शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

भटके हुए लोग

सुरेन्द्रनाथ गौड़ आगरा के नामी घराने के उस्ताद पंडित सुखीराम के शागिर्द रहे. संगीत विशारद थे. यद्यपि उनका मौसिकी से कोई पैतृक सम्बन्ध नहीं था लेकिन बचपन से ही वे अनायास इस रंग में रंगते चले गए थे. हुआ यों कि उनको फिल्म देखने व फ़िल्मी गाना गाने का जूनून था. एक दिन उस्ताद की नजर उन पर पड़ी तो जिंदगी की दिशा ही बदल गयी. उस्ताद ने ठीक ही पहचाना कि इस लड़के में संगीत की बहुत संभावनाएं थी. जोहरी की तराश मिलते ही सुरेन्द्र चमकने लगा. लोगों ने उसको मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री की तरफ मुँह करने की सलाह दी पर वह तो उस्ताद की भतीजी देविका के प्रेमजाल में इस तरह बंध गए कि दीन दुनिया की खबर ही नहीं रही.

उस्ताद का बड़ा स्नेह था, वे सब देख रहे थे और एक दिन उन्होंने दोनों को सात फेरे दिलवा कर एक बंधन में बाँध दिया. हनीमून पीरियड जरूर लंबा चला, लेकिन देविका ने धीरे धीरे उससे दूरी बनानी शुरू कर दी. वह बड़ी शोख व चँचल लड़की थी, उसकी अनेक भौतिक इच्छायें थी और सुरेन्द्रनाथ एक फक्कड किस्म का आदमी था. हालात को स्थायित्व देने के लिए उस्ताद ने उसको कहीं अच्छी नौकरी तलाशने की सलाह दी. संयोग से जयपुर के एक संगीत विद्यालय में उसको अध्यापक की नौकरी मिल भी गयी.

देविका ने इस बीच एक गोलमटोल लडकी को जन्म दिया. सब ठीक ठाक चल रहा था सुरेन्द्र को आभास नहीं था कि देविका इन हालातों में उसको छोड़ कर भी जा सकती है. एक दिन कुछ छोटी-मोटी बातों में चिकचिक होने पर वह सचमुच घर छोड़ कर गायब हो गयी. कहाँ गयी, किसके साथ गयी, कुछ पता नहीं चला. पुलिस में रिपोर्ट भी लिखवाई पर उसका कोई पता ही नहीं चला. इस प्रकार बालिका चकोरी को पालने का पूरा पूरा भार पिता पर आ गया. जब मजबूरी आ जाती है तो निभाना पड़ता है.

हमारे समाज के लोगों की सोच यह है कि जिसकी बीबी घर छोड़ कर भाग जाती है, वे बड़े दुर्भाग्यशाली होते हैं और हेय समझे जाते हैं. दिन तो जैसे तैसे कट ही जाते हैं लेकिन कलंक पीछा नहीं छोडता है. बदनामी की वजह से सुरेन्द्रनाथ जयपुर छोड़कर अपनी बिटिया सहित अजमेर आ गये और वहीं एक स्कूल में संगीत अध्यापक बन कर जीवन यापन करने लगे.

बिना माँ की बच्ची ने पिता के साये में जो संस्कार पाए वे संगीतमय ही थे. उसे वे बेटा मान कर पालते रहे और वह बचपन से वह सभी वाद्य-यंत्रों को बजाने लग गयी तथा नृत्य में कत्थक, ओडिसी, आदि शास्त्रीय शैलियों की भी जानकार हो गयी.

सुरेन्द्रनाथ को उनके शिष्य सुर जी मास्साब कहा करते थे. सुरजी को तमाम सुरों की पकड़ थी. उन्होंने बिटिया को राग भैरवी, खमाज, कल्याणी, बिलावल आदि शास्त्रीय गायनों में प्रवीण कर दिया साथ ही कॉलेज तक की पढाई भी करवाई. लड़किया बहुत जल्दी जवान भी हो जाती हैं. सुरजी को उसके लिए योग्य वर ढूँढने की मशक्कत भी करनी पड़ी. कहते हैं कि रिश्ते भगवान के घर से तय हो कर आते हैं. रिश्तेदारों की मदद से एक माध्यम वर्गीय सजातीय लड़का तो मिला पर वे उसकी आमदनी के श्रोतों से वे खुश नहीं थे. लड़का योगेश जीवन बीमा एजेंट के रूप में काम करता था. सुरजी को अपने दिन याद आ रहे थे कि कहीं विधना ने बेटी के भाग में भी वही लकीरें तो नहीं खींची? जिस तरह के वातावरण में चकोरी पली थी वह आत्मविश्वासी तथा स्वच्छंद प्रवृति की हो गयी थी. महत्वाकाक्षायें उसकी भी कम नहीं थी. सुरेन्द्रनाथ की मानसिक विवेचनाएँ निरर्थक नहीं थी पर उनके पास विकल्प नहीं के बराबर थे. अस्तु अच्छे दान दहेज के साथ योगेश के साथ ही चकोरी की शादी कर दी गयी.

इसी बीच अजमेर में ही सरकारी स्कूल में चकोरी को अध्यापिका की नौकरी मिल गयी, उसने बी.एस.सी. बी.एड. की डिग्री तो ले ही रखी थी. परिस्थितियों से समझौता करते हुए योगेश घर-जंवाई की तरह बसर करने लगा. एक साल तक तो सब ठीक रहा पर उसके बाद योगेश की पटरी उस घर से उखड़ती नजर आने लगी. विवाद हुए, खींचतान हुई, और वह गर्भवती चकोरी को अजमेर में छोड़ कर चला गया क्योंकि बेरोजगार भी हो तो भी पति के स्वाभिमान को बार बार ठेस लग रही थी. उसको लग रहा था कि उसके साथ नौकर का सा सलूक किया जा रहा है.

सुरजी के आग्रह पर कुछ नजदीकी रिश्तेदारों ने बीच-बचाव करने की कोशिश जरूर की पर चकोरी भी योगेश के शब्द बाणों से इस कदर घायल थी उसने उसके साथ आगे का जीवन बिताने से स्पष्ट मना कर दिया. जब पति पत्नी में बिगाड़ शुरू हो जाता है तो एक दूसरे की कमियां ज्यादा नजर आने लगती हैं. नौबत तलाक की आ गयी. इसी बीच चकोरी ने एक गुड़िया को भी जन्म दे दिया. शक्ल सूरत में बिलकुल अपनी माँ जैसी. नाना रिटायर हो गए और वही उसके लालन-पालन का ध्यान रखने लगे.

बच्चे तो बच्चे होते हैं उनको दीन-दुनिया की इतनी समझ नहीं होती है पर जब वे बड़े होने लगते हैं और अपने संगी-साथियों को देखते हैं तो स्वाभाविक रूप से रिश्तों के बारे में पूछने लगते हैं. गुड़िया को अपने पिता के विषय में बहुत से प्रश्न पूछने थे पर माँ थी कि उसका नाम नहीं सुनना चाहती थी. अकेले में गुड़िया माँ द्वारा छुपाई गयी पुरानी एल्बम देखती और अपने पिता के बारे में अनेक कल्पनाएँ करती रहती थी. वैसे भी बेटियों का लगाव-जुड़ाव पिता के साथ बहुत ज्यादा होता है, उन्हें वे अपना आदर्श भी मानती हैं, लेकिन यहाँ बात दूसरी ही हो गयी थी. गुड़िया बेचैन रहती थी. उसका मन पढ़ाई-लिखाई में भी कम ही लगता था. उसे नाना का सहारा जरूर था जो उसे तमाम पौराणिक से लेकर सामाजिक बातों से अवगत कराते रहते थे. दुर्भाग्यवश एक दिन आकस्मिक रूप से उनका स्वर्गवास हो गया.

मृत्यु एक शाश्वत सत्य है. पीछे रह गए स्वजन रो-धो कर जमाने की सान्त्वना पाकर चुप हो जाते हैं और अपने ढर्रे पर आ जाते हैं. इन दो माँ-बेटियों की स्थिति अलग किस्म की थी. चकोरी का एक बड़ा सपना था कि गुड़िया को डॉक्टर बना कर अपना सर ऊंचा करेगी. और भी ना जाने क्या-क्या प्लान थे. चकोरी के कई पुरुष मित्र भी थे. वे घर भी आते थे गप-शप बातें सभी नॉर्मल होने लगा था लेकिन गुड़िया इन बातों से अलग निबट अकेली होती गयी. वह बहुत उदासी व विरक्ति की स्थिति में जी रही थी.

ऐसी हालत में लड़की की विशेष देखरेख होनी चाहिए थी पर चकोरी अपनी नौकरी व सामाजिक कार्यों में मस्त रहने लगी. क्लब व अन्य आयोजनों में उसे गायन के लिए बुलाया जाता था सो उसने गुड़िया के मनोविकारों की कोई परवाह नहीं की. दुष्परिणाम यह हुआ कि १२ साल की इस लड़की ने कुंठित होकर सल्फास की गोलियाँ खाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली.

चकोरी के लिए यह बहुत बड़ा धक्का था. वह पागल सी हो गयी बार बार लोगों से कहा करती है, "मैं निरुद्देश्य जीकर क्या करूंगी? सब खतम हो गया है. मैं किसके लिए जी रही हूँ?...”
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6 टिप्‍पणियां:

  1. भटकाव असल में भटकाव नहीं, बस धारा से विपरीत बहना भी हो सकता है. पर भटके हुए लोग ये समझ नहीं पाते http://abhyudayahindi.blogspot.com

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  2. शुरुआत ही बुरा हो जाने पर अन्त अच्छा होने की सम्भावना कम ही होती है

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  3. वास्तव में भटके हुए लोग हैं यह इन्हें कौन राह दिखाए .......

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  4. सभी को एक दूसरे के मनोभावों की कद्र करनी चाहिए, नादान बच्चों की तो और भी ज्यादा, अन्यथा परिणाम कुछ भी हो सकता है.
    सीखयुक्त कहानी-- आभार.

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  5. बहुत बार कसूर किसका है ये तय करना कठिन हो जाता है, लेकिन एक बात जो मैंने देखी है कि अकेली स्त्री फ़िर भी संतान को पाल लेती है लेकिन अकेला पुरुष विरले ही यह कर पाने में सफ़ल हो पाता है।

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  6. इस कहानी के कथानक में चरित्रों का चित्रण अच्छे बुरे के हिसाब से नहीं किया गया है, ये एक बिलकुल सत्य आधारित कथा है, केवल पात्रों के नाम व स्थानों के नाम बदल दिये गए हैं.आप मित्रों ने इसे पढ़ा और इस पर अपनी टिप्पणी दी, मै आभारी हूँ. धन्यवाद.

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