दुःख में सुमिरन सब करें,
सुख में करे ना कोई,
जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होई.
संत कबीर के नीति के दोहों
में बहुत गंभीर नीतिगत दार्शनिक उपदेश दिए गए हैं. यहाँ सुमिरन का तात्पर्य ईश्वर को
याद करना है. वास्तव में ईश्वर एक आस्था का नाम है, जिस पर भरोसा करने से सांसारिक कष्ट
कम व्यापते हैं और सद्मार्ग अपने आप मिलता जाता है. उस अदृश्य शक्ति की अनुभूति ही
परमानंद की प्राप्ति है. वह अनंत है तथा सर्वव्यापी है.
हम मनुष्यों की सामजिक
मान्यताएं/व्यवस्थाएं आदि काल से धार्मिक रूप लेती गयी हैं. प्राय: सभी धर्मों के संत,
समाज सुधारक, विचारक या मार्गदर्शक जगत कल्याण
के उपदेश देते रहे हैं, और परमात्मा की किसी न किसी रूप में उपस्थिति बताते रहे हैं.
एक यहूदी संत अपने सुख
के दिनों में जब एक बार समुद्र के किनारे रेत पर चल रहे थे तो उन्होंने पाया कि उनके
पीछे जो पदचिन्ह बन रहे हैं वे दो लोगों के थे. संत को अहसास हो गया की दूसरा पदचिन्ह अदृश्य परमात्मा के थे, जो उनके साथ साथ चल रहे थे. संत दार्शनिक भाव से स्वगत बोला, “हे ईश्वर! तब तुम मेरे साथ साथ क्यों नहीं आये थे, जब मैं अतिशय
रूप से परेशान था? तब मैंने देखा था कि मेरे पदचिन्ह अकेले ही बनते थे.” तभी
एक आकाशवाणी हुई कि “मैं तो हमेशा ही तुम्हारे साथ रहा हूँ,
जब तुम गर्दिश में थे तो मैं तुम्हें सुरक्षा देने के लिए गोद में उठाये रहता था, जो
अकेले पदचिन्ह तब तुमने देखे थे वे सिर्फ मेरे ही थे.”
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-05-2015) को "गूगल ब्लॉगर में आयी समस्या लाखों ब्लॉग ख़तरे में" {चर्चा अंक - 1969} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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