पोलो विक्ट्री सिनेमा हाल और होटल से आगे चलने पर, सड़क के किनारे फुट पाथ पर एक मोटे पेड़ के सहारे एक बड़ा सा रंगीन बैनर लगा था, जिस पर हाथ व हस्त-रेखा का खुला चित्र तथा इस बारे में काफी इबारतें लिखी गयी थी. तिलकधारी बुजुर्ग ज्योतिषी एक दरी बिछा कर बैठे थे. उनके बगल में कुछ पुस्तक-पातड़े भी रखे थे. मैंने जिंदगी में कभी किसी ज्योतिषी को हस्त-रेखा नहीं दिखाई थी. ना जाने उस दिन मेरे मन में क्यों आया कि उनको अपना हाथ दिखा लिया जाये, फुर्सत भी थी.
हम दोनों जने पंडित जी की दरी में बैठ गए. मैंने शिष्टाचारवश ज्योतिषी महोदय से पूछ लिया, “पंडित जी आपका शुभ नाम क्या है?”
उन्होंने तमक कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की, "रामानंद श्रीमाली को सारा जयपुर जानता है और आप बैनर पर मेरा नाम पता भी देख रहे हैं फिर भी अनपढ़ों की तरह नाम पूछ रहे हैं?”
सचमुच उनका नाम बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था. मैंने ही ख्याल नहीं किया था. मैं थोड़ा संकोच में तो आया पर मैंने दुबारा गलती कर डाली, पूछा, “अच्छा श्रीमाली जी, आपकी फीस क्या है?”
श्रीमाली जी पुन: उसी टोन में बोले, “तुम कैसे पढ़े-लिखे अनपढ़ हो? यहाँ फीस के बारे में भी साफ़ साफ़ लिखा है, पढ़ो.”
मैंने पढ़ा, "हस्तरेखा देखने की साधारण फीस ११ रूपये, स्पेशल के १०१ रूपये, और डीलक्स के १००१ रुपये.”
मैंने रविकांत की तरफ देखा, उन्होंने कहा, “पहले साधारण में दिखाइए अगर बात में दम हो तो आगे बढ़ेंगे.
मैंने जेब से ११ रूपये निकाले, श्रीमाली जी को देते हुए कहा, “पंडित जी साधारण रूप में ही देखिए.”
श्रीमाली जी का बोनी-बट्टा था. उन्होंने ११ रुपयों को माथे पर लगाया, अपनी पुस्तकों को छुवाया फिर अपने स्वेटर के अन्दर शर्ट की जेब के हवाले किया इसके बाद उन्होंने मेरा दांया पंजा अपने हाथ में लेकर थोड़ा मरोड़ा, दबाया, और गंभीर स्वर में बोले, “सच को सच कहना, गलत को गलत.”
“ठीक है,” मैंने कहा.
हथेली के पॉइंटों व लकीरों को उभार कर उन्होंने कहा, “तुम्हारा समय खराब चल रहा है.”
मैंने कहा, “ये गलत है,” क्योंकि तब मैं अपनी नौकरी व बच्चों की तरफ से बेफिक्र व आनंद पूर्वक रह रहा था. बच्चों की नौकरियाँ व शादियों की जिम्मेदारियों से निबट चुका था. सामाजिक प्रतिष्ठा भी भगवत्कृपा से निर्विरोध प्राप्त थी. माताश्री ठीक-ठाक मौजूद थी उनका साया संतुष्टि के साथ मेरे परिवार के ऊपर था. कुल मीजान ये कि मैं किसी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से परेशानी में नहीं था.
ज्योतिषी जी ने और जोर से मेरी हथेली पिचकाई और फैलाई, और उसके बाद और ज्यादा आत्मविश्वास से बोले, “मैं कहता हूँ कि तुम्हारा बहुत खराब समय चल रहा है.”
मैंने भी उसी आत्मविश्वास से उत्तर दिया, “ये बात सही नहीं है.”
श्रीमाली जी का जोश देखने लायक था. मैंने उनकी आँखों में आखें मिलाई तो उनको और जोश आ गया. उन्होंने जेब से मेरे दिये हुए ११ रुपये निकाले और मेरे हाथ में वापस रख दिये. मैं बिना कुछ सोचे समझे उठ खडा हुआ और रविकांत शर्मा के साथ हंसते हुए आगे बढ़ गया.
हम दोनों ने इस बारे विश्लेषण किया कि शायद ज्योतिषी के पास वही लोग पहुचाते होंगे जो किसी परेशानी में पड़े होते हैं, शंकित होते हैं, या भयभीत होते हैं, और ज्योतिषी जी इसी प्रकार प्रतिक्रिया, धौंस देकर उनसे स्वीकारोक्ति लेते रहते होंगे. ये हमारा अनुमान था.
इसके बाद हम दोनों रिक्शे में बैठ गए और जयपुर के अन्दर दर्शनीय स्थानों को देखते हुए शाम ४ बजे अपने घर लौटने के लिए रेलवे स्टेशन आ गए. लेकिन दिन भर दिमाग में श्रीमाली जी की बात घूमती रही कि “खराब समय चल रहा है.” अनेक गलत आशंकाओं व संभावनाओं ने विचलित अवश्य किया. ये प्रभाव लगभग ६ महीनों तक मुझे अनावश्यक परेशान करता रहा.
मैं हस्त-रेखा विज्ञान/सामुद्रिक शास्त्र के विषय में कोई ज्ञान नहीं रखता हूँ, लेकिन इतना विश्वास जरूर है कि श्रष्टा ने हमारे हथेलियों, अँगुलियों व पैर के तलवों में जो लकीरें खींची हैं, उनमें अवश्य कोई सत्य होना चाहिए. इस विषय में अनेक विद्वानों ने बहुत सारी पुस्तकें भी लिखी हैं. इसे एक विज्ञान शास्त्र का नाम दिया है, किन्तु उसके सही ज्ञान के अभाव में जो गलत धारणाएं तथा अंधविश्वास हमारे अन्दर घर कर गए हैं, वे हमें भ्रमित करते हैं. अनाड़ी/चालाक ज्योतिषी/तांत्रिक इसका लाभ उठाते हैं.
मैंने अपने इन ब्लाग लेखन क्रम में दिनाक १९ अगस्त २०११ को एक सुन्दर कहानी ‘फलित ज्योतिष’ पोस्ट की थी जिसे मेरे पाठकों ने खूब सराहा था. मैं यहाँ पुन: लिखना चाहूँगा कि हमारे समाज में जो विकृतियाँ अन्ध-विश्वास के रूप ज्योतिष या हस्तरेखा विज्ञान के नाम पर घर कर गयी हैं, उनके बारे में प्रबुद्ध लेखकों को प्रकाश डालते रहना चाहिए.
***