मैनेजमेंट को कोयला
तथा अन्य रॉमैटीरियल अनलोड करने व सीमेंट डिस्पैच करने के लिए रेलवे स्टाफ से बहुत
मतलब पड़ता है, क्योंकि नियमों के अंतर्गत डेमरेज का प्रावधान बहुत भारी पड़ता है. मालबाबूओं
से लेकर स्टेसन पर तैनात स्टाफ को सुविधा शुल्क देकर खुश रखना होता है.
स्व.हरिभाई देसाई
रेलवे से डीलिंग अथवा छीजत की क्लेमिंग में माहिर थे वे बर्षों से ये काम करते आ
रहे थे. उनके रिटायरमेंट के बाद जो वैक्यूम हुआ उसे भरने के लिए शिवालिया (गुजरात)
प्लांट के मार्फ़त एक रेलवे मैंन को ही VRS दिलवाकर नई नियुक्ति दी गयी, वह थे स्व. दीप्तिप्रसाद वर्मा जो रेलवे के
नियम कायदों से वाकिफ थे और डेमरेज से बचने के तरीकों के जानकार थे.
मेरा उनसे शरुआती
परिचय अपनी लैबोरेटरी में एक डाईबिटिक के रूप में हुआ था. वे हरिद्वार के गायत्री
मिशन से जुड़े हुए थे सन १९८२ या ८३ में लाखेरी में ही गायत्री परिवार का एक
कार्यक्रम आयोजित हुआ जिसमें उपस्थित लोगों से कहा गया कि ‘अपनी कोई बुरी आदत
छोड़ने का संकल्प करें.’ मैं तब कभी कभी धूम्रपान किया करता था, मंच के आह्वान पर
मैंने तब उस बुरी आदत को छोड़ने का संकल्प किया और आज तक उस पर कायम हूँ.
प्रोत्साहित करने के लिए मैं वर्मा जी का आभार मानता हूँ.
सन १९९० में जब
मुझे G-23 क्वाटर अलाट हुआ तो पड़ोसी के रूप में
वर्मा जी का परिवार मिला. लगभग आठ साल तक हम अगल बगल रहे, जब तक कि वे रिटायर नहीं
हुए.
वर्मा जी सामाजिक
व्यक्ति थे बाटम कालोनी में जो शिव मंदिर बना उसमें उनका भी अथक प्रयास शामिल है.
वे हमारे
होलिकोत्सव में में भी रूचि लेते थे, मुझे याद है कि एक बार हमने उनको सम्मेलन की
अध्यक्षता से भी नवाजा था. एक समय वे कमेटी के सक्रिय सदस्य रहे पर एक छोटी सी बात
पर उन्होंने उसे छोड़ दिया था. हुआ यों कि हम लोग जिनमें प्रमुख शिवदत्त शर्मा जी, वी.एन.शर्मा
जी, केशवदत्त अनंत जी, फेरुसिंह रूहेला जी, वर्मा जी और एक मैं, होली के कार्यक्रम
को जायकेदार बनाने के लिए महीने भर पहले से मीटिंग किया करते थे, मीटिंग बारी बारी
से सबके घर पर होती थी जहां खिलाई-पिलाई के अलावा हँसी-ठठ्ठा व गण्यमान्य लोगों के
लिए उपाधियों का चयन होता था. हम लोग खुद पर भी हँसने का मसाला तैयार करते थे. जब
वर्मा जी के क्वाटर पर मीटिंग हुई तो श्रीमती वर्मा ने कद्दू के पकोड़े सर्व किये.
पकोड़े स्वादिष्ट थे तो उस साल वर्मा जी को ‘कद्दू का पकोड़ा’ की उपाधि से नवाजा
गया. बहुत हल्की फुल्की मजाक थी; पर इस पर श्रीमती वर्मा की नाराजी के चलते वर्मा
जी अगले बर्षों के कार्यक्रमों में शामिल नहीं हुए.
इससे पूर्व उनके
परिवार के साथ एक दुखद हादसा घटित हुआ कि स्कूल बस छोटे बच्चों को लेकर कहीं बाहर
गयी थी जो पलट गयी और तीन या चार बच्चे नीचे दब गए थे उनमें वर्मा जी का भी मझला
बेटा था. जिसकी शोकपूर्ण दर्द परिवार के
साथ रहा, स्वाभाविक है. कहते हैं कि पुत्रशोक सबसे बड़ा शोक होता है.
वर्मा जी की बेटी दुर्गेश
वनस्थली विद्यापीठ में पढ़ कर अध्यापिका हो गयी थी अभी शायद अपने परिवार के साथ
कोटा में सैटिल्ड है. बड़ा बेटा प्रिय हरीश MCA
करके बहुत अच्छे पॅकेज में कार्यरत हो गया था, छोटा प्रिय लालू उर्फ़ प्रवीण भी IT में ग्रेजुएसन करके अच्छे नौकरी में है, दोनों भाई आजकल हैदराबाद में
कार्यरत हैं. अपने परिवारों के साथ संपन्न
हैं, गत बर्ष फेसबुक पर दोनों भाई मेरे संपर्क में आये तो कुशल क्षेम पूछी थी. श्रीमती
वर्मा अपने बच्चों के साथ ही हैं.
वर्मा जी ने
रिटायरमेंट के बाद कोटा में महावीर नगर एक्सटेंसन में एक बना बनाया घर खरीद लिया
था, रिटायरमेंट के बाद मैं भी करीब डेढ़ साल कोटा में अपने बेटे पार्थ के साथ रहा
था, तब लाखेरी के सभी मित्रों, सुहृदों से मिलता रहता था, मैं वर्मा जी के घर भी
गया, वहीं पास में ब्रजमोहन घमंडी जी और महेंद्र शर्मा का भी घर था, २००१ की एक
मनहूश सुबह महेंद्र शर्मा जी का फोन आया कि “वर्मा जी का हार्ट अटैक से देहावसान
हो गया है”. इस प्रकार उनके पार्थिव शरीर को कंधा देकर भी मैंने अपनी श्रधांजलि
दी.
वर्मा जी के ससुर
(नाम मै भूल रहा हूँ) सरनेम शायद कश्यप था
आगरा के रहने वाले थे, रेलवे में टी.टी. थे, रिटायरमेंट के पश्चात अकसर लाखेरी आया
करते थे, बहुत संवेदनशील व्यक्ति थे, वर्मा जी के अंतिम संस्कार में भी वे उपस्थित
थे. उन्होंने इस परिवार को दुःख की घड़ी में बहुत सम्हाला था.
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