मैंने महात्मा
गाँधी जी को केवल चलचित्र या फोटोज में देखा है, यद्यपि मैं सन १९४८ में ८ साल की
उम्र पा चुका था. उत्तराखंड के सुदूर हिमालयी क्षेत्र में पन्द्रहपाली गावं के
डिस्ट्रिक बोर्ड के स्कूल में मेरे पिताश्री सहायक अध्यापक थे. मैं उनके साथ ही
स्कूल जाया करता था.
गांधी जी के
कृत्रत्व व व्यक्तित्व के बारे में तब मुझे शायद कुछ ही ज्ञात भी नहीं होगा, मुझे
तो इतना भर याद है कि सभी बच्चे व अध्यापक इकट्ठे होकर उनकी मृत्यु के समाचार पर
शोक प्रकट कर रहे थे. स्कूल की छत पर तिरगे झंडे को तिरछा करके झुकाया गया था, अलग
से झंडे के लिए कोई पोल/मास्ट नहीं था और शायद तब अध्यापकों को भी ये मालूम न था
कि झंडे को खड़े करके ही आधा नीचे करना होता है.
(२)
जवाहरलाल नेहरू जी
को मैंने सन १९५८ में पहली और आख़िरी बार बहुत नजदीक से देखा था, तब सिक्युरिटी का
आज का जैसा तामझाम नहीं हुआ करता था, दिल्ली विश्वविद्यालय के आर्ट्स फैकल्टी के
सभागार में कुछ आयोजन था जिसमें वे मुख्य अतिथि थे. उजास चेहरा व आभामंडित मुख
मंडल अविस्मरणीय है.
२७ मई १९६४ का वह
मन्हूश दिन भी मुझे खूब याद है जब नेहरू जी का स्वर्गवास हुआ था. मैं लाखेरी सीमेंट
वर्कर्स की सहकारी समिति का तब जनरल सेक्रेटरी हुआ करता था. उसी सिलसिले में पिछली
रात की ट्रेन पकड़ कर में जयपुर आया था. सुबह १० बजे बाद M.I.Road पर (
सुप्रसिद्ध काफी हाउस काम्प्लेक्स में) राजिस्ट्रार के कार्यालय ने निकल कर
ज्यों ही सूरजपोल बाजार में दाखिल हुआ तो
जीप से अनाउन्समेंट हो रहा था कि ‘नेहरू जी नहीं रहे’ . दूकानों के शटर गिरने लगे
और अन्धेरा सा छाने लगा था. लोगों की
आँखों में आंसूं छलछला रहे थे. मैं अपने मित्र श्री सुभाष जैन, मैनेजर ई.एस.आई. के
निवास ‘हल्दियों के रास्ते’ पर पहुचा तो सचमुच घर के लोग विलाप कर रहे थे. उस दिन उनके घर में खाना भी नहीं बना.
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