गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

ये क्या हो रहा है?

ये हमारे इलेक्ट्रोनिक मीडिया को क्या हो गया है? सुबह से शाम आसाराम-तमाशाराम की गन्दी कहानी को बेचा जा रहा है. अब लगभग एक महीना होने को आया गया है. मीडिया ट्रायल बंद हो जाना चाहिए था. अदालत/क़ानून को अपना काम करने देना चाहिए. चेनल्स की प्रतिस्पर्धाओं में इन्होने अब उन घटनाओं का नाट्य रूपांतरण करके भी दिखाना शुरू कर दिया है. इन गन्दी कहानियों का दुष्प्रभाव समाज पर विशेष कर मासूम बच्चों पर क्या पड़ रहा है, इस बात की चिंता किसी सामाजिक संस्था या सरकार को कतई भी नहीं है. देश-दुनिया में अच्छे लोग भी हैं. बहुत सी सुखद, उपदेशात्मक बातें/घटनाएं भी होती हैं, पर मीडिया ने केवल गन्दगी बिखेरना अपना धर्म बना लिया है क्योंकि इससे इनके विज्ञापन खूब बिक रहे हैं.

इसी तरह मनोरंजन करने वाली लगभग सभी चेनल्स फूहड़ता व द्विअर्थी अश्लील संवादों के जरिये क्या स्थापित करना चाहते हैं, ये समझ से परे है. ऐसा लगता है कि इन पर कोई लगाम नहीं है. कायदे से ये सब सेंसर होने चाहिए. अन्यथा ये सब हमारी भावी पीढ़ियों को पूरी तरह विकृत मानसिकता वाली बना कर छोड़ेंगी.

समाज को दिशा देने में सिनेमा का रोल भी बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन हमारे देश में हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं में जो चलचित्र दिखाए जा रहे हैं, उनमें एक से बढ़ कर एक भोंडापन व अश्लीलता का खुला प्रदर्शन हो रहा है. राष्ट्रीय चरित्र के सत्यानाश करने में इन व्यावसायिक मानसिकता वाले चलचित्रों का योगदान कम नहीं है. ये जो आज खुलेआम बलात्कार, दुराचार व लूट-डकैती हो रही है, इसकी बड़ी शिक्षा देने के लिए इन्हीं को जिम्मेदार ठहराया जाये तो सही होगा.

इस सम्पूर्ण विषय में एक गंभीर राष्ट्रीय नीति बनानी चाहिए. राजनैतिक दलों को लैपटाप, साडियाँ या साइकिलें बांटने के वादों के बजाय इस मिशन को अपने मैनिफेस्टो में प्रमुखता से जगह देनी चाहिए और अमल भी करना चाहिए. अन्यथा भविष्य में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जायेगी जिसके लिए हम अपने आप को माफ नहीं कर पायेंगे.
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2 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय पुरुषोत्तम पाण्डेय जी, पहले यह लोग संगठित नहीं थे। पर हमारी वर्तमान सरकार ने इन्हे सगठित कर मनमर्जी करने क़ी मानो छूट दे दी है। अगर हम लोग अब भी नहीं जागे तो बहुत देर हो जायेगी। बेहद अच्छे विषय पर विचारणीय आलेख आपका आभार।

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  2. लोगों के अपने हाथ में रिमोट कंट्रोल तो होता ही है। चैनल बदल क्‍यूं नहीं देते या टीवी देखना मुझे लगता है इतना आवश्‍यक नहीं है। क्‍या व्‍यक्ति-व्‍यक्ति में ये समझ नहीं है कि वो टीवी की बकवास देख ही क्‍यूं रहे हैं? वो बकवास चलचित्र देख ही क्‍यों रहे हैं? रही बात सरकार, सेंसर बोर्ड की तो कुछ दिन पहले आयी एक खबर के मुताबिक सेंसर बोर्ड में चलचित्रों को ओके कहने की जिम्‍मेदारी ऐसे लोगों के हाथों में हो जो कुछ महिलाओं से छेड़छाड़ और चोरी डकैती में संलिप्‍त रह चुके हैं। कुल मिला कर ये कहें कि यह सब कुछ सरकारी तंत्र को करना है लेकिन जब वहां पर नासमझ लोग बैठे हों तो जनता के अपने हाथों में अपने को ढालने की महत्‍वपूर्ण जिम्‍मेदारी है। जहां तक टीवी या चलचित्रों की बात है तो यह लोगों के हाथ ही में है कि वे इन्‍हें देखकर बढ़ावा देना चाहते हैं या इनकी अनदेखी कर समाज और खुद का भला करना चाहते हैं। मैं टीवी नहीं देखता। मेरे घर पर टीवी नहीं है।

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