शुक्रवार, 31 मई 2013

पचार गाँव की कहानी

(गाँव वालों की जुबानी)
मनोरथ पांडे अंग्रेजों के जमाने में पटवारी थे. पटवारी बहुत बड़े इलाके का हाकिम होता था. तब एकीकृत अल्मोड़ा जिला काफी लंबा चौड़ा था. पिथोरागढ़, चंपावत और बागेश्वर को तहसील का दर्जा भी प्राप्त नहीं था. पटवारी यद्यपि राजस्व विभाग का बड़ा अधिकारी नहीं होता था, उसे मात्र २५ रूपये माहवार वेतन मिला करता था, लेकिन उसकी जिम्मेदारी बहुत बड़ी होती थी. राजस्व पुलिस व प्रशासनिक कार्यों में भी उसका दखल होता था. पटवारी तो पटवारी, उसका चपरासी जिसे सटवारी कहते थे उसके भी बड़े रुतबे होते थे. आम ग्रामीण उनसे भय खाते थे. ग्राम प्रधान तो इनकी खुट्टेबर्दारी करने को मजबूर होते थे. मालगुजारी वसूलने का कमीशन उनको मिला करता था. फौजदारी मामलों में मुलजिम को हथकड़ी पहनाकर जेल भेजने का अधिकार पटवारियों को होता था.

मनोरथ पांडे मिडिल पास थे. अल्मोड़ा में उनके बुआ-फूफा रहते थे. फूफा जी कर्मकांडी ब्राह्मण थे; जिला कलेक्टर के कर्यालय में उनकी चूल्हे की जड़ तक पहुँच थी. उन्ही के सद्प्रयास से मनोरथ को ये नौकरी मिली थी.

बागेश्वर से धरमघर मार्ग में सनेती एक खास स्थान रहा है, जहाँ तब एक प्राइमरी पाठशाला थी शायद वह टिन की छत वाली बिल्डिंग तथा लंबा चौड़ा खेल का मैदान आज मी वहां मौजूद होगा. पचार गाँव यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है. कुछ किलोमीटर दक्षिण में कांडा है, जो अपने समय में मिडिल तक की शिक्षा का जाना माना केन्द्र था. दूर दूर से लड़के यहाँ आते थे. मिडिल यानी सातवीं कक्षा पास करके अध्यापकी के लिए ट्रेनिंग करके नौकरी पा जाते थे. डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के अध्यापकों को शुरुआती वेतन ७ रूपये मासिक मिला करता था. इस लिहाज से भी पटवारी का पद अध्यापकों से काफी ऊपर समझा जाता था.

पचार गाँव के पण्डित अपना पुश्तैनी पुरोहिती का धंधा किया करते थे/आज भी करते हैं. दूर कपकोट, बागेश्वर व उत्त्तर पूर्व के गाँवों में उनके स्थाई जजमान थे. गाँव के निकट हथरसिया में एक संस्कृत की पाठशाला भी थी, जहाँ लड़कों को कर्मकांड सम्बन्धी व्यवहार भी सिखाया जाता था. गाँव बड़ा था जिसमें तब लगभग ७५ घर ब्राह्मणों के तथा ३० घर शिल्पकारों के हुआ करते थे. यों पचार एक पारंपरिक अलसाया हुआ गाँव था. गाँव में एक पटवारी का तब अभ्युदय होना एक महत्वपूर्ण घटना थी. जैसा कि आजकल यदि गाँव का कोई बच्चा आई..ए.एस. की परीक्षा पास कर जाये तो गर्व की बात होती है.

उन दिनों घूसखोरी का बदनाम कारोबार नहीं होता था. छोटे स्तर पर पटवारी-अमीन से कोई काम पड़ जाये तो घी का एक चौथाई कनस्तर (चार किलो का टिन डिब्बा) भेंट स्वरुप पहुंचा देना एक शिष्टाचार सा था अथवा बहुत से लोग जिनके ‘धिनाली’ (दूध-दही का घर में इन्तजाम) नहीं होती थी, तो शाक- सब्जी ही पेश कर देते थे. इस प्रकार ऊपरी कमाई पर कभी कोई चर्चा सुनने को नहीं मिलती थी.

पचार गाँव की बसावट सीढ़ीनुमा जगहों पर तलहटी से काफी ऊपर आम पहाडी गाँवों की तरह ही ‘बाखलियीं’ (मकान की कतारों) में थी. मकान बांज, फल्यांठ और नाशपाती-दाड़िम के झुरमुटों से घिरे नजर आते थे. गाँव का पानी का श्रोत (नैसर्गिक धारा ) मकानों से काफी नीचे था. पानी भर कर ले जाने के लिए महिलाओं को ताम्बे के भरे गागरों को सर में रख कर लाना होता था. कष्टकर तो था, पर ये भी आदत में आता था. तब कोई विकल्प सोचा भी नहीं गया था. वर्तमान में पुरानी बसावट नीचे सुविधाजनक स्थानों में स्थानान्तरित हो गयी है. घरों में जलदाय विभाग की ओर से नल भी लग गए हैं हालाँकि पानी की सप्लाई में अकसर व्यवधान रहता है.

भावनात्मक रूप से पटवारी परिवार कुछ ‘सुपीरियर’ हो गया था. मनोरथ पांडे ने बाखली से भी ऊपर अलग स्थान पर अपना नया खोली वाला घर बना लिया. उनको ‘नकुडिया’ (यानि नए मकान वाले) कहा जाने लगा, लेकिन पानी भर कर लाने की समस्या ड्योढ़ी हो गयी. पटवारी जी ने अपना दिमाग लगाया और खड़िया -कमेट वाली अपने पूरे पहाड़ का सर्वे करके लगभग डेढ़ मील दूर, ऊंचाई पर पानी का एक श्रोत जंगल में खोज लिया. उन दिनों न नल थे, न पम्प थे, और न नाली बनाने के लिए सीमेंट उपलब्ध था. पटवारी जी ने सोमेश्वर से चार ‘ओड़’ (पत्थर तरासने वाले कारीगर) बुलवाए और पानी के स्रोत से लेकर आपने घर के लम्बे टेढ़े-मेढे घुमावदार पहाड पर पत्थरों के धारे बनाकर जोड़ते हुए पानी ले आये. तब ये वास्तव में एक दुष्कर कार्य था. किसी चमत्कार से कम नहीं था. कारीगरों ने ६ महीनों में ये काम पूरा किया. हालांकि रूपये भी खूब खर्च हुए, पर पटवारी जी अपने प्रयोजन से बहुत खुश थे.

इस पहाड़ की मिट्टी कच्ची-चिकनी थी. बरसात आई तो कई जगहों पर धंस गयी या खिसक गयी, तथा पत्थर-धारा भी कई जगहों पर बिखर गयी. साल-दो साल तक तो उन्होंने उसे ठीक करवाने की कोशिश की, पर बार बार मरम्मत नहीं हो पाती थी. जंगल में चरने वाले जानवर भी आये दिन धाराओं को तोड़ जाते थे. पटवारी जी का ये परियोजना एकदम फेल हो गई. आज भी कटे हुए पत्थरों के धारे कहीं कहीं पहाड़ी पर बिखरे मिल जाते हैं.

मनोरथ पटवारी का कुनबा बड़ा था. भाई-भतीजे थे, और उनका एक बेटा भी था, नाम था बंशीधर पांडे. बंशीधर ने अपनी पहली पत्नी को किन्ही कारणों से त्याग दिया और कपकोट से एक ‘नौली’ औरत को लाकर पत्नी के बतौर रख लिया. गाँव बिरादरी वाले दकियानूसी, परम्परावादी और कट्टर धर्मान्ध थे. उन को ये बर्दाश्त नहीं हुआ और पटवारी परिवार को जाति बाहर कर दिया. पटवारी जी सकुटुम्ब नैनीताल आ गए और आधुनिकता की भीड़ में खो गए. बाद में एक बार उनके कुटुम्बी जनो में से दो लोग गाँव के दौरे पर ये जताने के लिए आये कि ‘हम तुम से अच्छी स्थिति में है’. वे घोड़ों पर सवार होकर, सर पर अंग्रेजी टोप, और अंग्रेजों का जैसा लिबास पहन कर अनोखे अंदाज में आये थे.

पचार गाँव आज भी अपनी जगह है. गाँव में अब अनेक विधाओं के पढ़े लिखे लोग, स्नातक-परास्नातक, डॉक्टर, इंजीनियर और अध्यापक हैं. पूरे कुमाऊं की तरह यहाँ के पढ़े लिखे लोग भी मैदानी भाग को पालायन कर गए हैं. गाँव में वही लोग अटके बचे हुए हैं, जो बाहर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं, अथवा जिनका ब्राह्मण वृत्ति से अच्छा गुजारा हो जाता है. उनकी जजमानी आज भी दूर दूर तक फ़ैली है.
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बुधवार, 29 मई 2013

चींटी ने कहा

मैं भी तुम्हारी तरह ही एक सामाजिक प्राणी हूँ. मैं आकार में बहुत छोटी जरूर हूँ पर मेरा परिवार आपके परिवारों से कई गुना बड़ा होता है. हमारे परिवार की मुखिया एक ‘रानी माँ’ होती है. हम सब चीटियाँ उसकी सेवा में रात-दिन व्यस्त रहती हैं क्योंकि वह हम सब की जननी है. इसके अलावा परिवार के लिए भोजन इकट्ठा करना हमारा एकसूत्री कार्यक्रम होता है. जहाँ कहीं मीठी चीज, पकवान, फल, अनाज के दाने या घी-मक्खन-मिठाई पड़े रहते हैं, हम उसकी तलाश में रहती हैं. भगवान ने हमको ऐसी घ्राण शक्ति दी है कि हम उसे दूर से ही पकड़ लेती हैं और फिर दलबल सहित कतार में पहुँच कर अपनी खाद्य सामग्री को टुकड़े टुकड़े करके अपने घर लेकर आती हैं. अगर सामग्री बड़ी हुई, काटी पीटी नहीं जा सके, तो सब मिलकर उसे उठा कर या घसीट कर खींच लाती हैं.

विश्व भर में हमारी कई प्रजातियां हैं कुछ बड़ी लाल या काली दीखने वाली लड़ाकू, जहरीली प्रजातियां बहुत खतरनाक होती हैं. अधिकांश प्रजातियां मांसाहारी होती हैं. तुमको ये जानकार आश्चर्य होगा कि हमारी विभिन्न प्रजातियों/कुनबों में आपसी दुश्मनी होती है, और मौक़ा मिलते ही सामनेवालों को टुकड़ों में काट कर मार डाला जाता है. यहाँ "माईट इज राईट" वाली बात चलती है.

हमारा घर जमीन की दरारों में बहुत गहरे खोद खोद कर गुफाओं जैसा बनाया जाता है या मोटे मोटे पेड़ों के खोखली जड़-तनों के कोटरों में या बड़े पत्थर-शिलाओं के नीचे अथवा आपके घरों की दीवारों की दरारों में ऐसे स्थान पर होते हैं, जहाँ हमारा परिवार बारिश के पानी से सुरक्षित रह सके. अगर रानी माँ को लगता है कि जगह सुरक्षित नहीं है तो बरसात का पूर्वाभास होते ही स्थान्तरण करना पड़ता है. इस स्थानांतरण में हमें बहुत परेशानी होती है क्योंकि परिवार के सभी अण्डों-बच्चों को को भी उठाकर ले जाना पड़ता है.

अपने बारे में मैं कुछ मजेदार बातें तुमको बताना चाहती हूँ कि हमारे परिवार में केवल मादाएं होती हैं और रानी माँ ‘क्लोनिंग’ के तरीके से हम सब को जन्म देती रहती है. हम चींटियाँ चौबीसों घन्टे जागती रहती हैं. नींद के नाम पर चौबीस घंटों में कई बार चलते चलते झपकी ले लेती हैं. हम जब भी घर के बाहर निकलती हैं तो अपने पीछे एक गन्ध छोडती जाती हैं ताकि वापसी में भटकना नहीं पड़े.

शायद तुमको ये भी ठीक से मालूम नहीं होगा कि हम चीटियाँ ‘द्विज’ होती हैं. द्विज का अर्थ है, दो बार जन्म लेने वाला. हिंदुओं में जिन लोगों को उपनयन संस्कार (जनेऊ) से संस्कारित किया जाता है, वे अपने आपको द्विज कहते हैं. उनका मानना है कि उपनयन संस्कार से उनका ज्ञानार्थी के रूप में दूसरा जन्म होता है. लेकिन मैं तुमको बताना चाहती हूँ कि सचमुच के द्विज तो वे हैं जिनको एक ही जीवन में दो बार यानि पहले अण्डे के रूप में और फिर कीट-प्राणी के रूप में जन्म मिलता है. बहुत से कीट, मच्छर, चिड़िया, कछुआ, मगर मच्छ, सरी-सृप व मछली आदि प्राणी पहले अण्डे में फिर समयांतर पर अण्डे से बाहर निकलते हैं.

इसी सन्दर्भ में प्रकृति की अनोखी माया यह भी है कि कंगारू का भ्रूणशिशु माँ के गर्भ से निकल कर बाहर आने के बाद कई महीनों तक माँ के पेट के बाहर बने थैले में विकसित होता है. असल द्विज तो हम होते हैं.

हमारी जनसंख्या के आंकड़े आज तक कोई इकट्ठे नहीं कर पाया है, लेकिन ये बात पक्की है कि विश्व भर में हमारी संख्या इंसानों से ज्यादा ही होगी.

बहुत से परभक्षी, जैसे कि, चिडिया, मेंढक, छिपकलियाँ व चींटीखोर जानवर हमारे बड़े दुश्मन हैं. वे हमारे कुनबे को चट करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं. कहते हैं कि हमारे इस छोटे से शरीर से उनको बहुत सारा प्रोटीन मिल जाता है. मुझे यह कहते हुए खुशी हो रही है कि मनुष्य समाज में ऐसे बहुत से दयावान लोग हैं, जो हमारे जीवन के बारे में भी सोचते हैं और आटा-अनाज-चीनी के मिश्रण देकर ज़िंदा रहने में मदद करते हैं.

आत्म रक्षा के लिए हमारे पास एक  ही हथियार होता है कि हम दुश्मन को अपने छोटे से जबड़े से पकड़ कर काट लें, या अगर डंक वाली प्रजाति के हों तो डंक मार कर विरोध कर लेते हैं. दुश्मन को डंक से जलन होती है क्योंकि डंक में जहरीला रसायन होता है. बहुत से लोग यह भी मानते हैं कि चींटी के काटने से हाथी जैसा बड़ा जानवर भी मर जाता है.

जीवन तो नश्वर होता है. जब हमारा अन्तिम समय आता है तो हमारे भी पँख निकल आते हैं और हम उड़कर पञ्च तत्व में विलीन हो जाते है. इति.
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सोमवार, 27 मई 2013

नेहरू जी की पुण्यतिथि

२७ मई १९६४ के दिन मैं ट्रेन से बड़े सवेरे जयपुर पँहुच गया था. मैं उन दिनों ‘लाखेरी सीमेंट कामगार बहुधंधी सहकारी समिति' का अवैतनिक महामंत्री भी था. सोसाइटीज के रजिस्ट्रार के कार्यालय में अपने विधान में संशोधन कराने के लिए कागजात पेश करने थे. मैं रात की ट्रेन से सवाईमाधोपुर, फिर वहाँ से मीटर गेज ट्रेन से (तब जयपुर को सीधे ब्रॉड-गेज रेलवे लाइन नहीं हुआ करती थी.) मैं सुबह ४ बजे जयपुर रेलवे स्टेशन पहुँच गया था. वहाँ से पैदल ही पुराने विधायक निवास, जहां अब, पास में शहीद स्मारक बना हुआ है, हमारे विधायक स्व. हरिप्रसाद शर्मा का कमरा था, पहुँच गया. वहाँ नहा धो कर मैं ९ बजे बाद मिर्जा इस्माइल रोड की तरफ बढ़ गया. पाँच बत्ती से आगे मेन रोड पर एक कॉफी हाउस हुआ करता था, जहाँ की कॉफी व दक्षिण भारतीय पकवानों का आनन्द लेते हुए साहित्यिक मनीषी बैठ कर घंटों मानसिक विलास किया करते थे. इसी कॉफी हाउस के दुमंजिले में हमारे कोऑपरेटिव सोसाइटीज के रजिस्ट्रार का कार्यालय हुआ करता था. साढ़े दस बजे के बाद मुश्किल से आधे घन्टे में मैं अपना काम खत्म कर पैदल ही जौहरी बाजार की तरफ चल पड़ा.

जौहरी बाजार में ‘हल्दियों के रास्ते’ में मेरे एक सुहृदय मित्र श्री सुभाष जैन (मैनेजर, ई.एस.आई) का पुश्तैनी घर था. उनके पिता स्व. सुगनचंद जैन व माता जी बहुत आत्मीयता रखने वाले लोग थे. मैं उनसे पहले भी मिल चुका था, और उनसे मिलना चाहता था. गर्मी भी उन दिनों बेहद पड़ रही थी अत: ये भी सोच रहा था कि दिन में विश्राम उनके घर पर ही करूँगा. मेरी  वापसी ट्रेन शाम ५ बजे की थी.

ज्यों ही मैं जौहरी बाजार में दाखिल हुआ तो एक जीप से घोषणा होने लगी कि प्रधानमन्त्री जवाहरलाल जी का देहावसान हो गया है. दुकानों के शटर बन्द होने लग गए, सब तरफ मनहूस खामोशी पसरने लगी. लोग अलग अलग समूहों में जमा होने लगे. सभी उदास थे. अधिकाँश आँखें नम थी. मैं भी असहाय सा होकर इस अप्रत्याशित दुखद समाचार से सन्न रह गया था.

मैंने सन १९५८ में नेहरू जी को केवल एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट्स फैकल्टी के सभागार में बहुत नजदीक से देखा था, उनका उजास आभामंडल मुझे अभी भी याद है. वे तत्कालीन राजनैतिक आकाश के बड़े सितारे थे, हर दिल अजीज थे. ये विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे मर भी सकते हैं.

मैं जैन परिवार से मिला, वहाँ भी मातम था, उस दिन उनके घर खाना नहीं बना. भूखा रहने का कोई मलाल भी नहीं था क्योंकि हमारे प्रिय नेता नहीं रहे थे. आज बहुत से छुटभय्ये नेता राष्ट्रीय/ अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर उनके द्वारा लिए गए अनेक निर्णयों की आलोचना कर सकते हैं, पर सच्चाई ये है कि वे बेहद मानवीय आचार वाले राष्ट्रभक्त  नेता थे.

शाम वाली गाड़ी से मैं लौट आया, अगले दिन सब लोग रेडियो/ट्रांजिस्टरों पर उनकी अन्तिम यात्रा का हाल सुनने के लिए चिपके रहे. गाँधी जी की ह्त्या के बाद ये दूसरा बड़ा सदमा लगा था. कुछ लोगों का यह भी कहना था कि अगर चीन भारत की पीठ पर दोस्ती की आड़ में छुरा नहीं घोंपता तो नेहरू जी इतनी जल्दी नहीं जाते. पर मौत को तो कोई बहाना चाहिए

वे महामानव थे. आज उनकी पुण्यतिथि पर एक बार पुन: विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है.
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शनिवार, 25 मई 2013

रॉबिन रानी

अब शहरों में सीमेंट के पक्के मकानों में चिड़ियों की रिहाइश नहीं रही क्योंकि घरों में उनके लिए कोई ‘कोटर’ नहीं छोड़े जाते हैं. हमारे शहर के कुछ पर्यावरण प्रेमियों ने पिछले ‘गौरैय्या दिवस’ पर कुछ खास किस्म के लटकने वाले लकड़ी के डिब्बे घोसलों के लिए लोगों में बांटे थे, पर ये तो एक दस्तूर जैसा था.

गौरैय्या व कबूतर जैसी घरेलू चिडिया इंसानों के नजदीक रह कर सुरक्षित महसूस करती होंगी क्योंकि उनको बस्तियों में चारा-पानी भी उपलब्ध रहता है. कुछ कचरे में तथा कुछ चारा-पानी दान करने वाली प्रवृत्ति के लोगों द्वारा बिखेरा रहता है. मेरी माँ चिड़ियों तथा गिलहरियों को अपने भोजन में से बचाकर कुछ अन्न जरूर डाला करती थी. उनकी मान्यता थी कि ‘क्या पता अगले जन्म में उनको भी बेजुबान पक्षी की योनि में जाना पड़े?’

मेरे वर्तमान घर से लगभग पन्द्रह किलोमीटर उत्तर में कुमाऊं की शिवालिक पर्वत श्रंखला है. नैनीताल शहर भी इसी पर बसा है. बहुत सी छोटी चिडिया सर्दियों में बर्फीली ठण्ड से बचने के लिए नीचे मैदानी हिस्सों में आ जाती हैं. जहाँ भी उनको आश्रय मिलता है वहीं सर्दियाँ काट कर गर्मियां शुरू होते ही पहाड़ों की तरफ लौट जाती हैं. हल्द्वानी में मई-जून में दिन का पारा चालीस के आसपास हो जाता है.

मेरे आँगन की चौहद्दी में मैंने अपनी पसंद के कुछ पौधे लगाए थे, जो अब पेड़ की शक्ल में आ गए हैं, इनमें एक छायादार दालचीनी, एक नीबू, एक संतरा, एक अमरुद का पेड़ है. एक कोने में रात की रानी और मालती की मिलीजुली झाड़ी सी बन गयी है, दो लाल गुलाब की घनी डालियों वाली झुरमुट व एक गुड़हल की डाली. इन सभी वनस्पतियों में तितलियों की खूब आवक रहती है. ये तितलियाँ विशेषकर बसंत के आगमन पर नई कोपलों व पत्तों पर अपने अण्डे छोड़ जाती हैं, जो धीरे धीरे इल्लियां बनती जाती हैं, और पत्तों को चट करने लगती हैं. ये इल्लियां चिड़ियों को खूब आकर्षित करती हैं, और उनका प्रिय भोजन बन जाती हैं. इसलिए बहुत कम इल्लियां तितली बन पाती हैं.

पिछली चार सर्दियों से मैं देखता आ रहा हूँ कि एक रॉबिन चिड़िया का जोड़ा मेरे आँगन में नियमित रूप से हर साल मेहमान बन कर आता रहा है. ये रॉबिन मटमैली सी गौरैय्या के आकार की होती है, बड़ी फुर्तीली पर लड़ोकनी भी. लड़ोकनी इस परिपेक्ष्य में कि किसी और के अपने अहाते मे घुसपैठ होने पर उस पर टूट पड़ती है, भगा कर ही मानती है. मैं और मेरी श्रीमती इनके लिए चारे तथा मिट्टी के चौड़े बर्तन में साफ़ पानी का इंतजाम करके रखते हैं. जब ये आ जाती हैं तो ऐसा लगता है कि जाड़ों की छुट्टियां बिताने हमारे पास आ गई हों. मैंने देखा है कि रात होने पर ये जोड़ा गैरेज के शटर के ऊपर संकरी सी जगह पर दुबक कर बैठ जाता है; दिनभर आंगन में फुदक फुदक कर लुका-छिपी सी किया करता है. मैंने ये भी देखा कि काले चींटों और मच्छरों को पकड़कर खाने में इनको विशेष आनन्द आता है.

पिछले साल इन्होंने मालती की झाड़ी में अपना घोसला बनाने की प्रक्रिया शुरू की थी, लेकिन किसी परभक्षी पक्षी ने उसे तोड़ डाला. कौवे, बाज व मांसाहारी चिडिया दूसरी चिड़ियों का घोसला टटोलती रहती हैं. सांप भी चिड़ियों का बड़ा दुश्मन है. मेरे घर के नजदीक एक खाली प्लॉट पर पुरानी गोशाला है, जिसमें नेवलों का एक भरापूरा परिवार रहता है. नेवले सापों को मार डालते हैं. खाने की खोज में मेरे आँगन में इन नेवलों का भी आवागमन रहता है इसलिए यहाँ साँपों का खतरा कम रहता है.

पिछले महीने अप्रेल की शुरुआत में मैंने एक दर्दनाक हादसा देखा. हमारे तुलसी के गमले की आड़ में एक बिल्ली बैठी थी, जिसने घात लगाकर रॉबिन चिड़े को दबोच लिया और लेकर चम्पत हो गयी. इस तरह रॉबिन रानी के विधवा होने का हमको बड़ा सदमा लगा क्योंकि ये काण्ड नजरों के सामने हुआ था रोबिन रानी भी इस अप्रत्याशित दुखदाई घटना की प्रत्यक्षदर्शी रही थी. अपनी मन:स्थिति को तो मैं शब्दों में बयान कर सकता हूँ, पर बेचारी रॉबिन रानी पर क्या बीत रही थी, यह सोच सोच कर कई दिनों तक बेचैन रहा.

रॉबिन रानी की सारी चपलता खो गयी. वह डरी हुई रहने लगी. उसे चारा करते हुए भी हम नहीं देख पा रहे थे. इस सँसार में बहुत सी ऐसी बातें हैं, जिन पर हम प्राणियों का कोई वश नहीं होता है; हम केवल संवेदनशील होकर दु:ख या अफ़सोस प्रकट कर पाते हैं. मैं रॉबिन रानी पर पूरी निगरानी रख रहा था. वह अकेली सहमी सहमी रहती थी. वातावरण में गर्मी की आहट आ चुकी थी, उसे अब तक हर वर्ष की तरह पहाड़ों की तरफ लौट जाना चाहिए था पर वह गयी नहीं. ठीक एक महीने के बाद वह उसी स्थान पर मृत पड़ी दिखाई दी, जहाँ पर उसका प्रियतम बिल्ली का निवाला बना था. शायद वह उसकी विरह-वेदना नहीं सह पायी थी.
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गुरुवार, 23 मई 2013

लीची

(चित्र सौजन्य treepicturesonline.com)
हमारी हल्द्वानी में उत्तराखंड की सबसे बड़े कृषि उपज मंडी है. बारहों महीने यहाँ गहमा-गहमी रहती है. अनाज व सब्जियों के साथ ही मौसमी फलों की बहार रहती है. अब आम की फसल आने वाली है, पर स्थानीय लीची बाजार में बहुतायत से आ चुकी है. कहते हैं कि अगर आम फलों का राजा है तो लीची फलों की रानी है.

लीची का सदाबहार पेड़ स्ट्रॉबेरी परिवार का है. बसंत के आगमन के साथ इनमें बौर आ जाता है, फूलों के गुच्छे फलों में परिवर्तित हो जाते हैं. मध्य मई में ये फल लाल होने लगते हैं, यह इनके पकने की सूचना भी होती है. गुठली वाला खुरखुरे छिलके वाला फल मीठे गूदेदार होता है, इसमें हल्की खटास भी रहती है. ये सफ़ेद गूदा शर्करा, विटामिन सी व पोटेशियम तत्वों से भरपूर होता है; तासीर में शीतल होता है.

लीची समशीतोष्ण जलवायु में होती है. भारत, चीन बांग्ला देश, पाकिस्तान, मलेशिया, इण्डोनेशिया, थाईलैंड, वियतनाम, ताईवान, फिलीपींस व दक्षिण अफ्रीका में खूब पैदा होती है. इसका मूल दक्षिणी चीन में माना जाता है. दस्तावेजों में दो हजार साल पहले इसकी वहां उपस्थिति दर्ज है.

लीची बहुत गुणकारी फल है. इसमें सेचुरेटेड फैट्स होते हैं; फाईबर की मौजूदगी के कारण मोटापा व वजन कम करने में सहायक बताया गया है. ब्रेस्ट कैंसर से लड़ने के गुण भी इसमें बताए जाते हैं. विटामिन सी रोग प्रतिरोधात्मक शक्तियों को बढ़ाता है.

बहुत से फल अपनी डाल से टूटने के बाद पकते हैं और उनका स्वाद बदल जाता है, लेकिन लीची का फल अगर कच्चा तोड़ा गया तो कच्चा ही रह जाएगा. इसका भंडारण भी ३ डिग्री सेंटीग्रेड के आसपास में करना होता है और ६० दिनों तक कोल्ड स्टोर्स में रखा जा सकता है. आजकल वैज्ञानिक तौर तरीकों से इसके गूदे से बने अनेक उत्पाद लम्बे समय तक सुरक्षित रखे जाते हैं,  जैसे जैम, रस, शरबत, स्क्वैश आदि. बाजार में इसकी आईसक्रीम भी उपलब्ध रहती है.

नैनीताल के आसपास के क्षेत्रों में रामनगर की लीची सर्वश्रेष्ट मानी जाती है, जिसमें गूदा खूब होता है और गुठली बहुत छोटी होती है. लीची की गुठली गहरे भूरे रंग की होती है ये किसी प्रयोग में नहीं आती है, हाँ इससे नए पौधे तैयार किये जाते हैं.

सचमुच लीची प्रकृति द्वारा हमको दी गयी एक अनुपम सौगात है.
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मंगलवार, 21 मई 2013

सावित्री मन्दिर

दुर्गालाल राजपूत के नाम में ‘सिंह’ नहीं जुड़ा क्योंकि वह एक दासी का बेटा था. उसका बाप बृजराज भी उसी की तरह पिछली पीढ़ी का ‘गोला-बाँदा’ था.

वह जब छोटा था तो उसे इन रिश्तों की कोई समझ नहीं थी और राजमहल की जनानी ड्योढ़ी की दासियों व उनके खैरख्वाह हिजडों की जो दुनिया उसने देखी थी, उसमें ‘दूध का रिश्ता’ केवल माँ तक ही सीमित रहा. बाकी बातें तो उसकी समझ में बहुत बाद में आई कि उसकी माँ रानी जी के साथ उनके दहेज के साथ उनके पीहर से आई थी. जिस तरह जनानी ड्योढ़ी की अन्य जवान दासियों की शादी की रस्में हुई उसी तरह उसकी माँ को भी एक दिन बृजराज के गले बाँध दिया गया था. ये कोई नई बात भी नहीं थी. सब राजा जी की मर्जी चलती थी.

अब तो राजपाट सब खत्म हो गए हैं. उसको याद है कि राजा जी के आदेश पर ही उसे  कम्पाउंडर की ट्रेनिंग के लिए इन्दौर भेजा गया था. तब वह भी यही सोचता था कि राजा जी तो सबके बाप होते हैं. जब बाहर की दुनिया में जाकर उसने खुला आसमान देखा और अन्दर की बातों का मनन किया तो उसे लगा कि वह गुलाम है. रही सही कसर एक ऐतिहासिक उपन्यास, आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा लिखित ‘गोली’ ने पूरी कर दी. इस उपन्यास में राजा-रानियों के अन्तरंग इतर प्रेम सम्बन्धों तथा हरम के अन्दर के दास-दासियों के किस्से वर्णित हैं. इस उपन्यास को वह एक साँस में आद्योपांत पढ़ गया और इसे पढ़ने के बाद उसके शंकालु मन में बहुत मैल उफन आया. उसे अपनी माँ से भी नफरत सी हो गयी. यद्यपि उसको ये जुमला याद था कि ‘माता कभी भी कुमाता नहीं होती है’ वह ये भी सोचता है कि उसका कसूर भी क्या था? वह ऐसे पिंजड़े में पैदा हुई थी, जिसमें पंछी के पर नहीं उगते थे.

उसको बृजराज पर बड़ा रहम आता था. वह उसे ‘बेचारा’ लगता था. वह तो गुलामों का भी गुलाम था. शायद उसके पुरुषत्व ने उसे कभी झकझोरा भी नहीं था. वह एक अनपढ़ चाकर की तरह राजा जी की खैरात पर पलता था.

एक स्थिति ऐसी आ गयी कि दुर्गालाल ज्यों ज्यों अपने बारे में सोचता जाता था, उसके मुँह में कसैला थूक जमा हो जाता था. उसका मन करता था कि परशुराम की तरह फरसा उठा कर तमाम राजपूत राजाओं का वंशनाश कर दिया जाय. कई बार वह अपने आप को ‘हरामी’ कह कर गाली भी दे लेता था.

वह रियासत द्वारा संचालित अस्पताल में काम करता था और पुराने किले के बाहरी हिस्से में बने सरकारी आवास में अकेला रहता था. उसके व्यवहार-बातों के कारण लोग उसे ‘अधपगला’ भी कहने लगे. उसकी मानसिक स्थिति सामान्य नहीं थी. इसी तुफैल में वह कुंवारा भी रह गया. उसकी बूढ़ी माँ हमेशा उसकी चिंता किया करती थी. उसकी ये हालत क्यों हो रही है वह कभी समझ नहीं पाई. उसने ‘जानकारों’ तथा ज्योतिषियों से टोटके भी करवाए, पर उसे तो झाड़-फूँक वाली बीमारी नहीं थी. वह प्रलाप किया करता था, और बिना नाम लिए ही अपशब्द-गालियाँ निकाला करता था.

दुर्गालाल की सोच के ठीक उलट राजा जी बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के विद्वान पुरुष थे. अपने राज्याभिषेक की स्वर्ण जयन्ती पर उन्होंने अपने दरबारियों एवँ निकट सम्बन्धियों को कई प्रकार के सम्मान व उपहार प्रदान करने के लिए भव्य समारोह आयोजित किया. इस समारोह में जब उन्होंने दुर्गालाल की माँ सावित्री को बहन व बृजराज को बहनोई के रूप में नवाजा तो प्रत्यक्षदर्शी दुर्गालाल के अन्दर सालने वाले सारे कांटे अचानक झड़ गए. उसके लिए ये एक बड़ा चमत्कार था. उसे अपनी विकृत मानसिकता पर बहुत अफसोस होने लगा. लोगों ने महसूस किया कि वह अब सामान्य हो गया है. सचमुच इस अधेड़ उम्र में जाकर उसके अंतर्द्वंद समाप्त हो गए. वह सभी धार्मिक अनुष्ठानों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने लगा.

आज दुर्गालाल बहुत बूढ़ा हो चला है. उसके माता-पिता दोनों बरसों पहले इस दुनिया से जा चुके हैं. उसने अपनी माँ के नाम पर बस्ती से दूर एक टीले पर ‘सावित्री मन्दिर’ बनवाया है. नित्य क्षमा याचना करते हुए उसका स्मरण किया करता है. इस मन्दिर का इतिहास जाने बगैर ही सौभाग्यवती स्त्रियाँ पूजा अर्चना करके आशीर्वाद लिया करती हैं.

काषाय वस्त्र और कंठीमाला धारण किया हुआ दुर्गा बाबा हर आने जाने वाली महिला मे अपनी माँ का प्रतिरूप देखा करता है.
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रविवार, 19 मई 2013

ठलुआ पंचायत - ५

आज की बैठक ‘क्रिकेट मैचों में फिक्सिंग की बीमारी’ पर सदस्यों के विचार जानने के लिए आहूत की गयी थी. उपस्थिति २१ थी.

न. १ : साथियों, देश का सर एक बार फिर शर्म से झुक गया है. भ्रष्टाचार के मामलों में हमने क्रिकेट जैसे ‘जेंटिलमैन खेल’ को भी नहीं छोड़ा. क्रिकेट को टुच्चे खिलाड़ियों और लुच्चे सटोरियों ने बेमजा कर दिया है.

न. ९ : इस क्रिकेट ने पूरे देश को बर्बाद कर के रख छोड़ा है. शहर शहर जाकर जो अर्थदोहन हो रहा है, उसका सहज में अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. देश के बड़े बूढ़े ही नहीं, हर नौजवान एक तरह से एडिक्ट सा होकर सब काम छोड़, स्टेडियम पहुँच जाता है, और लुटा-पिटा लौट कर घर आता है. कुल मिला कर देश की अर्थव्यवस्था पर इसका दूरगामी कुप्रभाव होगा.

न. ४ : साम्यवादी देशों में, यहाँ तक कि अमेरिका तथा बहुत से यूरोपीय देशों में, क्रिकेट नहीं खेली जाती क्योंकि इससे लाखों-करोड़ों जन-कार्यदिवसों हानि होती है. आप केवल उन लोगों की बात कर रहे हैं जो स्टेडियम में जाकर समय बर्बाद करते हैं, लेकिन इसका सीधा प्रभाव घरों के ड्राईंगरूम व बेडरूम तक पड़ता है. लोग मैच के दौरान समस्त जरूरी काम छोड़ कर टी.वी. पर केंद्रित हो जाते हैं. बिजली की खपत बढ़ जाती है, जिसका खामियाजा परोक्ष रूप से पूरे राष्ट्र को भुगतना पडता है.

नं ६ : इस खेल को आज के समय में पूरी तरह बन्द तो नहीं किया जा सकता है, लेकिन जिस तरह से खिलाड़ियों पर नीलामी बोली लगाकर खरीदा जा रहा है और उनकी टीम बना कर मैदान में उतारा जा रहा है यह बहुत गलत सिस्टम है. आई.पी.एल. की स्पर्धाओं को तो अगले साल से बिलकुल बन्द किया जाना चाहिए.

न. १० :ये ललित मोदी के दिमाग की खुराफाती उपज थी और जब उस पर करोड़ों रुपयों की अनियमितताओं का मामला उजागर हुआ तो देश छोड़कर इंग्लेंड में जा बैठा है. आई.पी.एल. की पैदाईश ही भ्रष्टाचार से हुई है.

न. ६ : अपने देश के सारे तन्त्र भ्रष्ट और बेईमान से लगने लगे हैं. जाली टिकट बिकते हैं, टिकटों की कालाबाजारी होती है. बी.सी.सी.आइ., क्रिकेट व्यवस्थापकों/टीम के ठेकेदारों की इस रकम से मौज और ऐश जग जाहिर है. ये बड़ी दुखदाई स्थिति है.

न. ८ : आपने भूतपूर्व क्रिकेटर और बी.जे.पी. के सांसद सिद्दू का बयान भी मीडिया की सुर्ख़ियों में सुना-पढ़ा होगा? वे तो खुले में बोले हैं, "देश की पार्लियामेंट जब फिक्सिंग की दागी है तो आई.पी.एल. को ‘पापी’ क्यों कहा जा रहा है."

न. ३ : सचमुच ये विचारणीय बात है. ऐसा लगता है कि हम सब लोग कहीं ना कहीं अपने को भ्रष्टाचार में आत्मसात कर चुके हैं. केवल मीडिया के उछालने के बाद सक्रिय होते हैं.

न. १ : ये खेल अब व्यापार बन चुका है और व्यापार में उचित-अनुचित तरीकों से अधिक से अधिक रूपये कमाने की होड़ में खिलाड़ियों से लेकर सटोरिये तक सब अन्धी दौड़ में शामिल हो गए हैं. डी कम्पनी यानि दाऊद इब्राहीम जैसे अंतर्राष्ट्रीय दुर्दांत अपराधी/आतंकी का सीधा हाथ होने पर ये बहुत चिंता का विषय हो गया है. फिलहाल जिन खिलाड़ियों पर इनमें लिप्त होने के सबूत मिले हैं, उनको कड़ा दंड मिलना चाहिए ताकि औरों के लिये नसीहत हो.

न. २२ : आपकी बात से पूर्ण सहमति है. एक प्रस्ताव पास करके आई.पी.एल को बन्द करने की संस्तुति सरकार और बी.सी.सी.आई को भेजी जानी चाहिए.

सर्व सम्मति से कर्नल साहब की बात को स्वीकार किया गया और बैठक धन्यवाद के साथ समाप्त की गयी.
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शुक्रवार, 17 मई 2013

जीवन-प्रवाह

तब फूलों के
कलियों के
सपने आते थे,
झरने बहते थे,
हवा मे अठखेलियाँ हुआ करती थी,
मन का पंछी-
बिना गुदगुदाए मुस्काता था,
हंसता रहता था.
दूर क्षितिज के उस पार-
किसी  से तार जुड़े थे
अपनेपन के रिश्ते;
जिनकी मुझे प्रतीक्षा रहती थी .

फिर उजास, स्वर्णिम आभा में
तृण-बेल-लता-बृक्ष
रसीले, मधुर फलोच्छादित
कल्लोल करते चराचर और मैं,
अचानक पटाक्षेप .

अब सपनों में
पीला रेगिस्तान खुला है,
कैक्टसों की छाया है,
तपन है,
आँधी सी है,
जो कश्ती को बिना प्रयास खींचे जाती है
बड़े अगाध सागर की लहरों में –
लयबद्ध हिचकोले हैं,
ऐसा लगता है
दूर क्षितिज के उस पार-
एक ‘बड़ी रोशनी’ से तार जुड़े हैं
जो मेरी प्रतीक्षा में है.

यही है जीवन का सच
एक कहानी अनवरत,
पूरा पहिया घूम रहा है
उस ‘नेति’ शक्ति के इर्द.
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बुधवार, 15 मई 2013

चुहुल - ५०

(१)
डॉक्टरों की खराब लेखनी के बारे में यह मिथक बना हुआ है कि अपनी लिखाई कभी कभी वे खुद भी नहीं पढ़ पाते हैं, लेकिन कैमिस्ट/फार्मसिस्ट उसे आसानी से पढ़ लेते हैं.
एक युवती एक मेडीकल स्टोर पर खड़ी थी. भीड़ के कम होने का इन्तजार करती रही. जब सब चले गए तो उसने फार्मसिस्ट से याचना भाव से निवेदन किया कि “मेरे होने वाले पति एक डॉक्टर हैं. क्या आप उनके द्वारा मुझे भेजे गए इस प्रेमपत्र को पढ़ कर सुना देंगे?”


(२)
एक सिनेमा हॉल में पिक्चर देख रहे प्रेमी-प्रेमिका इस कदर बातें कर रहे थे कि बगल में बैठा दर्शक परेशान हो गया. वह उनकी तरफ मुखातिब होकर बोला, “क्या टांय-टांय करे जा रहे हो. सुनने भी नहीं दे रहे हो.”
इस पर प्रेमी बोला, “क्या आप हमसे कुछ कह रहे हैं?”
दर्शक बोला, “जी नहीं, मैं तो सामने के हीरो हीरोइन से कह रहा था कि वे आपकी मजेदार बातों को सुनने नहीं दे रहे हैं.”


(३)
एक अति पतिव्रता स्त्री बड़े आत्मविश्वास के साथ अपनी सहेली को बता रही थी, "हमारे ये तो बिलकुल शराब-दारू को छूते भी नहीं हैं. हाँ अगर कभी पीने का मन हुआ तो पहले मुझे बता देते हैं.”

(४)

एक रसिक कवि ने अपनी कवयित्री प्रेमिका को कई प्रेमपगी कविताओं का गुच्छा एक साथ भेजा और लिखा कि “ये रचनाएं मैंने तुम्हें समर्पित करते हुए लिखी हैं. ये किस प्रवाह में हैं, मैं खुद भी नहीं जानता हूँ. प्रिये, ये बताने का कष्ट करना कि ये किस धारा के अंतर्गत आती हैं.”
उत्तर आया, “आपकी रचनाओं को पढ़ कर मैं इस निष्कर्ष पहुंची कि ये सब गंगा की धारा के उपयुक्त हैं. अत: मैं अभी डाले दे रही हूँ.”

(५)
एक आदमी अपनी मस्ती में घोड़े पर सवार होकर शहर की तरफ जा रहा था. शहर के नजदीक सड़क के किनारे उसे एक आदमी मिला जो डिग्रियाँ बेच रहा था. आवाज लगा रहा था, “बी.ए. की डिग्री एक हजार में!”
घुड़सवार उतरा, और बोला, “एक दे दो.”
डिग्री बेचने वाला बोला, “क्या नाम लिखूं?”
घुड़सवार ने कहा, “अनपढ़ सिंह.”
ज्यों ही वह घोड़े पर सवार होकर जाने लगा तो डिग्री बेचने वाले ने फिर आवाज लगाई, “एम.ए. की डिग्री दो हजार!”
घुड़सवार ने उससे कहा, “एक एम.ए. की डिग्री भी दे दो.”
“आपका ही नाम लिखूं?” डिग्री बेचने वाले ने पूछा.
अनपढ़ सिंह ने कहा, “नहीं, इसमें ‘चंदू’ नाम लिखना.”
“ये चंदू कौन है?” उसने पूछा.
अनपढ़ सिंह बोला, “मेरा घोड़ा.”
डिग्री बेचने वाले को बड़ा आश्चर्य हुआ उसने पूछ लिया “घोड़े के नाम की डिग्री क्यों बनवा रहे हैं?”
अनपढ़ सिंह ने कहा, “लोग देख सकेंगे कि एक एम. ए. पास के ऊपर बी.ए. पास शान से बैठा है.”
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सोमवार, 13 मई 2013

अशोक महात्म्य - २

भारतवर्ष के इतिहास में ईसा से लगभग ३०० वर्ष पहले एक कल्याणकारी शासक हुए जिनको अशोक महान के नाम से जाना जाता है. वे मौर्य वंश के राजा थे. अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाते हुए जब उन्होंने कलिंग के युद्ध में नरसंहार देखा तो इतने द्रवित हो गए कि इसके बाद उन्होंने कोई युद्ध नहीं किया और अहिंसा के पुजारी हो गए. उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया. उनके द्वारा स्थापित अशोक स्तंभ का चक्र आज भी हमारा राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह है.

इतिहास में उनसे पूर्व या बाद में इसी नाम के कई और लोग भी अवतरित हुए हैं, लेकिन आधुनिक भारत में जिन अशोक नाम के व्यक्तियों का जिक्र मिलता है उनमें सर्वप्रथम सदाबहार फिल्म अभिनेता पद्म भूषण स्व. अशोक कुमार गांगुली उर्फ दादामुनि (१९११-२०००) का ख़याल आता है, जो हर सिनेमा दर्शक के दिलों पर राज किया करते थे.

हर गली मोहल्ले में तलाश करने पर अनेक स्वनामधन्य अशोक उपलब्ध रहते हैं. यह नाम अभी तक बहुत चलन में रहा है. अशोक कुमार, अशोक सिंह, अशोक लाल, अशोक चन्द्र आदि विविध उपनामों से सुसज्जित पाए जाते हैं. हिन्दी साहित्य के मनीषियों में अशोक चक्रधर, अशोक पानि, अशोक धर, अशोक शर्मा आदि अनेक अशोक नाम्नी हैं. इसी क्रम में व्यंग्य लेखक अशोक सन्ड को कैसे भूला जा सकता है

वर्तमान राजनैतिक पटल पर राजस्थान के मुख्यमन्त्री अशोक गहलौत अपना अलग व्यक्तित्व रखते हैं.

एक बड़ी ऑटोमोबाइल कम्पनी अशोक लेलैंड में कार्यरत सीनियर एक्जेक्यूटिव ए.के.नरुला सिर्फ ए.के. के नाम से पुकारे जाते हैं, पर उनकी बूढ़ी माताश्री उनको ठेठ लायलपुरी लहजे में शोक्की ही पुकारा करती है.

मेरे फेसबुक पर अलग अलग उपनामों वाले ५-७ अशोक नामों के मित्र हैं, जब मैंने किसी विशिष्ट के लिए सर्च किया तो मुझे फेसबुक रजिस्टर में सैकड़ों अशोक उपस्थित मिले. केवल हिन्दी क्षेत्रों में ही नहीं धुर दक्षिण व पूर्व के राज्यों में भी यह नाम आज बहुत प्रचलित व ग्राह्य है.

अशोक महान के नाम पर अशोक मार्ग (दिल्ली), विभिन्न शहर-कस्बों में अशोक विहार कालोनियां, अशोक वन, व  अशोक होटल  देखे जा सकते हैं. जयपुर के सी-स्कीम इलाके में एक मार्ग अशोक मार्ग कहलाता है, जिसमें दोनों तरफ अशोक वृक्षों की कतारें खड़ी हैं. पश्चिमी मध्य प्रदेश का शहर अशोक नगर अपनी अनाज मंडी के लिए प्रसिद्ध है.
 ये अशोक महिमा अपरम्पार है.
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रविवार, 12 मई 2013

अशोक महातम्य - १

मेरे घर के पिछवाड़े, दक्षिण की तरफ मेरे पड़ोसी ने कतार में अनेक अशोक वृक्ष लगा रखे हैं. ग्रीष्म के दिनों में तेज गर्म हवाओं का सामना करते हुए इनके सुन्दर हरे पत्तों की सरसराहट बहुत प्यारी लगती है. सुबह सुबह खिड़की पर से इन अशोक वृक्षों के दर्शन से सुखद अनुभूति भी होती है.

हमारी धार्मिक मान्यताएं हैं कि अशोक वृक्ष रोग, शोक और विघ्न हरण करने वाला होता है. आम या अशोक के पत्तों का वन्दनवार लगाने के पीछे यह विचार होता है कि इनके पत्ते नकारात्मक ऊर्जा पर रोक लगाए रखती है. इन सब मान्यताओं के परे भी पर्यावरण को शुद्ध करने में ये घने छायादार वृक्ष अपना महत्वपूर्ण कार्य करते हैं. वास्तुशास्त्र वाले भी घर की चौहद्दी में अशोक वृक्षों की अनुशंसा किया करते हैं.

अशोक के वृक्ष दो तरह के पाए जाते हैं. एक, जो आम-जामुन की तरह फ़ैली हुई शाखाओं के साथ बढ़ते हैं, दूसरा तिकोने पिरामिड की तरह अपनी शाखाओं को लटका कर सीधे सीधे ऊपर को जाते हैं. इनमें अपने मौसम के अनुसार सुनहरे फूल भी आते हैं. कई पुस्तकों में इनको 'हेमापुष्पा' नाम भी दिया गया है. इसे संस्कृत, हिन्दी व मराठी में अशोक, गुजराती में आसोपालव, बँगला में अस्पाल, ग्रीक-लेटिन में सराका इंडिका तथा हमारी अलग अलग प्रांतीय भाषाओं में विभिन्न नामों से पहचाना जाता है.

प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रंथों में अशोक के पत्तों व छाल में अनेक औषधीय यौगिक बताए गए हैं, जिनको आधुनिक विज्ञान ने भी प्रमाणित किया है कि इनमें हिमोटाक्सिलिन, टैनिन, कैटोरेस्टॉल और कार्बनिक कैल्शियम होते हैं. अशोकारिष्ट, अशोक के क्वाथ-आशव प्रदर आदि गर्भाशय सम्बन्धी विकारों में बहुत उपयोगी औषधि के रूप में जानी जाती है. प्राय: सभी आयुर्वैदिक फार्मेसीस इसका उत्पादन करती हैं.
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शुक्रवार, 10 मई 2013

महाकवि भूषण

अब से लगभग ३५० वर्ष पूर्व का समय हिन्दी साहित्य की कविताओं का ‘रीति काल’ कहा जाता है. इससे पूर्व का समय ‘भक्ति काल’ के नाम से जाना जाता है. जिसमें सूरदास, तुलसीदास, कबीरदास, रैदास आदि अनेक कवि हुए थे.

रीति काल के कवियों की विशेषता यह थी कि वे श्रृंगारिक रचनाएँ लिखा करते थे. उस काल में लिखी गयी अनेक पुस्तकें अनुपम श्रृंगारिक हैं. उस काल के प्रमुख तीन कवियों में बिहारी, केशवदास और भूषण का नाम आता है. लेकिन भूषण कवि इन सबसे अलग रचनाकार थे. इन्होंने समकालीन श्रृंगारिक काव्य धारा से अलग देशभक्तिपूर्ण और वीर रस से ओतप्रोत रचनाएँ भी लिखी. जिनमें रौद्र और वीभत्स रस भी है. उन्होंने वीर शिवाजी को अपना आदर्श बना कर ‘शिवराज भूषण,’ तथा  ‘शिवा बावनी,’ और पन्ना  नरेश की शान में  ‘छत्रसाल दशक’ जैसे अद्वितीय ग्रंथों की रचना की. सर्व प्रथम बृजभाषा में रचित उनकी कविताओं में उर्दू, अरबी व फारसी के शब्दों की भी भरमार है. उनकी कवित्त तथा सवैय्यों में सभी अलंकारों का बड़ा खूबसूरत प्रयोग मिलता है.

भूषण कवि वीर शिवाजी के पौत्र साहू जी के दरबारी कवि थे. साथ ही पन्ना नरेश छत्रसाल के कृपापात्र भी थे. राजा छत्रसाल उनके बड़े प्रशंसक थे. उनका बचपन का नाम घनश्याम था  ‘भूषण’ उपाधि उनको चित्रकूट के राजपुत्र रूद्र ने प्रदान की थी और वे इसी नाम से प्रसिद्धि पा गए. भूषण में काव्य प्रतिभा बचपन से ही थी.'हिन्दी साहित्य का इतिहास' लिखने वाले  आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का कहना है कि मतिराम और चिंतामणि दोनों कवि, भूषण के सगे भाई थे. 

भूषण के जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना का जिक्र अकसर आता है कि वे अपने आप को कविताओं में डुबोये रखते थे. कामधाम कुछ करते नहीं थे. एक बार भोजन में नमक कम होने पर उन्होंने रसोई में कार्यरत अपनी भाभी से नमक माँगा तो उसने उनके निठल्लेपन पर उलाहना देते हुए कुछ कह दिया. इस पर भूषण कवि भोजन छोड़ कर चल दिये. जब उनकी काव्य प्रतिभा पर खुश होकर राजा ने उन्हें एक लाख रूपये बतौर इनाम के दिये तो उन्होंने उस पूरी रकम का नमक खरीद कर बैल गाड़ियों की कतार में अपने गाँव तिकवापुर (कानपुर के निकट) भिजवाना शुरू कर दिया.

भूषण की कविताओं को हिन्दी की माध्यमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों पढ़ाया जाता है. उनकी कालजयी रचनाएँ आजीवन याद रहती है.

"इंद्र जिमी जम्भ पर, बाडव सु अम्भ पर..., तीन बेर खाती थी सो तीन बेर खाती हैं..., बिजन डुलाती थी वे, बिजन डुलाती है...," आदि मनमोहक रचनायें गुदगुदाती हैं. आज इतने वर्षों के बाद भी हम उस  महान रचनाकार को श्रद्धा से याद करते हैं.
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सोमवार, 6 मई 2013

कोटगाड़ी मन्दिर

महाकवि कालिदास की कथा में इस बात का विवरण है कि वे विवाह से पहले बुद्धू थे और राजपुत्री विद्योत्तमा से शास्त्रार्थ में हारे हुए विद्वानों ने चालबाजी से विद्योत्तमा का विवाह कालिदास से करवा दिया. शास्त्रार्थ मौन होना था. केवल इशारों से ही प्रश्न व उत्तर दिये जाने थे इसलिए विद्योत्तमा ने जब ‘ईश्वर एक है?’ के प्रश्न को एक अंगुली उठाकर पूछा तो कालिदास कुछ और ही समझ बैठे, और उन्होंने दो अंगुलियां उठाकर प्रत्युत्तर दिया; फिर क्या था? सभी पंडितों ने उनके समर्थान में तालियाँ बजा दी कि ‘ईश्वर के दो रूप होते हैं- एक ‘देव’ तथा दूसरी ‘देवी’.

सनातनी विश्वासों में ‘देवी’ के अनेक रूप व असंख्य नाम हैं, जिनको लोग श्रद्धा के साथ ध्याते हैं, पूजा अर्चना करते हैं. अनेक मन्त्र व सिद्धियाँ हैं, जिनसे लोगों का मानना है कि देवी प्रसन्न होती हैं.

हमारे ‘देवभूमि’ कहलाने वाले उत्तराखंड में एक विशिष्ट ‘कोकिला माता का मंदिर’ पिथौरागढ़ जिले की उपत्तिकाओं में स्थित है, जो ‘कोटगाड़ी’ के नाम से प्रसिद्ध है. यह स्थान थल से १२ किलोमीटर दूर है. बागेश्वर से धरमघर जाते हुए कांडा-कमेड़ीदेवी-पांखू से आगे पड़ता है. पेड़ों की झुरमुट में बना हुआ यह सुन्दर प्राचीन मंदिर सैकड़ों छोटे-बड़े घंटे-घण्टियों से सुसज्जित है. कहते है कि यहाँ कभी चोरी नहीं होती है.

कोकिला माता न्याय की देवी मानी जाती हैं. उनकी विशेषता यह है कि फरियादी अगर सच्चा है तो उसकी न्याय पाने की गुहार पर देवी माँ तुरन्त फैसला ले लेती है. अन्यायी को अवश्य प्राकृतिक रूप से दण्डित कर देती है. जिन असहाय लोगों लोगों के पास अदालती सबूत व गवाह अथवा खर्चा नहीं होता है, वे देवी की शरण में आकर मौखिक या लिखित अपनी बात पेश करते हैं.इस मंदिर की देवी के प्रताप की महिमा पूरे कुमाऊं प्रखंड में विश्वसनीयता के साथ मानी जाती है. इसलिए कोटगाड़ी का नाम लेते ही अन्यायी पक्ष भयभीत हो जाता है.

आज के इस वैज्ञानिक युग में जब मनुष्य चाँद-तारों व अन्य ग्रहों में जीवन की खोज कर रहा है, तो यह सब अविश्वसनीय सा लगता है, पर यह सच है कि इस मंदिर की देवी की महिमा लोगों की आस्थाओं पर खरी उतरती है. सैकड़ों उदाहरण लोगों के मुख से सुने जाते हैं कि कोकिला माता ने उनको न्याय दिलाया है.

मजेदार बात है कि पीड़ित पक्ष अन्यायी को सीधे सीधे चेतावनी देता है कि ‘वह कोटगाड़ी जाकर ‘घात’ डालेगा. सामने वाला उस बात की गंभीरता को समझता है. यह एक नैतिक नियम सा लगता है.

कोटगाड़ी मंदिर में वहीं के मदीगाँव के ग्रामवासी बारी बारी से पुजारी का काम करते आ रहे हैं. पिछले कुछ दशकों में जब सारे पहाड़ से अनेक कारणों से लोगों का पलायन हो गया है तो इसकी बयार वहाँ भी बहने लगी. रोजगार या बेहतर जीवन शैली की तलाश में काश्तकार तराई-भाबर में आ बसे हैं. नैनीताल और उधमसिंह नगर में लालकुआँ रेलवे स्टेशन से पंतनगर तक पूर्व में गौला नदी के पाट पर बिन्दुखत्ता एक बहुत बड़ा उपजाऊ क्षेत्र है. पहले यह एक बीहड़ जंगल होता था. पहाड़ से आकर पूरे इलाके में अब कब्जा करके लोग बस गए. पहले तो जंगलात विभाग वाले इन बाशिंदों को बहुत तंग करते थे, कानूनी कार्यवाही भी करते थे, पर अब उत्तराखंड की सरकार ने इनको वैधानिक दर्जा देते हुए नियमित करने की प्रक्रिया जारी की हुयी है. यद्यपि अभी भी बहुत सी नागरिक सुविधाओं की कमी है, पर वोट बैंक बड़ा होने के कारण लोगों को भविष्य में अच्छी उम्मीदें हैं. जिन लोगों ने जंगल काटकर खेत बनाए (यहाँ जंगली जानवर सांप- मच्छरों का आतंक था, और कहते हैं कि चोर उचक्के भी बहुत थे), अब उनके या उनके वंशजों के पक्के घर हैं. वे समृद्ध हैं, ट्यूब वेल, ट्रैक्टर, डिश-टी.वी., ट्रक, ये सब इसके सबूत के तौर पर साफ़ नजर आते हैं.

मुझे हाल में एक बारात में सम्मिलित होकर इस इलाके को देखने का अवसर मिला, तो देखा वहाँ एक छोटा सा लाल रंग का सुन्दर मंदिर बना है. शांतिपुरी( नम्बर दो ) के पीछे वाले बिन्दुखत्ता क्षेत्र में यह स्थित है. पूछने पर पता चला कि ये कोटगाड़ी (कोकिला देवी) का मंदिर है. एक पुजारी पहाड़ के गाँव से यहाँ आकर बस गया है, उसने ही इलाके वालों के सहयोग से इसकी स्थापना की है. इस स्थान की मान्यता भी वैसी ही बताई गयी है जैसी कि मूल कोटगाड़ी (पिथौरागढ़) की है. यह भी पता चला कि यहाँ का पुजारी अपनी बारी आने पर पहाड़ भी जाता है.

कलिकाल के ऐसे समय में जब हमारे पूरे देश में व्याप्त भ्रष्टाचार व अनाचार उजागर हैं, तो लगता है कि लोगों को देवी-देवताओं का बिल्कुल भय नहीं रहा है, लेकिन इस क्षेत्र में कोटगाड़ी (कोकिला मईया) का अक्षुण्य प्रभाव है वह स्वयम्भू है और अन्यायी को दण्ड देने में देर नहीं करती है.

 आस्थावान लोग मानते हैं कि ईश्वर का भय बना रहने से समाज में सदाचार कायम रहता है.

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रविवार, 5 मई 2013

लल्ली

नाम तो उसका लल्ली है, पर भाग्य ऐसा कि दरिद्र माँ-बाप के घर पैदा हुई. अभावों व कुपोषण के साथ पली जवानी की दहलीज में पहुँचने से पहले ही उसके बाप ने अपनी बराबरी वाले खानदान में उसकी शादी भी कर दी. एक टूटी झोपड़ी से निकल कर दूसरी टूटी झोपड़ी में आन पड़ी. पति भी मिला तो ऐसा कि सारे गाँव वाले उसे ‘निखट्टू’ नाम से जानते थे. दिन में कहीं कुली-मजदूरी करता भी था तो शाम होते होते कमाई की कच्ची दारू पी जाता. दारू पीकर तो वह बादशाह हो जाता था, चाहे बीवी भूखी रह जाये. यों लल्ली को कभी खाना नसीब होता था तो कभी सिर्फ उसकी गालियाँ ही खाकर सो जाती. वह अपने इस वातावरण की आदी हो चली थी.

सचमुच हमारे देश में आज भी दूर-दराज के अनेक गाँवों में गरीबों में अति गरीब, पिछडों में अति पिछड़े, बाहरी दुनिया तथा अपने अधिकारों से बेखबर नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं. उन पर बीमारियों और अंधविश्वासों की छाया रहती है. अस्मिता की बात कौन करता है? दो वक्त की सूखी रोटी की चिंता रहती है. भले ही सरकार ने गरीबों के हितार्थ बहुत से नियम-क़ानून बनाए हैं कि ‘कोई भूख से मरने ना पाए,’ ‘मनरेगा के तहत कम से कम एक सौ दिनों की काम मिलने की गारंटी हो, न्यूनतम मजदूरी मिले.’ लेकिन इन अनपढ़-अज्ञानी लोगों के लिए तो ये हवाई बातें हैं. बहुत सारे बिचौलियों से बचकर कर जो मिल जाये उसी में सन्तोष कर लेते हैं.

लल्ली बचपन से ही कुपोषित और बदसूरत थी. मरियल शरीर पर दो बड़ी बड़ी बाहर को निकली हुयी आँखें, मोटे मोटे होंठ लगता है कि वह जरूर थाइराइड से भी पीड़ित होगी, क्योंकि उसके शरीर में बढ़त बिलकुल नहीं थी. इन सारे दोषों मे उस बेचारी का भला क्या कसूर था?

ज्यादा शराब सेवन से उसके पति का लीवर खराब हो गया. पूरे शरीर में सूजन रहने लगी. ऐसे में एक दिन कहीं मुफ्त की मिल गयी थी तो जमकर पीकर आया और सुबह हमेशा के लिए सोता ही मिला. इसमें भी लल्ली का कोई कसूर नहीं था. फिर भी जाहिल गाँव वालों ने इसमें लल्ली के अन्दर विराजमान राक्षसी दोष नजर आने लगे. अब लल्ली के आगे पीछे कोई नहीं रहा, वह अकेले में बैठकर प्रलाप करती और अंधेरी कल्पनाओं में खोई रहती थी.

गाँव के नादान बच्चे उसे ‘पगली’ कह कर चिढ़ा जाते, पर वह कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं करती थी. खाने का इंतजाम न हो तो मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ जाती, कुछ लोग दातार भाव से, कुछ हिकारत से खाने का प्रसाद/चढ़ावा उसके आँचल में भी फैंक जाते.

एक दिन प्रधान जी की मरखनी भैंस उसके पीछे पड़ गयी और उसने अपने बचाव में एक लकड़ी उठाई तो पूरे गाँव में बात फ़ैल गयी कि ‘लल्ली ने भैंस को नजर लगा दी है, इसलिए भैंस का दूध कम हो गया है’

हद तो तब हो गयी जब पूरे गाँव के बच्चों में खसरा फैल गया,  जिसकी वजह से चार बच्चों की मौत भी हो गयी. गाँव में सनसनी फैला दी गयी कि लल्ली ‘चुड़ैल-डाकिनी’ है. यही बच्चों को खा रही है.

लल्ली की शक्ल डरावनी लगती है तो इसमें उसका क्या कसूर?

शैतान बच्चे उसकी तरफ पत्थर फेंक जाते हैं. कभी कभी उनको डराने के लिए उन्ही पत्थरों को बच्चों की तरफ वापस फेंक देती है तो इसमें सब लोगों को तकलीफ होने लगी. इस बार ग्राम पंचायत में यह विषय जोरशोर से उठाया गया और सब परेशानियों के लिए लल्ली-पगली-डाकिन को जिम्मेदार ठहराया गया. यहाँ तक कि वर्षा देर से होने की तोहमत भी लल्ली के सर आ गई. सिरफिरे लोगों ने लल्ली के साथ बहुत दुर्व्यवहार किये. उसको निर्वस्त्र करके जुलूस निकालने की बात होने लगी. किसी तरह ये खबर स्थानीय अखबार में छप गयी. जिले की महिला डी.एम. ने संज्ञान लेते हुए तुरन्त पुलिस भेजी. गाँव वालों को पाबन्द करते हुए लल्ली को गाँव से लाकर शहर में समाजकल्याण विभाग द्वारा संचालित नारी निकेतन में विशेष संरक्षण में रख दिया.

लल्ली गुमसुम रहती थी. हर अजनबी को शंका की नजर से देखती थी. नारी निकेतन के डॉक्टर ने जब सबके सामने कहा कि “लल्ली पागल नहीं है,” तो लल्ली रो पड़ी क्योंकि उसकी संवेदनाए पूरी तरह ज़िंदा थी. लल्ली की अच्छी देखभाल होने लगी और उसकी हालत बहुत सुधर गयी.
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शुक्रवार, 3 मई 2013

चुहुल - ४९

(१)
एक जटाजूट साधूबाबा मथुरा जाने वाली रेलगाड़ी के प्रथम श्रेणी डिब्बे में आ बैठे. टीटीई ने उनसे टिकट माँगा तो वे बोले, “टिकट नहीं है, बच्चा.”
“कहाँ जायेंगे?” टीटीई ने पूछा.
बाबा बोले, “जहाँ कृष्ण का जन्म हुआ था.”
टीटीई ने आर.पी.एफ. के दो जवान बुला लिए और बाबा को अगले स्टेशन पर अपने साथ उतारने को कह दिया. बाबा ने पूछा, “कहाँ लेकर जायेंगे हमको?”
सिपाही बोला, “जेल, जहाँ कृष्ण का जन्म हुआ था.”

(२)
एक दिन एक दंपत्ति के घर का दरवाजा खुला रह गया और मक्खियाँ अन्दर घुस आई. पत्नी ने देखा कि पति ने मक्खी मारने की कवायद शुरू कर दी है तो पूछा, “कितनी मक्खियाँ मार दी हैं?”
वे बोले, “दो नर और तीन नारी मक्खियाँ मार चुका हूँ.
पत्नी ने पूछा, “नर नारी की पहचान कैसे कर रहे हो?”
उन्होंने बताया, “दो बियर की बोतल को चाट रहे थे और तीन टेलीफून पर चिपकी बैठी थी.”

(३)
एक सज्जन सुबह सुबह कुत्ते को साथ लेकर घूमने निकले. रास्ते में एक पुराना परिचित मजाकिया दोस्त मिल गया.
दोस्त दूर से देखकर ही बोला, “इस गधे को कहाँ ले जा रहे हो?”
वे बोले, “गधा नहीं, ये कुत्ता है.”
दोस्त ने चुटकी ली, “मैं आपसे नहीं, कुत्ते से पूछ रहा हूँ.”

(४)
एक पार्टी में एक बेडौल-नखरैल अधेड़ उम्र की औरत अपनी नवेली बहू के साथ आमने सामने बैठी हुई थी. सास ने बहू से ज्यादा मेकअप किया हुआ था.
सास बोली, “वो देखो, एक आदमी मुझे बार बार घूर रहा है.”
बहू ने धीरे से कहा, “मैं उसको जानती हूँ. वह पुराने सामान खरीदने वाला कबाड़ी है.”

(५)
जिला अदालत में फैसला सुनाने से पहले जज साहब ने मुजरिम से पूछा, “तुम पहले भी कभी जेल गए हो?”
जेल शब्द सुनते ही मुजरिम घबरा गया और उसके आँसू निकल आये. रोते हुए बोला, “जी नहीं, मैंने कभी जेल नहीं देखा है.”
जज ने हमदर्दी भरे स्वर में कहा, “कोई बात नहीं, रोते क्यों हो? मैं तुम्हें अभी भेज देता हूँ.”
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बुधवार, 1 मई 2013

आत्मकथ्य

आज एक मई यानि मजदूर दिवस है और मेरा जन्मदिन भी. यह एक सँयोग ही है कि मैं अपने जीवन में एक लंबे समय तक श्रमिक संगठनों से जुड़ा रहा और श्रमिकों के हितार्थ समर्पित रहा. इसका मुझे आज भरपूर सन्तोष भी है.

कालचक्र अपनी नियमित गति से घूमता है. इतनी जल्दी ३६५ दिन निकल गए मालूम ही नहीं पड़ा. ऐसा लगता है कि कल ही की तो बात थी जब मैंने अपना ७४वें जन्मदिन का दीप जलाया था और अब ७५वां जन्मदिन भी आ गया. यह एक माइल स्टोन सा लगता है क्योंकि अब जीवन चतुर्थ प्रहर में प्रवेश होने जा रहा है. हम स्वस्थ भारतीयों की अधिकतम जीवन यात्रा ९० से १०० वर्ष के बीच तक हो सकती है. इस प्रकार अपने अन्तिम पड़ाव की तरफ एक कदम और बढ़ाने का अहसास हो रहा है.

वर्णाश्रम के अनुसार अब मुझे सन्यासी हो जाना चाहिए. अपनी सारी पारिवारिक व सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरी करके, अजातशत्रु रह कर, मैं किसी सन्यासी से कम नहीं हूँ, लेकिन माया-मोह अभी नहीं छूट पाए हैं.

मेरे आत्मकथ्य मुझे कहाँ कहाँ कल्पनाओं में विचरण करवा रहे हैं. मैं सशरीरी हो कर भी अपने सूक्ष्म शरीर को अंतरिक्ष में ले जाकर दूर से अपनी ही स्थिति को निहार रहा हूँ. मैं अपनी आँखें बन्द करके अपने शैशव के कोमल निष्पाप दिनों में लौटकर अपनी माँ की गोद और पिता के कन्धों पर बैठने के अप्रतिम सुख को प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा हूँ. यह मेरे आनन्द की चरम परिणति है.

यद्यपि यह शाश्वत सत्य है, पर मृत्यु कौन चाहता है? विज्ञान के चमत्कार भविष्य में मनुष्य को अमर कर देंगे, पर यह कल्पना अभी दूर की कौड़ी है. इसलिए मैं मोक्ष नहीं, पुरानी स्मृतियों के साथ पुनर्जन्म चाहूँगा.

मेरे एक राजस्थानी मित्र ने जोधपुर रियासत के एक भूतपूर्व नरेश का किस्सा सुनाया था कि एक बार महाराज हर वर्ष की तरह आखेट के लिए जंगल में गए. जब उन्होंने वहाँ की व्यवस्था करने वाले बूढ़े भीमा भील की झोपड़ी के बाहर पहुँचकर उसे आवाज दी तो अन्दर से एक नौजवान बाहर आया. उसने बताया कि वही भीमा भील है. एक अजूबी चिड़िया को मारकर, भून कर खाने से उसका कायाकल्प हो गया. वह जवान हो गया था. उसने नरेश से ये भी कहा कि वह उनके लिए भी उसी तरह की चिड़िया की तलाश करता रहा है, पर मिली नहीं.

ऐसे चमत्कारी गल्प मनोरंजन के लिए अच्छे ख़याल होते हैं. बहरहाल मैं किसी चमत्कारी चिड़िया के मांस या चमत्कारी ‘क्लोनिंग’ के लिए किसी प्रकार उत्कंठित नहीं हूँ.

आज इस मुकाम पर मैं उन सभी शुभाकांक्षियों को हार्दिक धन्यवाद देना चाहता हूँ जो कि इस अनवरत यात्रा में मेरे स्वस्थ शरीर, मन और मस्तिष्क के लिए शुभ कामना करते हैं.
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