बुधवार, 4 सितंबर 2013

चिन्तन - २

अनेक विकसित देशों की सरकारों ने अपने नागरिकों की सामाजिक सुरक्षा के लिए बहुत सी योजनाएं व नियम लागू की हुई हैं. जिनमें प्रमुखत: बीमार होने की दशा में ईलाज का पूरा खर्च बीमा कंपनियां/सरकार उठाती हैं. वृद्धावस्था के लिए धन जमा रखने की कोई जरूरत नहीं होती है क्योंकि सरकारी पेन्शन योजनाएं बेफिक्र होकर जीने के लिए भरोसा देती हैं. हाँ इसके लिए पहले अपनी कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा अपने अंशदान के रूप में सरकार को देना होता है.

सच तो यह भी है कि उन देशों की जनसंख्या चीन और भारत की तरह अरबों में नहीं है. हमारे देश में गड़बड़झाला ये है कि सब लोगों की ठीक से गिनती भी नहीं की जा सकती है. करोड़ों लोग ऐसे है, जिनका किसी हिसाब में नाम नहीं है. देश की बेढब भौगोलिक सीमाएं भी ऐसी हैं कि पडोसी मुल्कों के लोग लगातार घुसपैठ करते रहते हैं. ऐसे में सामाजिक सुरक्षा की गारंटी की बात बेमानी हो जाती है.

कुछ औद्योगिक संगठित क्षेत्रों में कर्मचारियों के लिए ग्रेच्युटी तथा भविष्य निधि जैसी कानूनी व्यवस्थाएं जरूर लागू है, पर जनसंख्या के अनुपात में ये ऊँट के मुँह में जीरे के सामान है.

पिछले कुछ दशकों में शहरी क्षेत्रों के जागृत लोगों ने मेडीक्लेम जैसी बीमा योजनाओं का महत्व समझा है और बीमार होने की दशा में इसका लाभ लिया जाता है. पर देश के आम आदमी को इसका कोई ज्ञान नहीं है. बीमा कंपनियों पर वैसे भी लोग कम ही भरोसा करते हैं क्योंकि अनुभव बताते हैं कि ‘गारंटी’ और ‘वारंटी’ में बहुत फर्क होता है. कई बार क्लेम लेते वक्त ग्राहक अपने को ठगा सा महसूस करता है.

हाँ, सेना के रिटायर्ड लोगों व उनके परिवार के लोगों के लिए भारत सरकार ने बहुत सी हिफाजती व्यवस्थाएं की हुई हैं. सेना के अपने विभागीय अस्पताल हैं. इसके अलावा दूर-दराज इलाकों में प्राइवेट अथवा राज्य सरकार के अस्पतालों को ‘पैनल हॉस्पिटल’ का दर्जा दिया हुआ है. इन प्राइवेट पैनल अस्पतालों में एक ही छत के नीचे काफी सुविधाएँ मिल जाती है, पर इन संस्थानों के प्रबंधन करने वाले, सैनिक परिवारों के ईलाज के नाम पर केन्द्रीय सरकार से अंधाधुंध पैसा वसूल रहे हैं. इस पर ध्यान देने की किसी को फुर्सत नहीं है. ये अपने तरह का अलग ही फूलप्रूफ रैकेट चल रहा है.

कहने को सरकारें अपने सभी छोटे बड़े अस्पतालों/मेडीकल कॉलेजों/इंस्टीटयुटों में तमाम सुविधाएँ व दवाएं निःशुल्क दे रही है, जिनका बजट लाखों-अरबों में होता है, पर हाल के वर्षों में ऑडिट रिपोर्टों में इस मद की खरीद फरोख्तों में भी बड़े बड़े घोटाले सामने आये हैं.

भ्रष्टाचार के महासागर से कानून की बाल्टी में सरकार के आम सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का ‘गंगाजल’ कैसे लिया जा सकता है, ये अभी तो दूर की कौड़ी लगती है, पर इस बारे में चिन्तन तो किया ही जा सकता है.
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