रविवार, 26 जनवरी 2014

पराशक्ति

मेरे अपने संस्कारों में परमात्मा नाम के सृष्टि रचियेता की उपस्थिति बाल्यकाल से ही रही है. घर में देवताओं की पूजा अर्चना अनेक स्वरूपों में हुआ करती थी और मैं पूर्ण समर्पण भाव से ईश्वर पर आस्था रखता था.

मेरे पैतृक गाँव गौरीउडियार (जो अब बागेश्वर जिला, उत्तराखण्ड में है) में एक बहुत बड़ी पौराणिक काल की प्रस्तर गुफा है, जिसे माता गौरी और भगवान शिव के मन्दिर के रूप में मान्यता दी गयी है. कल्याणकारी महादेव शिव अपने देवाय, दिव्याय, दिगम्बराय स्वरुप में मेरे अंतर्मन पर हमेशा विराजमान रहे. लेकिन जब मैं ३० वर्ष की उम्र पार कर गया नौकरी के सिलसिले में सुदूर दक्षिण में कर्नाटक राज्य में स्थानांतरित होकर गया तो मुझे अपने ट्रेड युनियन में कार्यरत साम्यवादी साथियों का सानिध्य प्राप्त हुआ. मैंने उसी दौरान कार्ल मार्क्स, एंजेल्स से लेकर माओवादी साहित्य का भी गहन अध्ययन किया. तब मुझे अपने ईश्वर नाम के आराध्य पर संदेह होने लगा. मेरे मन मस्तिष्क पर ये बात बैठने लगी कि देवताओं के स्वरूपों व उनके बारे में हमारे सनातन धर्म में जो अतिशय गुणगान व आरतियाँ की गयी हैं, उसमें समाज के कुछ खास वर्गों का स्वार्थ निहित होता है. इसीलिये देवभय बता कर चिरकाल से अनेक विश्वास थोपे हुए चल रहे हैं. ‘प्रकृति ही ईश्वर है’ का सिद्धांत मानने पर पूजा-पाठ कीर्तन-भजन कर्मकांड सब वृथा लगने लगे थे. मैं नास्तिक हो चला था.

मैंने कहीं ये भी पढ़ा है कि नास्तिक ही सबसे बड़ा आस्तिक होता है तथा परमात्मा की विशेषता यह है कि वह उन लोगों के भोजन की भी पूरी व्यवस्था रखता है जो उसको गालियाँ निकाला करते हैं. ये सब बड़े तर्क के विषय हैं. मुझे ये भी मालूम रहा है कि उस पराशक्ति को धर्मधुरंधरों व विचारकों ने ‘नेति-नेति’ कहा है. इस प्रकार इस सन्दर्भ में मैं एक कन्फ्यूज्ड व्यक्ति बन कर रह गया था. यद्यपि मन के किसी कोण में ‘देव-भय’ का आसान भी बना रहा था. मैं कई वर्षों तक देव मन्दिरों या तीर्थों में मत्था टेकने नहीं गया. मेरी अर्धांगिनी मेरी इस विचारधारा से बिलकुल सहमत नहीं रही. उसने अपनी धार्मिक मान्यताओं को कभी नहीं छोड़ा.

अब मैं उम्र के अन्तिम पायदान (चौथा पड़ाव) पर हूँ. देवी-देवताओं के स्मरण को अपने दैनिंदिनी में नित्याचरण के रूप में अनुपालन करता हूँ. अपने व अपने स्वजनों की कुशल के लिए प्रार्थनाएँ करने के अलावा 'सर्वे सुखिन: सन्तु' की दुआ भी किया करता हूँ. मेरा प्रिय भजन है: ‘भूलि हैं हमही तुमको, तुम तो हमारी सुधि नांहि बिसारे हो.’  

यों किसी प्रकार के शारीरिक कष्टों में, या मानसिक झंझटों में कहीं ज्यादा उलझने की नौबत नहीं आई. हमेशा उस परमपिता परमेश्वर की कृपादृष्टि बनी रही है. एक घटना जो अभी पिछली दीपावली पर घटी वह वह अनपेक्षित थी कि मेरे बाएं हाथ की रिंग वाली अंगुली के मध्य में अज्ञात कारणों से करीब ६-७ वर्षों से झन्नाटा होकर पीड़ा होती थी. शुरू में झन्नाटा कभी कभी होता था, पर धीरे धीरे इसकी आवृत्ति बढ़ती ही गयी. ये बड़ा कष्टपूर्ण था. कभी तो रात में अचानक झनझना जाता था और नींद नहीं आती थी. इसका एक्स-रे करवाने पर भी कुछ नहीं निकला. अनुमान लगाया गया कि किसी नर्व के एक्सपोजर की वजह से ये होता है. दवाएं, लेप, मालिश और एक्सरसाइज से कोई स्थाई लाभ नहीं हुआ.

दीपावली से दो दिन पूर्व वॉशबेसिन के ऊपर फिट किया हुआ शीशा जब साफ़ करते समय फ्रेम सहित नीचे गिरने लगा और मैंने उसे सँभालने के लिए उसके नीचे हाथ लगाने की कोशिश की तो वह मेरे सीधे अंगुली के ठीक उसी जगह जोर से आ टकराया जहा झन्नाटा हुआ करता था. अतिशय पीड़ा तो हुई लेकिन ये उस पराशक्ति की कृपा थी कि अंगुली में होने वाला झन्नाटा और दर्द उसके बाद गायब हो गया है.

मेरी अब मान्यता हो चली है कि मैं नित्य जो ‘नम:शिवाय’ की पंचाक्षरी से परमात्मा को याद किया करता हूँ, उसी से मुझे इस शारीरिक कष्ट से अप्रत्याशित रूप से निजात मिली है.
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6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (27-01-2014) को "गणतन्त्र दिवस विशेष" (चर्चा मंच-1504) पर भी होगी!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    ६५वें गणतन्त्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. मन को जो अच्छा लगे वही माना जाये, जो भी मन को सुख दे।

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  4. आस्था और विश्वास में जो सकारात्मकता समाई है उसका प्रभाव पड़े बना नहीं रहता .

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