बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

स्थायित्व

हर चौराहा
हर मार्ग हर मोड़
बहुत व्यस्त हैं.

   इनके राही 
   बहुत उलझे हुए 
   कोलाहलग्रस्त  
   अविश्वासग्रस्त
   भयभीत से भाग रहे हैं.

मैं अपनी बालकनी से-
ये नजारा देख रहा हूँ
खट-खट, पों-पों,
भरभराहट, गड़गड़ाहट
आतंक की तरह
चीत्कार की तरह
चीरती चली जा रही हैं.

   और मैं,
   एक तालाब की तरह
   हर लहर को
   पुन: स्थायित्व दिये जा रहा हूँ.
   यद्यपि मेरा अपना स्थायित्व
   उतरोत्तर डगमगाता जा रहा है.

मेरे चौराहे,
मेरे मार्ग,
मेरे मोड़
जो इसी तरह ध्वस्त होते रहे  
अब भग्नावशेष भर बचे हैं
मैं इनका पुनर्निर्माण नहीं करूँगा.
कभी नहीं करूँगा,
क्योंकि,
अब यही मेरा स्थायित्व हो चला है.
             ***

5 टिप्‍पणियां:

  1. अंकलजी यह तो मर्मस्पर्शी कविता है...सादगी और आशंकाओं का सम्मिलित स्पंदन है..जिस तरह कवी अपना नवीन यथार्थ स्वीकार कर लेता है, मुझे बहुत ह्रदय-स्पर्शी लगा

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  2. मेरे चौराहे,
    मेरे मार्ग ,
    मेरे मोड
    जो इसी तरह ध्वस्त होते रहे
    अब भग्नावशेष भर बचे हैं
    मैं इनका पुनर्निर्माण नहीं करूँगा.
    कभी नहीं करूँगा,
    क्योकि,
    अब यही मेरा स्थायित्व हो चला है.

    गहरे भाव, ..अथाह !!!. वाह.

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  3. नये प्रतीकों से रचित भावपूर्ण रचना आभार ....

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  4. रचना की प्रतिक्रया स्वरुप यदि पढने वालों को भी लगे कि उसके भाव उनके मन को भी छू रहे हों तो अपनी सार्थाका समझता हूँ.टिप्पणियों के लिए धन्यवाद.

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