शनिवार, 19 मई 2012

खोया-पाया

अखबारों के विज्ञापनों में एक छोटा सा कॉलम होता है, खोया-पाया. हम बरसों से देखते आ रहे हैं कि लोग अपनी कीमती वास्तु/कागजात खो जाने पर छपवाते हैं, जिसमें गुहार लगाते हैं कि उनको सूचना दी जाये. कभी कभी तो उनमें पारितोषिक देने की बात भी लिखी मिलती है, लेकिन ऐसा बहुत कम देखने को मिला कि जिस किसी को दूसरे की वस्तुएं/कागजात मिले हों उसकी तरफ से सूचनार्थ उसी तरह विज्ञप्ति छपवाई हो. दूसरों के दु:ख-तकलीफों से संवेदना लेते हुए उद्वेलित होने वाले कितने लोग होते हैं? ऐसे मामलों की गंभीरता वही समझ सकता है, जिसकी जिंदगी के तार उन बहुमूल्य वस्तुओं या कागजातों से जुड़े हुए रहे हों.

आदमी, औरतें, बच्चे, लडकियां, या कोई ठग-घपलेबाज गायब हो जाये तो भी आम तौर पर उनको खोजने के विज्ञापन अखबारों में छपाए जाते हैं. यहाँ तक कि कुछ कुत्ता-बिल्ली खो जाने के दारुण समाचार, फोन नम्बर सहित छपते रहते हैं, पर यहाँ बात जिंदगी से जुडी कीमती वस्तुओं/कागजातों के बहाने उस ईमानदारी के जज्बे को खोजने की हो रही है, जिसे हम अंतरात्मा की आवाज कहते हैं क्योंकि अब लगने लगा है कि वह वास्तव में कहीं खो गयी है.

देशी/विदेशी सैलानी बड़े उत्साह व आकांक्षाओं के साथ हमारे होटलों, रेलगाड़ियों या बसों में निश्चिन्त होकर चलते हैं. यद्यपि उनको यात्रा शुरू करने से पहले ताकीद की जाती है कि मैक्सिको, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अनेक नामी अफ्रीकन देश, तथा भारत में लुटेरे, चोर-उचक्के-ठग बहुत सक्रिय रहते हैं लेकिन पर्यटक यदि इन सूचनाओं को गंभीरता से ना लें तो अनहोनी होती रहती है. बदमाशों के लिए कोई नैतिक उपदेश काम नहीं करते हैं.

इधर उत्तर भारत में रेल/बस की यात्राओं में जहरखुरानों का आतंक बना रहता है. कई गिरोह पकड़े भी जाते हैं, पर लचर क़ानून व हल्की-फुल्की सजा के कारण, वे फिर खुले घूमने लगते हैं, और अपने कारोबार में फिर सक्रिय हो जाते हैं. एक समय था केवल जेबकतरों से सावधान' जैसे निर्देश रेल/बस की टिकट खिड़कियों पर लिखे दीखते थे. जो जेबकतरे पकड़े जाते हैं, उनमें नाबालिग बच्चे व औरतें बहुत शातिर अपराधी होते हैं. यह आज भी व्यवसाय की तरह चलता है.

अब हालत यह है कि हम सब को हर जगह लुटने-ठगे जाने का खतरा है. दूसरी तरफ आम आदमी की सोच इतनी स्वार्थपूर्ण व नैतिकताविहीन हो गयी है कि खोया-पाया के गुच्छे से पाया शब्द गायब हो गया है.  इस संवेदनहीनता की स्थिति पर हर फोरम में, मीडिया में चर्चा होनी चाहिए ताकि सब को सोचने को मजबूर होना पड़े. जर्मनी में हिटलर ने अपने लोगों में राष्ट्रभक्ति का गजब का जूनून पैदा कर दिया था, जिसके लिए वहाँ साहित्य, सिनेमा व सभी जनसंपर्कों में देशभक्ति को लक्ष्य बनाया गया और यह बहुत सफल आयोजन रहा. यह दूसरी बात है कि अंतर्राष्ट्रीय परिपेक्ष में हिटलर हार गया.

हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमारा धर्म केवल व्यक्तिगत अथवा राजनैतिक उद्देश्यों से अपना हितलाभ प्राप्त करना रह गया है. जरूरत युद्धस्तर पर नैतिकता जगाने की है ताकि हमारी खोयी हुए भारतीय आत्मा फिर से पाई जा सके. जिसका मूल मन्त्र है, सर्वे सुखिन: सन्तु.
                                                ***

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें