(गाँव वालों की जुबानी)
मनोरथ पांडे अंग्रेजों के जमाने में पटवारी थे. पटवारी बहुत बड़े इलाके का हाकिम होता था. तब एकीकृत अल्मोड़ा जिला काफी लंबा चौड़ा था. पिथोरागढ़, चंपावत और बागेश्वर को तहसील का दर्जा भी प्राप्त नहीं था. पटवारी यद्यपि राजस्व विभाग का बड़ा अधिकारी नहीं होता था, उसे मात्र २५ रूपये माहवार वेतन मिला करता था, लेकिन उसकी जिम्मेदारी बहुत बड़ी होती थी. राजस्व पुलिस व प्रशासनिक कार्यों में भी उसका दखल होता था. पटवारी तो पटवारी, उसका चपरासी जिसे सटवारी कहते थे उसके भी बड़े रुतबे होते थे. आम ग्रामीण उनसे भय खाते थे. ग्राम प्रधान तो इनकी खुट्टेबर्दारी करने को मजबूर होते थे. मालगुजारी वसूलने का कमीशन उनको मिला करता था. फौजदारी मामलों में मुलजिम को हथकड़ी पहनाकर जेल भेजने का अधिकार पटवारियों को होता था.
मनोरथ पांडे मिडिल पास थे. अल्मोड़ा में उनके बुआ-फूफा रहते थे. फूफा जी कर्मकांडी ब्राह्मण थे; जिला कलेक्टर के कर्यालय में उनकी चूल्हे की जड़ तक पहुँच थी. उन्ही के सद्प्रयास से मनोरथ को ये नौकरी मिली थी.
बागेश्वर से धरमघर मार्ग में सनेती एक खास स्थान रहा है, जहाँ तब एक प्राइमरी पाठशाला थी शायद वह टिन की छत वाली बिल्डिंग तथा लंबा चौड़ा खेल का मैदान आज मी वहां मौजूद होगा. पचार गाँव यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है. कुछ किलोमीटर दक्षिण में कांडा है, जो अपने समय में मिडिल तक की शिक्षा का जाना माना केन्द्र था. दूर दूर से लड़के यहाँ आते थे. मिडिल यानी सातवीं कक्षा पास करके अध्यापकी के लिए ट्रेनिंग करके नौकरी पा जाते थे. डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के अध्यापकों को शुरुआती वेतन ७ रूपये मासिक मिला करता था. इस लिहाज से भी पटवारी का पद अध्यापकों से काफी ऊपर समझा जाता था.
पचार गाँव के पण्डित अपना पुश्तैनी पुरोहिती का धंधा किया करते थे/आज भी करते हैं. दूर कपकोट, बागेश्वर व उत्त्तर पूर्व के गाँवों में उनके स्थाई जजमान थे. गाँव के निकट हथरसिया में एक संस्कृत की पाठशाला भी थी, जहाँ लड़कों को कर्मकांड सम्बन्धी व्यवहार भी सिखाया जाता था. गाँव बड़ा था जिसमें तब लगभग ७५ घर ब्राह्मणों के तथा ३० घर शिल्पकारों के हुआ करते थे. यों पचार एक पारंपरिक अलसाया हुआ गाँव था. गाँव में एक पटवारी का तब अभ्युदय होना एक महत्वपूर्ण घटना थी. जैसा कि आजकल यदि गाँव का कोई बच्चा आई..ए.एस. की परीक्षा पास कर जाये तो गर्व की बात होती है.
उन दिनों घूसखोरी का बदनाम कारोबार नहीं होता था. छोटे स्तर पर पटवारी-अमीन से कोई काम पड़ जाये तो घी का एक चौथाई कनस्तर (चार किलो का टिन डिब्बा) भेंट स्वरुप पहुंचा देना एक शिष्टाचार सा था अथवा बहुत से लोग जिनके ‘धिनाली’ (दूध-दही का घर में इन्तजाम) नहीं होती थी, तो शाक- सब्जी ही पेश कर देते थे. इस प्रकार ऊपरी कमाई पर कभी कोई चर्चा सुनने को नहीं मिलती थी.
पचार गाँव की बसावट सीढ़ीनुमा जगहों पर तलहटी से काफी ऊपर आम पहाडी गाँवों की तरह ही ‘बाखलियीं’ (मकान की कतारों) में थी. मकान बांज, फल्यांठ और नाशपाती-दाड़िम के झुरमुटों से घिरे नजर आते थे. गाँव का पानी का श्रोत (नैसर्गिक धारा ) मकानों से काफी नीचे था. पानी भर कर ले जाने के लिए महिलाओं को ताम्बे के भरे गागरों को सर में रख कर लाना होता था. कष्टकर तो था, पर ये भी आदत में आता था. तब कोई विकल्प सोचा भी नहीं गया था. वर्तमान में पुरानी बसावट नीचे सुविधाजनक स्थानों में स्थानान्तरित हो गयी है. घरों में जलदाय विभाग की ओर से नल भी लग गए हैं हालाँकि पानी की सप्लाई में अकसर व्यवधान रहता है.
भावनात्मक रूप से पटवारी परिवार कुछ ‘सुपीरियर’ हो गया था. मनोरथ पांडे ने बाखली से भी ऊपर अलग स्थान पर अपना नया खोली वाला घर बना लिया. उनको ‘नकुडिया’ (यानि नए मकान वाले) कहा जाने लगा, लेकिन पानी भर कर लाने की समस्या ड्योढ़ी हो गयी. पटवारी जी ने अपना दिमाग लगाया और खड़िया -कमेट वाली अपने पूरे पहाड़ का सर्वे करके लगभग डेढ़ मील दूर, ऊंचाई पर पानी का एक श्रोत जंगल में खोज लिया. उन दिनों न नल थे, न पम्प थे, और न नाली बनाने के लिए सीमेंट उपलब्ध था. पटवारी जी ने सोमेश्वर से चार ‘ओड़’ (पत्थर तरासने वाले कारीगर) बुलवाए और पानी के स्रोत से लेकर आपने घर के लम्बे टेढ़े-मेढे घुमावदार पहाड पर पत्थरों के धारे बनाकर जोड़ते हुए पानी ले आये. तब ये वास्तव में एक दुष्कर कार्य था. किसी चमत्कार से कम नहीं था. कारीगरों ने ६ महीनों में ये काम पूरा किया. हालांकि रूपये भी खूब खर्च हुए, पर पटवारी जी अपने प्रयोजन से बहुत खुश थे.
इस पहाड़ की मिट्टी कच्ची-चिकनी थी. बरसात आई तो कई जगहों पर धंस गयी या खिसक गयी, तथा पत्थर-धारा भी कई जगहों पर बिखर गयी. साल-दो साल तक तो उन्होंने उसे ठीक करवाने की कोशिश की, पर बार बार मरम्मत नहीं हो पाती थी. जंगल में चरने वाले जानवर भी आये दिन धाराओं को तोड़ जाते थे. पटवारी जी का ये परियोजना एकदम फेल हो गई. आज भी कटे हुए पत्थरों के धारे कहीं कहीं पहाड़ी पर बिखरे मिल जाते हैं.
मनोरथ पटवारी का कुनबा बड़ा था. भाई-भतीजे थे, और उनका एक बेटा भी था, नाम था बंशीधर पांडे. बंशीधर ने अपनी पहली पत्नी को किन्ही कारणों से त्याग दिया और कपकोट से एक ‘नौली’ औरत को लाकर पत्नी के बतौर रख लिया. गाँव बिरादरी वाले दकियानूसी, परम्परावादी और कट्टर धर्मान्ध थे. उन को ये बर्दाश्त नहीं हुआ और पटवारी परिवार को जाति बाहर कर दिया. पटवारी जी सकुटुम्ब नैनीताल आ गए और आधुनिकता की भीड़ में खो गए. बाद में एक बार उनके कुटुम्बी जनो में से दो लोग गाँव के दौरे पर ये जताने के लिए आये कि ‘हम तुम से अच्छी स्थिति में है’. वे घोड़ों पर सवार होकर, सर पर अंग्रेजी टोप, और अंग्रेजों का जैसा लिबास पहन कर अनोखे अंदाज में आये थे.
पचार गाँव आज भी अपनी जगह है. गाँव में अब अनेक विधाओं के पढ़े लिखे लोग, स्नातक-परास्नातक, डॉक्टर, इंजीनियर और अध्यापक हैं. पूरे कुमाऊं की तरह यहाँ के पढ़े लिखे लोग भी मैदानी भाग को पालायन कर गए हैं. गाँव में वही लोग अटके बचे हुए हैं, जो बाहर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं, अथवा जिनका ब्राह्मण वृत्ति से अच्छा गुजारा हो जाता है. उनकी जजमानी आज भी दूर दूर तक फ़ैली है.
मनोरथ पांडे अंग्रेजों के जमाने में पटवारी थे. पटवारी बहुत बड़े इलाके का हाकिम होता था. तब एकीकृत अल्मोड़ा जिला काफी लंबा चौड़ा था. पिथोरागढ़, चंपावत और बागेश्वर को तहसील का दर्जा भी प्राप्त नहीं था. पटवारी यद्यपि राजस्व विभाग का बड़ा अधिकारी नहीं होता था, उसे मात्र २५ रूपये माहवार वेतन मिला करता था, लेकिन उसकी जिम्मेदारी बहुत बड़ी होती थी. राजस्व पुलिस व प्रशासनिक कार्यों में भी उसका दखल होता था. पटवारी तो पटवारी, उसका चपरासी जिसे सटवारी कहते थे उसके भी बड़े रुतबे होते थे. आम ग्रामीण उनसे भय खाते थे. ग्राम प्रधान तो इनकी खुट्टेबर्दारी करने को मजबूर होते थे. मालगुजारी वसूलने का कमीशन उनको मिला करता था. फौजदारी मामलों में मुलजिम को हथकड़ी पहनाकर जेल भेजने का अधिकार पटवारियों को होता था.
मनोरथ पांडे मिडिल पास थे. अल्मोड़ा में उनके बुआ-फूफा रहते थे. फूफा जी कर्मकांडी ब्राह्मण थे; जिला कलेक्टर के कर्यालय में उनकी चूल्हे की जड़ तक पहुँच थी. उन्ही के सद्प्रयास से मनोरथ को ये नौकरी मिली थी.
बागेश्वर से धरमघर मार्ग में सनेती एक खास स्थान रहा है, जहाँ तब एक प्राइमरी पाठशाला थी शायद वह टिन की छत वाली बिल्डिंग तथा लंबा चौड़ा खेल का मैदान आज मी वहां मौजूद होगा. पचार गाँव यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है. कुछ किलोमीटर दक्षिण में कांडा है, जो अपने समय में मिडिल तक की शिक्षा का जाना माना केन्द्र था. दूर दूर से लड़के यहाँ आते थे. मिडिल यानी सातवीं कक्षा पास करके अध्यापकी के लिए ट्रेनिंग करके नौकरी पा जाते थे. डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के अध्यापकों को शुरुआती वेतन ७ रूपये मासिक मिला करता था. इस लिहाज से भी पटवारी का पद अध्यापकों से काफी ऊपर समझा जाता था.
पचार गाँव के पण्डित अपना पुश्तैनी पुरोहिती का धंधा किया करते थे/आज भी करते हैं. दूर कपकोट, बागेश्वर व उत्त्तर पूर्व के गाँवों में उनके स्थाई जजमान थे. गाँव के निकट हथरसिया में एक संस्कृत की पाठशाला भी थी, जहाँ लड़कों को कर्मकांड सम्बन्धी व्यवहार भी सिखाया जाता था. गाँव बड़ा था जिसमें तब लगभग ७५ घर ब्राह्मणों के तथा ३० घर शिल्पकारों के हुआ करते थे. यों पचार एक पारंपरिक अलसाया हुआ गाँव था. गाँव में एक पटवारी का तब अभ्युदय होना एक महत्वपूर्ण घटना थी. जैसा कि आजकल यदि गाँव का कोई बच्चा आई..ए.एस. की परीक्षा पास कर जाये तो गर्व की बात होती है.
उन दिनों घूसखोरी का बदनाम कारोबार नहीं होता था. छोटे स्तर पर पटवारी-अमीन से कोई काम पड़ जाये तो घी का एक चौथाई कनस्तर (चार किलो का टिन डिब्बा) भेंट स्वरुप पहुंचा देना एक शिष्टाचार सा था अथवा बहुत से लोग जिनके ‘धिनाली’ (दूध-दही का घर में इन्तजाम) नहीं होती थी, तो शाक- सब्जी ही पेश कर देते थे. इस प्रकार ऊपरी कमाई पर कभी कोई चर्चा सुनने को नहीं मिलती थी.
पचार गाँव की बसावट सीढ़ीनुमा जगहों पर तलहटी से काफी ऊपर आम पहाडी गाँवों की तरह ही ‘बाखलियीं’ (मकान की कतारों) में थी. मकान बांज, फल्यांठ और नाशपाती-दाड़िम के झुरमुटों से घिरे नजर आते थे. गाँव का पानी का श्रोत (नैसर्गिक धारा ) मकानों से काफी नीचे था. पानी भर कर ले जाने के लिए महिलाओं को ताम्बे के भरे गागरों को सर में रख कर लाना होता था. कष्टकर तो था, पर ये भी आदत में आता था. तब कोई विकल्प सोचा भी नहीं गया था. वर्तमान में पुरानी बसावट नीचे सुविधाजनक स्थानों में स्थानान्तरित हो गयी है. घरों में जलदाय विभाग की ओर से नल भी लग गए हैं हालाँकि पानी की सप्लाई में अकसर व्यवधान रहता है.
भावनात्मक रूप से पटवारी परिवार कुछ ‘सुपीरियर’ हो गया था. मनोरथ पांडे ने बाखली से भी ऊपर अलग स्थान पर अपना नया खोली वाला घर बना लिया. उनको ‘नकुडिया’ (यानि नए मकान वाले) कहा जाने लगा, लेकिन पानी भर कर लाने की समस्या ड्योढ़ी हो गयी. पटवारी जी ने अपना दिमाग लगाया और खड़िया -कमेट वाली अपने पूरे पहाड़ का सर्वे करके लगभग डेढ़ मील दूर, ऊंचाई पर पानी का एक श्रोत जंगल में खोज लिया. उन दिनों न नल थे, न पम्प थे, और न नाली बनाने के लिए सीमेंट उपलब्ध था. पटवारी जी ने सोमेश्वर से चार ‘ओड़’ (पत्थर तरासने वाले कारीगर) बुलवाए और पानी के स्रोत से लेकर आपने घर के लम्बे टेढ़े-मेढे घुमावदार पहाड पर पत्थरों के धारे बनाकर जोड़ते हुए पानी ले आये. तब ये वास्तव में एक दुष्कर कार्य था. किसी चमत्कार से कम नहीं था. कारीगरों ने ६ महीनों में ये काम पूरा किया. हालांकि रूपये भी खूब खर्च हुए, पर पटवारी जी अपने प्रयोजन से बहुत खुश थे.
इस पहाड़ की मिट्टी कच्ची-चिकनी थी. बरसात आई तो कई जगहों पर धंस गयी या खिसक गयी, तथा पत्थर-धारा भी कई जगहों पर बिखर गयी. साल-दो साल तक तो उन्होंने उसे ठीक करवाने की कोशिश की, पर बार बार मरम्मत नहीं हो पाती थी. जंगल में चरने वाले जानवर भी आये दिन धाराओं को तोड़ जाते थे. पटवारी जी का ये परियोजना एकदम फेल हो गई. आज भी कटे हुए पत्थरों के धारे कहीं कहीं पहाड़ी पर बिखरे मिल जाते हैं.
मनोरथ पटवारी का कुनबा बड़ा था. भाई-भतीजे थे, और उनका एक बेटा भी था, नाम था बंशीधर पांडे. बंशीधर ने अपनी पहली पत्नी को किन्ही कारणों से त्याग दिया और कपकोट से एक ‘नौली’ औरत को लाकर पत्नी के बतौर रख लिया. गाँव बिरादरी वाले दकियानूसी, परम्परावादी और कट्टर धर्मान्ध थे. उन को ये बर्दाश्त नहीं हुआ और पटवारी परिवार को जाति बाहर कर दिया. पटवारी जी सकुटुम्ब नैनीताल आ गए और आधुनिकता की भीड़ में खो गए. बाद में एक बार उनके कुटुम्बी जनो में से दो लोग गाँव के दौरे पर ये जताने के लिए आये कि ‘हम तुम से अच्छी स्थिति में है’. वे घोड़ों पर सवार होकर, सर पर अंग्रेजी टोप, और अंग्रेजों का जैसा लिबास पहन कर अनोखे अंदाज में आये थे.
पचार गाँव आज भी अपनी जगह है. गाँव में अब अनेक विधाओं के पढ़े लिखे लोग, स्नातक-परास्नातक, डॉक्टर, इंजीनियर और अध्यापक हैं. पूरे कुमाऊं की तरह यहाँ के पढ़े लिखे लोग भी मैदानी भाग को पालायन कर गए हैं. गाँव में वही लोग अटके बचे हुए हैं, जो बाहर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं, अथवा जिनका ब्राह्मण वृत्ति से अच्छा गुजारा हो जाता है. उनकी जजमानी आज भी दूर दूर तक फ़ैली है.
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