गुरुवार, 7 मई 2015

सर्वव्यापी ईश्वर

दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करे ना कोई,
जो  सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे  को  होई. 

संत कबीर के नीति के दोहों में बहुत गंभीर नीतिगत दार्शनिक उपदेश दिए गए हैं. यहाँ सुमिरन का तात्पर्य ईश्वर को याद करना है. वास्तव में ईश्वर एक आस्था का नाम है, जिस पर भरोसा करने से सांसारिक कष्ट कम व्यापते हैं और सद्मार्ग अपने आप मिलता जाता है. उस अदृश्य  शक्ति की अनुभूति ही परमानंद की प्राप्ति है. वह अनंत है तथा सर्वव्यापी है.

हम मनुष्यों की सामजिक मान्यताएं/व्यवस्थाएं आदि काल से धार्मिक रूप लेती गयी हैं. प्राय: सभी धर्मों के संत, समाज सुधारक, विचारक या मार्गदर्शक जगत कल्याण के उपदेश देते रहे हैं, और परमात्मा की किसी न किसी रूप में उपस्थिति बताते रहे हैं.

एक यहूदी संत अपने सुख के दिनों में जब एक बार समुद्र के किनारे रेत पर चल रहे थे तो उन्होंने पाया कि उनके पीछे जो पदचिन्ह बन रहे हैं वे दो लोगों के थे. संत को अहसास हो गया की दूसरा पदचिन्ह अदृश्य परमात्मा के थे, जो उनके साथ साथ चल रहे थे. संत दार्शनिक भाव से स्वगत बोला, हे ईश्वर! तब तुम मेरे साथ साथ क्यों नहीं आये थे, जब मैं अतिशय रूप से परेशान था? तब मैंने देखा था कि मेरे पदचिन्ह अकेले ही बनते थे.” तभी एक आकाशवाणी हुई कि मैं तो हमेशा ही तुम्हारे साथ रहा हूँ, जब तुम गर्दिश में थे तो मैं तुम्हें सुरक्षा देने के लिए गोद में उठाये रहता था, जो अकेले पदचिन्ह तब तुमने देखे थे वे सिर्फ मेरे ही थे.
***

2 टिप्‍पणियां: