सोमवार, 18 नवंबर 2013

बैठे ठाले - ९

वर्तमान में हमारे देश के राजनैतिक आकाश में कोई बड़ा ग्रह न होने की वजह से ज्यों काली रात में टिमटिमाते तारों के बीच एक प्रायोजित धूम्रकेतु नरेंद्र भाई मोदी के रूप में उदित हुए हैं, उनकी प्रतिभा व लच्छेदार भाषण शैली से प्रभावित होकर स्वरसाम्राज्ञी लता जी ने स्वाभाविक रूप से अपने उद्गार प्रकट किये कि ‘मोदी जी प्रधानमंत्री बने तो उनको खुशी होगी.’

संस्कृत में एक सत्य वचन वाक्य यो लिखा हुआ है ‘यस्मिन देशे द्रुमो नास्ति, अरंडियो अपि द्रुमायते.’ इसका अर्थ है जिस देश-प्रदेश में बड़े पेड़ नहीं होते हैं, वहाँ अरंड के पेड़ को ही बड़ा पेड़ कहा जाता है या समझा जाता है. इस वक्त जो नेतृत्त्व में खालीपन महसूस किया जा रहा है, ये वचन उस परिपेक्ष्य में भी फिट बैठते हैं.

बिलकुल भोली थी लता जी की प्रतिक्रया. वह कोई भगवान/भगवती नहीं हैं, इन्सान हैं. जैसा महसूस हुआ, कह डाला. इस पर महाराष्ट्र के एक कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता ने अपनी भड़ास निकाल डाली कि 'लता जी को सरकार द्वारा दिया गया सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न वापस कर देना चाहिए'. मानो ये उन्होंने लता जी को दान में दिया हो. ये एक महान कलाकार को कृतज्ञ देश द्वारा श्रद्धाभाव से अर्पित सम्मान है. नेता जी का आचरण बड़े शर्म और गैरत वाला है. हालाँकि कॉग्रेस पार्टी के आधिकारिक सूत्रों ने इसे गैर जरूरी बताया बताते हुए अपने को अलग कर लिया है.

राजनैतिक विद्वेष की जड़ में जाने पर मालूम हुआ कि उस व्यक्ति ने यह बात उस सन्दर्भ में चोटिल होकर कही थी, जब ठीक इसी भाषा में एक भाजपा के नेता ने ख्यातिप्राप्त नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री श्री अमर्त्य सेन के लिए कही थी कि उनको दिया गया भारत रत्न सम्मान वापस होना चाहिए. क्योंकि मोदी जी को भाजपा द्वारा अपने भावी प्रधानमंत्री के रूप में घोषित किया है. सेन साहब ने मोदी जी के साम्प्रदायिक चरित्र वाले भूतकाल और अहंकारी बड़बोलेपन पर अपनी प्रतिक्रया दी थी कि ‘जिस दिन मोदी प्रधानमन्त्री बनेंगे, वे देश छोड़ कर चले जायेंगे.’

ये सब अपने अपने व्यक्तिगत विचारों पर आधारित वक्तव्य हैं. हमारा देश एक लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले संवैधानिक आधार पर मजबूती से टिका हुआ है. इसलिए हिकारत भरे बचकाने वक्तव्यों को नजरअंदाज कर देना चाहिए.

ये सच है कि अभी देश की पूरी जनता लोकतंत्र झेलने के काबिल नहीं बन पाई है. गरीब व अमीर के बीच की खाई बहुत बड़ी है. भ्रष्टाचार हम सब (अपवादों को छोड़ कर) के जीवन का अभिन्न अंग बना हुआ है. जो लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने घरों के छतों पर माइक लगाकर दूसरों को कोस रहे हैं, वे खुद भ्रष्टाचार में गहरे तक डूबे हुए हैं.

आजकल चुनाव का मौसम है. विभिन्न राजनैतिक दलों की रैलियों में भिन्डी बाजार की भाषा में घटिया शब्दों में एक दूसरे पर आक्षेप लगाए जा रहे हैं. जो लोग इन विष के बीजों को बो रहे हैं, उनके लिए चेतावनी है कि इसकी फसल भी उनको ही काटनी पड़ेगी.

अरे, दुश्मनी करो, पर ऐसी नहीं कि फिर कहीं मुलाक़ात हो तो नजर भी न मिला सको.
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2 टिप्‍पणियां:

  1. जो भी हो गलती हाथ की ही है। शासन तो इन्‍हीं लोगों का रहा है देश पर इतने सालों से। तब ये किस आधार पर किसी और पर अपनी और अन्‍य राजनीतक दल की विकास के मामले में तुलना कर सकते हैं।

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  2. भाई साहब बड़े मौज़ू सवाल उठाएं हैं आपने जाले के तहत। इन बचकाने सेकुलर सियारों के बारे में यही कहना पर्याप्त होगा -तुलसी बुरा न मानिये जो सेकुलर कह जाए। जो लोग प्रजा तंत्र में लोगों की भावना का सम्मान नाहन कर सकते वे भले देश छोड़के चले जाएं। देश की अस्मिता किसी व्यक्ति की मोहताज़ नहीं रहती है। यहाँ कितने आये गए। आखिर किसी भी व्यक्ति को डेमोनॉइज़ करने का क्या मकसद है।

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