुए पर ये सांत्वना स्थाई नहीं होती है. अब घर में वही ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ हो रही है. एक अधपगला सा नौकर है, मिकू, जिसकी जिम्मेदारी पर दो कुत्ते भी हैं. उसकी उपस्थिति किसी तरह अपनेपन का आभास नहीं कराती है.

फरवरी का महीना है. इस बार ठण्ड ने खूब कहर बरपाया है. रिकार्ड़तोड़ बारिस हुई है. घर बिस्तर सब गिलगिले और ठन्डे हैं. निचली मंजिल पर धूप बहुत कम आती है, ऊपर चढ़ने के लिए घुटनों पर बहुत जोर पड़ता है. श्रीमती भाटिया वैसे भी भारी बदन है, संधिवात ने जाड़ों में अपना असर दिखाया है. आज ही दवा की दूकान से पीड़ान्तक तेल मंगवाया है. श्रीमती भाटिया लम्बी उच्छ्वास लेकर सोचती है कि घर में यदि एक भी बहू होती तो अपने घुटनों की मालिश करवाती, सर के बालों में तेल लगवाकर गुन्थवाती और पैर पसार कर बहू से खूब बतियाती रहती. लेकिन ये सब भाग्य में लिखा कहाँ है?

जय समझदार बहुत है, पर पत्नी के गुजर जाने के बाद अपने ही गम में डूबा रहता है. दूसरे विवाह की बात पर उखड़ जाता है. माँ-बाप का मन है, वे बेटे की दशा पर बहुत दूर तक की बातें सोचते रहते हैं और उदासी बढ़ती जाती है.

हरसहाय भाटिया पहले योगाभ्यास किया करते थे, पर अब सब छोड़-छाड़ दिया. मन ही नहीं करता है. इनको अब एक चिंता सताया करती है कि यदि जोड़े में से एक जन बिछुड़ जाएगा तो दूसरे का क्या होगा? रात में पड़े पड़े उनकी नींद उचट जाती है और अकसर नींद लाने वाली गोलियों का सहारा लेना पड़ता है.

अब जब शरीर के तमाम अंग और इन्द्रियाँ जवाब दे रहे हैं, दिखाई कम देने लगा है, सुनाई कम देने लगा है तो हरसहाय अपने आप से प्रश्न करते हैं कि उनसे जिंदगी में कहाँ गलती हुई? अब उन गलतियों का निराकरण भी तो नहीं हो सकता है. लेकिन अगर बच्चों के परिवार वापस घर लौट कर आ जाएँ तो खुशियाँ अपने आप लौट आयेंगी. लेकिन उनको यह भी मालूम है कि घड़ी की सुइयां पीछे को नहीं घूम सकती हैं.
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शनिवार, 16 मार्च 2013

चुहुल - ४६

(१)
एक कंजूस-मक्खीचूस आदमी मृत्युशय्या पर पड़ा था. उसके तीन बेटे थे और वे तीनों ही मूंजीपने में बाप से दो कदम आगे ही रहते थे. पिता के अन्तिम संस्कार करने के बारे में तीनों पास में बैठ कर बतिया रहे थे.
बड़ा लड़का बोला, “पिता जी को शमशान घाट तक ले जाने के लिए कोई ऑटो रिक्शा करना पडेगा, ऑटोवाला २०० रूपये लेगा.”
दूसरा बेटा बोला, “अगर हम साइकिल-रिक्शा करके ले जायेंगे तो तो ५० रुपयों में ही पहुँचा देगा.”
तीसरा लड़का बोला, “इससे तो अच्छा है कि एक हाथ ठेला किराए पर ले लेंगे, २० रुपयों मे काम निबट जाएगा.”
बुड्ढा अर्धचेतना में पड़े पड़े उनकी बातों को सुन रहा था, धीरे से बोला, “बीस रूपये भी क्यों खर्चते हो, मेरा सफ़ेद कुर्ता पायजामा ले आओ, मैं पैदल ही चले चलूँगा.”

(२)
एक थानेदार साहब ने कुछ सामान लाने के लिए अपने नौकर को पास के पंसारी की दूकान पर भेजा. नौकर एक घन्टे के बाद लौट कर आया. देरी का कारण पूछने पर उसने बताया, “दूकान पर बहुत सारे ग्राहक थे. दूकानदार मेरे तरफ देख भी नहीं रहा था.”
थानेदार साहब गुस्से में लाल-पीला होकर पंसारी के सामने पहुँच कर बोले, “क्यों बे, तू इलाका हाकिम को नहीं पहचानता है? मेरे नौकर को एक घन्टे तक खड़ा रखता है, तेरी ये हिम्मत?”
पंसारी डर गया. हाथ जोड़ कर बोला, “हुजूर, गलती हो गयी. आईन्दा आपका कुत्ता भी आएगा तो मैं समझूंगा कि आप खुद ही आ गए हैं.”

(३)
एक ज्योतिषी ने महिला का हाथ देखते हुए बताया, “आपके ऊपर से कोई बड़ा साया उठने वाला है”
महिला ने कहा, “मैं समझी नहीं?”
ज्योतिषी: आपके पिता जी की उम्र अब लम्बी नहीं बचेगी.
महिला: पर मेरे पिता जी तो पाँच साल पहले गुजर चुके हैं.
ज्योतिषी: तब आपके बड़े भाई पर काल की दृष्टि है.
महिला: मेरा कोई बड़ा भाई है ही नहीं.
ज्योतिषी कुछ गंभीर मुद्रा में सोचकर बोला, “तब तो आपका छाता जरूर खो जाएगा.”

(४)
आधी रात को दरवाजे पर दस्तक हुई. मकान मालिक ने गहरी नींद से उठकर दवाजा खोला तो पाया उसका किरायेदार सामने खड़ा था. मकान मालिक ने उससे पूछा, “कहिये क्या बात हो गयी?”
किरायेदार विनीत स्वर में बोला, “भाई साहब, मैं इस महीने किराया नहीं दे पाऊंगा.”
मकान मालिक ने भौंहें तरेर कर कहा, “ये बात तो आप सुबह भी कह सकते थे?”
किरायेदार बोला, “हाँ ये सही है कि मैं ये बात सुबह भी कह सकता था, पर मैं रात भर इसी चिंता में क्यों जगता रहूँ यह सोचकर आपको कष्ट दिया.”

(५)
एक व्यक्ति मायके से आ रही अपनी पत्नी को लेने बस स्टेशन गया. पत्नी की बस पहुँचने पर उसने उसका सारा सामान उतारा. इस बीच पत्नी ने महसूस किया कि उसके आने की पतिदेव को कोई खुशी जैसी नहीं हो रही है. कोई गर्मजोशी नजर नहीं आ रही थी तो वह बोली, “देखिये वो सामने बैंच पर जो पति पत्नी बैठे हैं, उनमें पति कितने उत्साह व खुशी से बातें कर रहे हैं, और एक तुम हो मुँह लटका कर लेने आये हो.”
पति बोला, “वो जो तुम बैंच पर देख रही हो, वो पति उसे लेने नहीं बल्कि छोड़ने आया है.”
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गुरुवार, 14 मार्च 2013

शादी की बधाइयाँ

                          (१)
रामदीन के अँगना, कामधेनु सी गाय,
ये दुनिया की रीति है खूंटा देत बधाय.
खूंटा देत बधाय, फिर मित्र बधाई देते
कहे पाण्डे कविराय, करो खुशियों की बातें
बन्ना-बन्नी की बनी रहें लम्बी चांदनी रातें.

                           (२)
जोड़ी जुग जुग बनी रहे, फूलो - फलो प्यारे
सब दिन हों सौभाग्य के, हर हाल रहो वारे न्यारे
हर हाल रहो वारे न्यारे, तुम खूब मौज मनाना
कहे पाण्डे कविराय जीवन को आदर्श बनाना
हर्षित मात्-पिता को लेकिन तुम भुला ना देना.

                           (३)
वंशबेल बढ़ती रहे, लगे दो या तीन पर ब्रेक
मित्रों को लड्डू बंटे, अवसर पर हर एक
अवसर पर हर एक, यों सब मंगल गावें
कहे पाण्डे कविराय ऋतुराज सा जीवन होवे
खिलते रहें पुष्प, मधुमय तुम्हारा जीवन होवे

                           (४)
सुखिया या सँसार में भांति भांति के लोग
शादी करना है बला, फिर भी करते लोग
फिर भी करते लोग ना हमसे सीखें
कहे पाण्डे कविराय फिर गलती मत करना
तीन-चार होने की जल्दी मत करना.
                           ***

मंगलवार, 12 मार्च 2013

चित्रांशी

चित्रांशी एक दिलेर लड़की का नाम है. आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर नगर पंचायत ने उसकी विशिष्टता के लिए उसे सम्मानित किया है.

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार ने भी  अलग अलग क्षेत्रों में अग्रणीय रही विश्व भर से आठ महिलाओं को सम्मानित किये जाने की खबर है. इनमें हमारे देश की ‘दामिनी’ नाम की सुकन्या भी है, जिसने कुत्सित लोगों के अत्याचार कारण यह सँसार छोड़ दिया था. यद्यपि दामिनी उसका असली नाम नहीं था और ये सांकेतिक नाम उसकी बहादुरी को उजागर करने के लिए दिया गया, वह एक मशाल की तरह जली जिसने प्रकाशस्तंभ के रूप में पूरे देश में नारी शक्ति को जगाया है. ‘दामिनी चली गयी पर उसने अपने पीछे जो प्रश्नचिन्ह व लकीरें छोड़ी हैं, उससे गंभीर चिन्तन पैदा हुआ है. आज महिला दिवस पर हमारे देश के राष्ट्रपति दामिनी के परिवार को इसी भावना के साथ सम्मानित करने जा रहे हैं. यह भी सच है कि ना जाने कितनी दामिनियाँ दरिंदों के अत्याचार व अनाचार की शिकार इस देश में होती रही हैं क्योंकि संस्कारविहीन लोग पशुवत व्यवहार करके मानव समाज को शर्मिन्दा करने से नहीं चूकते हैं.

चित्रांशी का नाम नगर पचायत में यों ही सामने नहीं आया. उसने आम भारतीय लड़की की तरह अपनी शादी के सपने संजोये थे, पर जब उसकी बारात उसके दरवाजे पर आई और पण्डित जी वैदिक रीति से 'धुलीअर्घ' के मंत्रोचार करने जा रहे थे तो दूल्हेराजा शराब के नशे में इतने धुत्त थे कि उससे सीधा खड़ा नहीं हुआ जा रहा था.

चित्रांशी और उसकी माँ देविका के सामने बहुत सारी मजबूरियाँ थी. मित्रों-परिचितों के सहयोग से यह पवित्रबंधन का समारोह आयोजित हुआ था. माँ बहुत उत्साहित थी कि बेटी के हाथ पीले होने जा रहे हैं और वह एक बड़ी जिम्मेदारी पूरी करने जा रही है. चित्रांशी के पिता जगदीशचंद्र का पाँच साल पहले निधन हो गया था. वे राज्य सरकार के लघु जल विद्युत निगम में जूनियर इंजीनियर के पद पर काम करते थे. यह परिवार का दुर्भाग्य था कि निगम के कार्य-कलापों में ठेकेदारी का चलन होने से, कई श्रोतों से इन छोटे अधिकारियों तक को खूब रिश्वत मिल जाती है, कमीशन का रेट सुनिश्चित रहता है. कहते हैं कि रिश्वत का पैसा सबको हजम भी नहीं होता है. जगदीशचन्द्र शराब का शौक़ीन हो गया था. धीरे धीरे वह लत हो गयी. वह सुबह से रात तक नशे में रहा करता था. ill got, ill spent वाली बात चरितार्थ हो रही थी. हर बुराई एक सीमा तक पहुँच कर अपना स्थाई असर दिखाती ही है.

जगदीशचन्द्र का पारिवारिक जीवन उसके शराबी बर्ताव के कारण अशान्त व दु:खी तो था ही, साथ ही अनियमित तरीके से पीते रहने से उसके शरीर को शराब ने खोखला कर दिया. डॉक्टरों ने उसे ‘सिरोसिस आफ लीवर’ की बीमारी बताई तथा शराब न पीने की सख्त ताकीद कर दी, पर वह नहीं माना. अपने शरीर पर अत्याचार करता ही रहा. नतीजा यह हुआ कि उसे मारक पीलिया ने आ घेरा. वह कई दिनों तक कोमा में रहकर चलता बना. तब चित्रांशी पन्द्रह साल की थी. उसने उस तमाम त्रासदी को प्रत्यक्ष देखा-भोगा जो कि उसकी माँ झेल रही थी. चित्रांशी का एक छोटा भाई भी है, जो उन सभी परेशानियों का गवाह रहा है, जो पिता के पियक्कड़पने तथा उनकी बीमारी के दौरान घटित होते रहे.

इस तरह के शराबियों के परिवार में बच्चों के मन-मस्तिष्क पर क्या बीतती है, और उनकी क्या प्रतिक्रिया क्या हो सकती है, यह चित्रांशी के विवाहोत्सव पर विस्फोट की तरह सामने आया.

देविका को पति के मृत्युपरांत ‘मृतक आश्रित’ के अंतर्गत दयाभाव से सरकार ने उसी विभाग में क्लर्क की नौकरी दे दी थी. देविका के पास अन्य कोई विकल्प था भी नहीं. इन सात सालों में चित्रांशी की कॉलेज तक की पढ़ाई पूरी करवाई. बेटा भी हाईस्कूल कक्षाओं में पढ़ रहा है. जैसे बरसात होने पर पेड़-पौधों पर नई कोपलें उग आती हैं, और नवजीवन की शुरुआत होने लगती है, उसी तरह देवकी का ये छोटा सा परिवार नई परिस्थितियों में व्यवस्थित हो चला था.

बेटी की शादी के लिए देविका ने पूरी तैयारी की थी. जहाँ जहाँ से भी सहयोग मिल सकता था, लिया, पर बारात के पहुँचने पर जो नाटक हुआ, उससे सब लोग आहत हो गए. ‘दूल्हा शराबी है’ का शोर हों गया. ऐसे मौके पर चित्रांशी का रौद्र रूप देखकर सब अचंभित हो गए. उसने खुद बारात के स्वागत-सजावट की वस्तुओं को गिरा दिया तथा घोषणा कर दी कि वह शराबी के साथ शादी नहीं करेगी. बीच बचाव, मनुहारें बहुत हुई, पर वह नहीं मानी. उसने पूरे समाज को ये सन्देश दिया कि नारी को अबला या केवल आश्रिता ना समझा जाये. वह विद्रोह करना भी जानती है. नगर के समाचार पत्रों ने इस बात को हाथों हाथ लिया और चित्रांशी एक चर्चित दृढ़ चरित्र लड़की के रूप में जानी गयी.

नगर पंचायत का यह निर्णय प्रशंसनीय रहा कि उसने अपनी इस बहादुर बेटी को पूरे नगर की तरफ से सम्मानित करने का निश्चय किया.

इस बीच यह भी खबर है कि चित्रांशी के लिए बहुत अच्छे अच्छे रिश्ते आ रहे हैं.

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रविवार, 10 मार्च 2013

शिव दर्शन

सनातन धर्म की आस्थाओं में भगवान शिव, त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) में, कल्याणकारी देवता के रूप में जाने व पूजे जाते हैं. वे अजन्मा हैं और अनादि हैं. उनके बारे में तमाम धार्मिक साहित्य भरा पड़ा है. घर घर में उनके चित्र/मूर्तियां तथा प्रत्येक मोहल्ला/गाँव/शहर में उनके मंदिर बने हैं. अनेक दृष्टांत व कथाएं भगवान शिव के बारे में कही जाती हैं. मैंने अपने बचपन में एक रोचक कहानी सुनी थी. यह कथा किस ग्रन्थ में और किस सन्दर्भ कही गयी, यह याद नहीं रहा है.

एक न्यायप्रिय प्रजावत्सल राजा थे, जो भगवान शंकर के अनन्य भक्त थे. हमेशा ही शिवार्चन किया करते थे.  उनसे प्रसन्न होकर एक बार भोले बाबा ने साक्षात प्रकट होकर पूछा, “इतनी साधना क्यों किया करते हो. मुझसे तुम्हारी क्या चाहना है?” राजा ने भगवान को सादर प्रणाम करके कहा, “प्रभो, आपने मुझे सब कुछ दे रखा है! मेरी इच्छा है कि आप हमेशा मुझ पर कृपा बनाये रखें.”

भोले ने कहा, “अच्छा, जो माँगना हो माँग लो.”

राजा ने कहा, “मेरे पास आपका दिया हुआ सब कुछ है. यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो आप चलकर मेरे किले के अन्दर रहने वाली सारी प्रजा को दर्शन देकर मोक्ष का भागीदार बना दीजिए.”

इस पर भगवान बोले, “तुम्हारे किले के अन्दर तो चोर, उचक्के, बेईमान, चरित्रहीन सभी तरह के लोग निवास करते हैं. मैं सभी को कैसे दर्शन दे सकता हूँ? मेरे दर्शन की प्राप्ति तो मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार होती है.”

राजा बोले, “आपने कहा है कि कुछ भी माँग लो इसलिए मैंने जो चाहा सो माँगा है, अब आपकी मर्जी है.”

शंकर भगवान ने कुछ सोचकर बीच का रास्ता सुझाया ताकि दोनों की बात रह जाये. उन्होंने कहा, “यहाँ से पाँच मील दूर एक टीले पर मेरा एक छोटा सा मन्दिर बना हुआ है. तुम अपनी प्रजा को अगले सोमवार को प्रात: द्वितीय प्रहर में वहाँ लेकर आ जाओ. मैं प्रत्येक आने वाले को मन्दिर के चबूतरे पर बैठ कर दर्शन दूंगा.” शंकर भगवान ने इसी सन्दर्भ में आगे भी कहा कि “किले के अन्दर से तो तुम लोगों को जोर-जबरदस्ती से बाहर लाकर चलने के लिए प्रेरित कर सकते हो लेकिन अगर कोई रास्ते में से वापस लौटना चहेगा तो उसे रोकना मत.”

राजा ने इस बात पर अपनी सहमति दे दी. तदनुसार किले के निवासियों को सोमवार को शिव-दर्शन के लिए चलने का हुक्म हो गया. डुगडुगी बजा दी गई. सिपाहियों ने लूले-लंगड़े, अंधे-काणे तक को किले के बाहर निकलने को मजबूर कर दिया, और इस प्रकार पूरी बारात सी शिव-दर्शन को चल पड़ी.

कर्मों के अनुसार फल देने के आधार पर भगवान ने अपनी माया फैला दी. सड़क के दोनों तरफ चवन्नियों के ढेर लगा दिये. इतनी सारी दौलत पड़ी देख लोग उसे समेटने में जुट गए. आधी जनसंख्या चवन्नियों का अधिकतम बोझ उठा कर घर को लौट गयी. लोग आगे बढ़े. उनको अगले मील पड़ाव पर अठन्नियों के ढेर मिले तो बहुत से लोग अठन्नियां समेट कर वापस लौट पड़े. इसके बाद अगले मील पड़ाव पर चांदी का कलदार पूरा रुपया देखकर बहुतों को लालच हो आया. अपने अपने कपड़ों के थैले-पोटलिया बना कर जितना उठा सकते थे उठा कर लौट गए. इसी प्रकार अगले पड़ाव पर सोने की गिन्नियां तथा आख़िरी पड़ाव पर असंख्य मणि एवं रत्न पड़े मिले, जिन्हें पाकर अच्छे-अच्छों को उसी में भगवान नजर आने लगे. अंत में जब राजा मन्दिर के चबूतरे तक पहुंचे तो उनके साथ केवल उनकी महारानी और एक साधू बचा रहा.

शंकर भगवान ने राजा का अभिवादन लेते हुए कहा, “ले आये अपनी प्रजा को?”

राजा ने भगवान के चरण पकड़ लिए और कहा, “आपकी माया अपरम्पार है. आपने सच ही कहा था कि मनुष्यों को उनके कर्मों के अनुसार ही फल की प्राप्ति होती है."
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शुक्रवार, 8 मार्च 2013

मधु और मधुमक्खियां - २

उत्तराखंड में चम्फावत जिले में एक जगह का नाम है सूखीढांग, जहाँ पर रामकृष्ण मिशन ने अपनी आध्यात्मक पीठ के अलावा एक सुन्दर नैसर्गिक परिदृश्य को भी आकार दिया है. जलाशय में कमल के पुष्पों की छटा दर्शनीय होती है. यह जानकर आनंदानुभूति हुई कि यहाँ मधुमक्खियाँ कमल पुष्पों से मकरंद लेकर शहद बनाती हैं. यह शहद श्रेष्ठ और अनुपम होता है. इसी तरह मधुमक्खियों के कार्य-कलाप विश्व के तमाम क्षेत्रों में चलते होंगे.

यहाँ पहाड़ों में कार्तिक के महीने में जो शहद निकाला जाता है वह स्वच्छ-श्वेत बर्फ की आभा वाला होता है क्योंकि बरसात में कोई धूलकण वातावरण में नहीं होता है. चैत्र-बैसाख में वसंत ऋतु के फूलों से बनाए गए शहद में थोड़ा पीलापन व भूरापन आ जाता है.

यों शुद्ध शहद को अमृत के सामान बताया गया है. धार्मिक अनुष्ठानों में जो पंचामृत बनता है उसमें शहद एक मुख्य पदार्थ होता है. शहद प्रकृति का एक अनमोल वरदान है. मिश्र की एक रानी, जिसका ३००० वर्ष पहले देहावसान हुआ था, और पिरामिड में दफन थी, उसकी कब्र में एक शहद का भरा जार भी मिला, उस शहद की गुणवत्ता में इतने समय के अंतराल में कोई रासायनिक कमी नहीं पायी गयी. कहा जाता है कि पुराना शहद बहुत गुणकारी रहता है जो अनेकों बीमारियों के उपचार में काम में लिया जाता है. शहद के कुछ उपयोगी प्रयोग निम्न हैं:

(१) सुबह खाली पेट गुनगुने पानी में बराबर की मात्रा में नीबू का रस मिलाकर पीने से कब्ज दूर होती है, अम्लपित्त का शमन होता है, तथा मोटापा कम होता है.

(२) नेत्र-ज्योति बढ़ाने के लिए गाजर के रस के साथ खाली पेट लेना चाहिए.

(३) जुकाम-खांसी में अदरक स्वरस के साथ लेने से बहुत लाभकारी होता है.

(४) उच्च रक्तचाप वालों को लहसुन पेस्ट मिलाकर लेना चाहिए.

(५) दमा के रोगियों को आधा ग्राम काली मिर्च के पाउडर में मिलाकर दिन में तीन बार लेना चाहिए.

(६) अनिद्रा के रोगियों को सोने से पहले दो चम्मच पानी में मिला कर लेना चाहिए.

(७) चेहरे की कान्ति व शरीर में तेज-बल बढ़ाने के लिए नित्य शहद खाना चाहिए.

(८) मुँह के अन्दर मसूड़ों को मजबूत रखने व दांतों को साफ़ रखने के गुण भी शहद में होते हैं.

(९) उम्रदराज लोगों में ऊर्जा बनाये रखने में शहद का प्रयोग अत्युत्तम होता है. शहद को दूध या गरम पानी में मिलाकर पीना चाहिए.

(१०) यौन निराशा में शहद दूध या गरम पानी में पीते रहने से जोश व ऊर्जा पुन: प्राप्त होती है.

शहद तथा शुद्ध घी बराबर की मात्रा एक साथ खाने से वह जहर बन जाता है, इसका ध्यान रखा जाना चाहिए.

चूंकि शहद में ग्लूकोज का प्रतिशत ज्यादा होता है इसलिए मधुमेह के रोगियों के लिए शहद पूर्णतया त्याज्य है.

एलोपैथी चिकित्सा पद्धति में कई दवाओं को अल्कोहल के संयोग से बनाया जाना आम बात है. इसके पीछे सिद्धांत यह है कि अल्कोहल अपने आशु गुण के अनुसार दवाओं के अणुओं को सूक्ष्मतिसूक्ष्म रोमछिद्रों तक पहुँचा देता है.

आयुर्वेद में शहद का दवाओं के साथ अनुपान इसी आधार पर है कि ये अपने साथ दवा को शरीर के सभी अवयवों तक ले आता है और अतिलाभकारी होता है. आयुर्वेद के अनुसार शहद में ये दस गुण होते हैं: रूक्ष्म, ऊष्णम, तथा तीक्ष्णम, सूक्ष्म, आशु, व्यावाय च; विकासी, विशदस्चैव लघुपाकी ते दस: यही सब गुण विष में भी होते हैं केवल फर्क यह है कि विष में एक अतिरिक्त ‘मारक’ गुण भी होता है.

पूरे कथन का सारांश यह है कि मधु का यदि सही रूप से प्रयोग किया जाये तो ये जीवनदायिनी औषधि के समान है.

 मधुमक्खियाँ हमारी निस्वार्थ मित्र हैं. मानव जाति की परोक्ष रूप से ये एक और महत्वपूर्ण सेवा करती हैं कि अनाज व फलों के परागण में इनका स्वाभाविक योगदान होता रहता है.
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बुधवार, 6 मार्च 2013

मधु और मधुमक्खियां - १

क्या आपने कभी दुनिया की सबसे मीठी वस्तु शहद और उसको कण कण के रूप में इकट्ठा करने वाली मधुमक्खी के विषय में गंभीरता से सोचा है?

हमारे उत्तरांचल में सभी पुराने घरों में, जिस प्रकार दूध के लिए गाय-भैंस पाली जाती हैं, उसी तरह 'मौन (शहद की मक्खी) पालन' ग्रामीण जीवन का एक अपरिहार्य हिस्सा हुआ करता है. हर घर में खिड़कियों की ही तरह छोटे दराजनुमा दड़बे या खास किस्म के लकड़ी के बक्से रखे जाते है. और शहद की मक्खियाँ अपनी सहूलियत के अनुसार अथवा पालने वालों की इच्छानुसार इनमें वास करती हैं. अब मौन-पालन कृषि विज्ञान की एक विधा मानी जाती है. मौन पालकों को सरकार की तरफ से इसकी विधिवत ट्रेनिंग भी दी जाती है. इसे ग्रामोद्योग का दर्जा प्राप्त है.कई स्थानों पर तो औद्यिगिक स्तर पर उत्पादन भी होता है.

मधुमक्खियों के परिवार में एक रानी मक्खी होती है, जो आकार में आम मधुमक्खियों से कई गुना बड़ी होती हैं. ये रानी मक्खी परिवार बढ़ाने के लिए छत्ते की कोटरों में अण्डे देती रहती है मजदूर मधुमक्खियां बहुत मेहनती होती हैं, जो फूलों से मकरंद (नेक्टर) तथा परागकण इकट्ठा करके लाती हैं और छत्ते के एक हिस्से में जमा करती रहती हैं. इनका ये काम दिन के उजाले में होता है. शाम होते ही सभी मधुमक्खियां अपने घर लौट आती हैं. कहा जाता है कि इनमें जो नर मधुमक्खियां होते हैं, वे कामचोर होते हैं. हर मक्खी परिवार की अपनी एक अलग गन्ध होती है. यदि कभी किसी दूसरे परिवार वाला घुसपैठिया आ जाये तो वह मारा जाता है. दिन के समय जब मधुमक्खियां मकरंद लेने दूर दूर तक जाती हैं तो अपनी गन्ध की लकीर छोड़ती जाती है ताकि वापसी उसी रास्ते हो सके.

मधुमक्खियों का समाज बहुत अनुशासित व व्यवस्थित होता है. घर में किसी प्रकार की परेशानी हो तो वे दूसरा नया घर खोज लेती हैं. यदि कोई नई रानी मक्खी पैदा हो जाती है तो वह अपना अलग परिवार बना कर अन्यत्र चली जाती है. किसी परिवार की रानी मक्खी यदि किई कारण मर जाती है तो पूरा परिवार बिखर कर मर जाता है.

ये सच है कि मधुमक्खियां शहद अपने और अपने बच्चों के भोजन के लिए जमा करती हैं. वे भोजन के लिए पूरी तरह मकरंद तथा परागकणों पर ही निर्भर होती हैं. मकरंद से ऊर्जा तथा पराग कणों से भरपूर प्रोटीन पा जाती हैं. उनकी जीभ की बनावट बहुत जटिल बताई जाती है. सचमुच हम मनुष्य, भालू या अन्य शहद्खोर जीव इनके घरों से शहद चुरा लिया करते हैं. रात के अँधेरे में अथवा धुआं लगाकर उनको एक तरफ भगा कर शहद निकाल लिया जाता है. उनको अवश्य ही इससे बहुत दुख व तकलीफ होती होगी क्योंकि इस प्रक्रिया में उनके अण्डे, लार्वा या बच्चे अधिसंख्य में मारे जाते हैं.

मधुमक्खियां अंटार्कटिका के अलावा सभी महाद्वीपों में पाई जाती हैं. अलग अलग स्थानों में इनके आकार व व्यवहार में थोड़ा बहुत अंतर भी पाया जाता है. जंगली मधुमखियाँ मोटे पेड़ों की कोटरों या डालियों पर अपने छत्ते बनाया करती हैं. छत्तों में मोम की मात्रा बहुत होती है. कुछ बड़ी मक्खियां ज्यादा जहरीली भी होती हैं. उनके डंक बहुत पीड़ाकारक होते हैं. प्राय: देखा गया है कि ये मक्खियां सिर्फ अपने बचाव में ही हमला करती हैं इसलिए उनके साथ किसी तरह की छेड़खानी नहीं करनी चाहिए.

अब जब बड़े स्तर पर वैज्ञानिक तरीकों से मौन पालन हो रहा है तो उत्पादन भी बढ़ा है. शहद की विश्व भर में बहुत माँग रहती है. पालतू मक्खियों के बक्सों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए रात के समय स्थानांतरण किया जाता है. रानी मक्खी ना भाग सके इसलिए बक्से पर क्वीन गेट भी लगा दिया जाता है. मधुमक्खियाँ बहुत गर्मी या बहुत सर्दी बर्दास्त नहीं कर पाती हैं बसंत ऋतु में जब फूलों का मौसम होता है तो ये गतिमान रहती हैं. जिस प्रकार के जंगल या खेतों/फूलों से ये मकरंद व पराग लेती हैं उसी प्रकार के गुण व रंग युक्त शहद तैयार होता है.

शहद एक अत्यंत गुणकारी औषधि एवं औषधि-अनुपान(संचालक) भी है. इसके बारे में पूरी चर्चा आगामी लेख में प्रस्तुत की जायेगी.
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सोमवार, 4 मार्च 2013

प्रतिरोधक

नैनीताल के जाने माने अस्थिरोग विशेषज्ञ डॉ. डी. जोशी की बेटी उमा ने माइक्रोबायोलॉजी में पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री तो हासिल कर ली, पर उसके बाद उसके मन-मस्तिष्क में एक अजीब ख़याल घर कर गया. वह घर बाहर सब तरफ रोगाणुओं, विषाणुओं, और कीटाणुओं के प्रति ज्यादा ही संवेदनशील हो गयी. कार में, बस में, ट्रेन में, या कहीं बाथरूम-टॉयलेट के दरवाजों/हैंडिलों में उसे संक्रमण के खतरनाक वाहकों का अंदेशा रहने लगा. कुछ हद तक तो ये बात सही हो सकती है क्योंकि मानव शरीर के अन्दर–बाहर वातावरण के अनुसार असंख्य ऐसे तत्व व विषाणु /वायरस होते हैं जो संसर्गी को रोगी बना सकते हैं. किन्तु ये भी सत्य है कि प्रकृति ने उसका भी स्वाभाविक इन्तजाम कर रखा है कि संसर्ग में आते ही शरीर के अन्दर प्रतिरोधात्मक शक्तियां पैदा होने लगती हैं.सारा इम्यून सिस्टम जागृत रहता है.

उमा ने पढ़ा था कि अगर प्रतिरोधात्मक शक्तियां कमजोर हों तो मामूली किस्म के वायरस भी मारक बन सकते हैं. अमेरिकी इतिहास के महत्वपूर्ण सोपान में उसने कहीं पढ़ा था कि जब यूरोपीय लोगों ने अमेरिका की धरती पर पदार्पण किया था तो वे यूरोपीय वायरस व रोगाणु भी दहेज की तरह अपने साथ वहां ले गए. वहाँ के मूल निवासियों में उन वायरसों/ रोगाणुओं से लड़ने की कोई भी प्रतिरोधी शक्ति नहीं थी. अमेरिका के मूल निवासियों ने इन विदेशी अतिक्रमणकारी लोगों का डट कर मुकाबला किया, पर युद्ध में हार गए और बहुत से लोग मारे गए. उन युद्धों में जितने लोग मारे गए उनसे ज्यादा वायरस/रोगाणुओं से भी मर गए थे. उमा ने पढ़ने  को तो ये भी पढ़ा था कि धूल, मिट्टी और कीचड़-गोबर में खेलने वाले गरीबों के नंग-धडंग बच्चों में स्वाभाविक तौर पर प्रतिरोधात्मक शक्तियां अन्य हिफाजती, नरम बच्चों की अपेक्षा कहीं ज्यादा होती हैं, जिनको धूल मिट्टी या संक्रमण के खतरों के इतर बचाकर रखने की कोशिशें की जाती हैं.

उमा के मन-मस्तिष्क में तो ये बात गहरे बैठी हुयी थी कि सब तरफ खतरनाक बीमारियों के जनक फैले हुए रहते हैं. इस प्रकार अतिसंवेदनशील उमा का जीना पग पग पर भयग्रस्त रहता था. ऐसे में उसका विवाह भैरव भट्ट नाम के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर से हो गया, जो कि तराई में पन्त नगर के पास गाँव का रहने वाला है. भैरव भट्ट एक किसान का बेटा है. भैरव भट्ट सिडकुल के एक बड़े औद्योगिक इकाई में काम करता है, जो कि उसके घर से ज्यादा दूर नहीं है.

उत्तराखंड के कम्स्यार इलाके के सैकड़ों परिवार घर-गाँव छोड़कर पिछली सदी के पांचवे दशक में तराई/भाबर में आ गए थे. उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री पण्डित गोविन्द बल्लभ पन्त ने तराई-भाबर के इस इलाके को आबाद करने के लिए पहाड़ के लोगों को यहाँ आकर बसने का न्यौता दिया था. सबको सात सात एकड़ जमीन और साथ में एक जोड़ी बैल देने का प्रावधान भी किया था. पहले तो जंगल की झाडियां और पेड़ काटकर जमीन को खेती के योग्य बनाया, ये काम इतना आसान नहीं था क्योंकि इस जंगल में अनेक खतरे मौजूद थे. आदमखोर शेर, अन्य खूंखार जंगली जानवर, जहरीले सांप-बिच्छू सभी जान के दुश्मन मौजूद थे. इससे भी ज्यादा खतरा मच्छरों से था सैकड़ों लोग मलेरिया से मर गए. कई लोग तो साल दो साल यहाँ कई आपदा झेल कर वापस अपने गाँव लौट गए, या यहीं भगवान को प्यारे हो गए. जो लोग यहाँ हाड-तोड़ मेहनत व जिंदगी के साक्षात खतरों को सह गए वे आज खुशहाल हैं, उनकी औलादें बाप-दादा की तपस्या का फल पा रहे हैं.

बाजड़ गाँव के देवदत्त भट्ट भी बहुत से अन्य ग्रामवासियों के साथ यहाँ आये थे. ज़िंदा रहने के लिए वे सारी कसरतें करते रहे, जो यहाँ मजबूरी थी. समस्या साफ़ पीने के पानी की भी थी, कच्चा झोपड़ा और उसमें सीलन का प्रकोप रहता था. जमीन जरूर बेहद उपजाऊ थी पर फसल बोने से लेकर काटने-समेटने तक अनेक आपदाएं थी.

आज ये आपदाएं सब नैपथ्य में चली गयी हैं. नयी पीढ़ी को याद भी नहीं है कि उनकी पिछली पीढ़ियों ने कितने कष्ट उठाये थे.

स्व. देवदत्त के पुत्र बद्रीदत्त भट्ट बड़े समृद्ध काश्तकार हैं. पक्का घर है, बैलों की जगह ट्रैक्टर आ गया है, दो दुधारू भैंसें और चार गायें गोशाला में बंधी हुई हैं, घर के बगल में गोबर गैस प्लांट स्थापित है. वे अपने देसी ठाठ से ही रहते हैं. खुद बद्रीदत्त ने स्कूल कालेज का मुँह तो कभी नहीं देखा, पर अपने बेटे भैरव को उन्होंने भरपूर शिक्षा देने की ठानी थी सो नजदीक में पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय से उसने एम. टेक. की डिग्री हासिल कर ली. जिसके फलस्वरूप उसे नौकरी भी मिल गयी.

जब आदमी समृद्धि पा जाता है तो उसके रिश्ते भी बड़े बड़े घरों से आने लगते हैं. भैरव और उमा की शादी बड़े धूमधाम से हो गयी. अनेक रिश्तेदार बद्रीदत्त भट्ट के भाग्य को सराहते हैं लेकिन यहाँ तक पहुँचने के उनके अध्यवसाय व जी तोड़ मेहनत की किसी को याद नहीं है.

डॉ. जोशी ने अपनी बेटी को एक महंगी कार व फर्नीचर सहित बहुत सा स्त्री-धन भी दिया, जिसे संभालने के लिए बद्रीदत्त भट्ट को अपने घर में नए सिरे से कवायद करनी पडी.

बाहर वालों को तो सब सामान्य दिख रहा होगा, पर जब से उमा बहू बन कर इस घर में आई, घर के अन्दर अशांति सी हो गई. एक अघोषित टकराव की स्थिति सी बनी हुई थी क्योंकि उसको घर के अन्दर-बाहर, आसपास सर्वत्र गन्दगी, गोबर व बैक्टीरिया नजर आते हैं. गौशाला तथा गोबर गैस प्लांट नजदीक ही होने से गोबर की सड़ी बदबू से उसका दम घुटता है. गाहे बेगाहे उत्तर में चंद किलोमीटर दूर लालकुआँ के पेपर मिल की बदबू उसे और भी उल्टी करने तक की हैरानी पैदा करती है.

उमा को तकलीफ है कि बाथरूम हाईजेनिक नहीं है, घर में एक ही साबुन से सब लोग नहा लेते हैं, मकान के फर्श पर फिनायल या लाईसोल अथवा किसी कीटनाशक द्रव्य से कभी साफ़ नहीं किया जाता है. उसका माइक्रोबायोलाजिस्ट होना उसके लिए दुखदाई साबित हो रहा है. उसे हर जगह कोकाई, बैसिलाई, या पैरासाइट्स की उपस्थिति का अहसास होता है. उसको तकलीफ है कि उसका छोटा देवर नीरज और ननद राधा जब चाहे उसके तौलियों का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते हैं.

भैरव अपने अभिन्न माता-पिता को कह नहीं पा रहा है कि उमा उस पर घर से दूर रुद्रपुर में बने नए मल्टीस्टोरी फ्लैट्स में जाने का दबाव बनाए हुए है. बहाना उसके तौलियों के सार्वजनिक उपयोग पर आ टिका है. भैरव ने बड़े संकोच के साथ अपने पिता को बताया कि उमा अपने तौलियों के दूसरों के द्वारा उपयोग पर मनमुटाव कर रही है, इसी कारण तीन दिनों से पति-पत्नी तक में बोलचाल बन्द है.

बद्रीदत्त भट्ट यद्यपि बहुत अनुभवी व्यक्ति हैं, पर इस कलह की असली जड़ को नहीं समझ पा रहे हैं. वे परिवार के बिखराव के बारे में चिंतित अवश्य हैं इसलिए अगले ही दिन पिलखुआ जाकर चार दर्जन बढ़िया किस्म के महंगे तौलिए खरीद कर घर ले आये. पैकिंग खोलते हुए बहू रानी से बोले, “बेटी, मैं और भी तौलिए लाकर रख दूंगा पर तुम लोग इतनी छोटी चीज के लिए घर छोड़ कर जाने की बात मत करना.”

ये वार्ता अब थोड़ी पुरानी पड़ गयी है, इस बीच उमा रुद्रपुर शहर में एक क्लीनिकल पैथोलाजी लैब का संचालन खुद करने लग गयी है. घर की सारी सैनिटेशन  सम्बन्धी जिम्मेदारी भी उसी ने संभाल ली है. गृहस्थी ठीक चल रही है. वह बहुत सामान्य हो चली है, गोबर की बू-बास अब उसके भी जेहन में बस गयी है.
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शनिवार, 2 मार्च 2013

ठलुआ पंचायत - २

(ठलुआ पंचायत -१ यहाँ पर पढ़ें)

आज हमारी ठलुआ पंचायत का एजेंडा देश का इस साल का बजट रहा.

'बजट' शब्द की व्यत्युत्त्पति अंग्रेजी के 'बोगेट' शब्द से हुई है. यह फ्रांसिसी भाषा के शब्द 'बौऊगेट' से आया शब्द बताया जाता है. इसका अर्थ होता है, चमड़े का वह थैला जिसमें धन रखा जाता है. हमारी देशी चलन की भाषा में इसे ‘रामकोथली’ भी कहा जा सकता है. आजकल शादी ब्याह के दौरान वर या वधू पक्ष के जिम्मेदार व्यक्ति के हाथ में जो रुपयों का थैला (बटुवा) होता है उसे रामकोथली कहा जाता है.

बहरहाल जैसे हम या हमारी गृहिणियां घर की आमदनी के अनुसार घर का मासिक या वार्षिक खर्चा चलाती हैं, उसी तरह देश का वित्त मन्त्री पूरे देश के सरकारी आमदनी तथा खर्चे पर अगले वित्त वर्ष की संभावनाओं पर लेखा-जोखा तैयार करके देश की सबसे बडी पंचायत संसद में पेश करता है. हर साल आमदनी के नए श्रोत व खर्चे के नए मुद्दों को ढूंढा जाता है. बजट तैयार करने के लिए बड़े बड़े अर्थशास्त्री व आर्थिक सलाहकार काम करते हैं क्योंकि ये बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होता है. ये इतनी हल्की चीज नहीं होती जैसा कि आम आदमी सोचते हैं.

रेल विभाग हमारे देश का सबसे बड़ा सरकारी उद्योग है, और उसका कारोबार बहुत विस्तृत भी है इसलिए हर साल आम बजट से पहले ही अलग से उसको प्रकाशित किया जाता है. उसमें भी आमदनी व खर्चे के प्रस्ताव पेश किये जाते हैं. संसद में बहस की जाती है.

हमारी ठलुआ पंचायत के मुख्य सदस्यों का परिचय पिछली पंचायत की रिपोर्टिंग में करवाया जा चुका है. आज की यह बहस उनको दिये गए नम्बर के आधार पर ही अंकित की गयी है:

न. १ - आप लोगों ने कल चिदंबरम साहब के बजट प्रस्तावों को सुना होगा, क्या प्रतिक्रिया है?

न. ७ - हम तो अनेक राजनेताओं की प्रतिक्रिया टी.वी. के चैनलों पर सुन कर आ रहे हैं. पक्ष वाले तारीफों के पुल बाँध रहे हैं और विपक्ष के नेता इसे बेकार बता रहे हैं. विपक्षियों में केवल नितीश कुमार, मुख्य मन्त्री बिहार ने इसकी तारीफ़ की है.

न. ४- नीतीश कुमार ने इसमें गहरी राजनीति खेली है, उनका निशाना इसकी आड़ में भाजपा पर है, जो कि आजकल मोदीराग अलाप रहा है.

न. ५- हाँ, आप ठीक कह रहे हैं. इसमें बहुत बड़ी चाल है, वह भाजपा को सन्देश देना चाहते हैं कि मोदी को आगे करने पर वे काँग्रेस के नजदीक जा सकते हैं. यद्यपि उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव ने सिद्धान्त रूप से बजट की खिलाफत की है. वैसे तो मुलायमसिंह और मायावती ने भी बजट को जन विरोधी कहा है.

न. ४- अरे, इनका क्या, ये सब कुर्सी की लड़ाई है, नूरा कुश्ती है. बजट को शायद ही कोई ठीक से समझ पाया हो. कुछ सालों पहले तक बड़े जानकार, संविधानविद स्वर्गीय नानी पालखीवाला मुम्बई में बजट पर अपनी विस्तृत प्रतिक्रिया सार्वजनिक रूप से दिया करते थे. दुनिया उनको गौर से सुनती भी थी, बातों में दम होता था. अब तो पक्ष/विपक्ष का एक दस्तूर भर रह गया है. सारे नेता जनता के हमदर्द होने का नाटक करते हैं.

न. ९- कई बार जल्दीबाजी में बिना बहस के भी बजट पास होते रहे हैं. खुद के वेतन-भत्तों व सुविधाएँ बढ़ाने के लिए कोई भी पर्लियामेंटेरियन बहस नहीं करवाता है. ये सब गरीबों के अमीर नुमायंदे हैं. केवल जनता को बहकाते हैं. हर साल प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से टैक्स बढ़ाये जाते हैं. बीच बीच में भी जब चाहे वैसे भी रेट बढ़ाते हैं. मुझे तो लगता है कि जमाखोरों व कालाबाजारियों का भी हाथ बजट बनवाने में रहता होगा.

न. ११- इस बार तो इनकम टैक्स के स्लैब में कोई फेरबदल नहीं किया गया. केवल एक करोड़ आमदनी पर सुपर टैक्स १०% लगाया गया है. एक नेता तो कह रहे थे, ये नोशनल बजट मात्र है.

न. ३- ये भाई साहब पूरी तरह मनमोहन सरकार के वित्तमंत्री चिदंबरम का चुनावी बजट है ताकि लोग फिर उनको वोट दें, पर पब्लिक है सब जानती है. इस बार भाजपा को लग रहा है कि वे कुर्सी हथिया लेंगे.

न. ८- ये उनका खयाली पुलाव है, उत्तरांचल व हिमांचल में उनके हाथों से सता निकल गयी. अभी कल ही पूर्वोत्तर से जो रिजल्ट आये हैं, उनमें मेघालय में फिर कॉग्रेस सरकार बन रही है, भाजपा को वहाँ केवल एक सीट मिली है. बाकी में भी लेफ्टिस्ट रूलिग़ पार्टी ही जीती हैं. भाजपा का हिन्दू वोट बैंक हिन्दी भाषा वाले शहरी क्षेत्रों में है क्योंकि यहीं ज्यादा हुल्लड़बाजी होती है.

न.६- लेकिन अब लोग परिवर्तन चाहते हैं, गाँवों में भी गैस की कीमत बढ़ाने और सिलेंडर कम करने से लोग नाराज हैं

न. ५ - आप लोग बाबा रामदेव जी को आस्था चेनल पर सुनिए, वे फिर से बिगुल बजायेंगे.

न. १- मैं समझता हूँ कि इससे बहुत ज्यादा फर्क पड़ने वाला नहीं है. महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दों से कॉग्रेस बैकफुट पर जरूर आई है, लेकिन जब तक सम्पूर्ण विपक्ष बंटा हुआ रहेगा बीस प्रतिशत वोटों से ही उम्मेदवार जीत जाता है.

न. ४- काँग्रेस को जड़ से उखाडना तो संभव नहीं होगा क्योंकि इसकी जड़ें दूब की जैसी हैं, फिर फिर हरी होती रहेंगी. जहाँ तक बजट का सम्बन्ध है, चुनावी साल में सभी सत्ताधारी पार्टियां लोक लुभावन बजट लेकर आती रही हैं. क्योंकि असल लड़ाई तो कुर्सियों के लिए लड़ी जाती है.

न. १- अभी तो पूरी बहस संसद में होनी है, अफसोस तो ये है कि सब लोग राष्ट्रीय विषयों को भी दलगत चश्मों से देखते हैं.

न. १२- ये सब सोनिया गाँधी का खेल है. वह सब को नचा रही है. जैसा वह चाहती है वैसा ही सब करते जाते हैं. बजट पर उसकी पूरी नजर रही होगी.

न. ८- आप कुछ लोगों को तो सोनिया फोबिया हो गया लगता है. अरे, उसने एक बिखरती पार्टी की कमान संभल रखी है इसलिए सभी जल रहे रहे हैं. शरद पवार कह रहे हैं कि “विदेशी मूल का अब कोई मुद्दा नहीं है.” सच तो ये भी है कि भारतीय मूल के कई लोग मारीशस, फिजी, गुयाना, यहाँ तक कि इंग्लेंड की संसद व अमेरिका के प्रशासन में झंडे गाड़ रहे हैं, तब तो आप वाह वाह कहते हैं.

न. ३- पर देसी मूल का कोई और नेता नहीं है जो कमान संभाले?

न. ८- तुम देसी मूल के लोगों से तो वह बहुत ठीक है, उसने हिन्दी सीखी, भारतीय लिबास साड़ी पहन कर रहती है. कभी ओछी बात नहीं करती है, मुझे आश्चर्य होता है कि लोग गाँधी परिवार को परिवारवाद का नाम देकर गालिया देना अपना हक समझते हैं, पंजाब में बादल परिवार, यू.पी. में मुलायम परिवार, तमिलनाडू में करूणानिधि परिवार, कश्मीर में अब्दुला परिवार, महाराष्ट्र में शरद पवार का परिवार, शिव सेना का परिवारवाद, आदि अनेकों खानदान हैं, जो राजनीति करते हैं वे सब नजर नहीं आते हैं. जबकि देश की अखंडता के लिए सबसे ज्यादा कुर्बानी इसी परिवार ने दी है.

न. १- बहस बजट पर हो रही है.... मैं समझ रहा हूँ कि हम लोग विषय से भटक रहे हैं.

न. ११- ये देश ऐसे ही चलेगा. अपने अपने घरों के बजट को संभालिए, देश की चिंता करने वाले बहुत बड़े बड़े अर्थशास्त्री बैठे हैं.

आज के बैठक यहीं समाप्त कर दी गयी.
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