सुदर्शना अपने अन्य तीन भाई-बहनों से बिलकुल अलग है. बचपन में ही उसकी प्रतिभा नजर आने लगी थी. घर-बाहर सब तरफ उसके बारे में चर्चा होती थी तो वह स्वयं भी अपने आप को १० में से ११ अंक देने लगती थी. कुशाग्रता हो और बाह्य शारीरिक सुंदरता भी हो तो स्वाभाविक तौर पर दर्प भी होना ही था.
आज शहरी मध्यवर्गीय परिवारों की सोच रहती है कि बच्चे जल्दी से पढ़-लिख जाएँ और किसी अच्छी नौकरी पर लग जाएँ. बच्चे भी समाज के अन्य लोगों की देखा देखी मानसिक रूप से खुद को इसी ढर्रे में ढाले हुए चलते हैं. अब वे दिन चले गए हैं जब माता-पिता बेटी की शादी के बारे में २५ वर्ष होने से पहले ही कोई चिंता करने लगते थे.
सुदर्शना ने पॉलिटिकल साइंस में एम.ए. किया वह साथ साथ आई.ए.एस. की भी तैयारी करती रही, लेकिन प्रिलिमिनरी पास करने के बाद मेन परीक्षा पास नहीं कर पाई. उसने बी.एड. की डिग्री हासिल कर ली और एक अच्छे पब्लिक स्कूल में अध्यापिका हो गयी. अध्यापन को नोबल प्रोफेशन समझा जाता है और अध्यापक/अध्यापिका समाज के आदर्श भी होते हैं. विवाह के बारे में यद्यपि सुदर्शना टाल-मटोल करती थी, पर माता-पिता ने अपनी जिम्मेदारी समझते हुए किसी योग्य वर की तलाश शुरू कर रखी थी पर कहीं बात बन नहीं रही थी. दूर दुनिया के सब्ज-बाग बहुत सुहावने होते हैं. मानव मन तो करता ही है कि कोई मनभावन मिल जाये.
इन्टरनेट की सोशल साइट्स पर अनेक जाने-अनजाने लोगों से संपर्क होता है. अक्सर लोग मित्र बनाने में कोई संकोच या जाँच पड़ताल नहीं करते है. अधिक से अधिक मित्र बनाने की होड़ रहती है. सुदर्शना ने भी अपने मित्रों की सूची ३०० से लम्बी बना डाली. फेसबुक चेक करना अब रोजनामचे का अभिन्न अंग हो गया है. साइबर अपराधों के अलावा भी ये संपर्क बहुत से गुल खिलाने लगे हैं.
सुदर्शना के संपर्क में देवानद प्रिंस नाम का एक व्यक्ति अपने फेसबुक के माध्यम से आया, जिसने अपने प्रोफाइल पर सदाबहार स्व. फिल्म अभिनेता देवानंद की युवावस्था का फोटो लगा रखी थी. यों संयोगवश उससे मित्रता हो गयी और गाहे बगाहे चैटिंग शुरू हो गयी. देवानन्द ने अपनी लच्छेदार भाषा में अपनी ‘दिल की लगी’ लिख दी तो सुदर्शना का कोरा कागज़ सा मन प्यार के हिचकोले खाने लगा. इस प्रकार प्यार भरे शब्दों का आदान प्रदान गुपचुप तरीके से तीन-चार महीनों तक चलता रहा. स्वाभाविक था वह अपने रंगीन सपनों में विचरने लगी थी.
देवानंद प्रिंस दूसरे शहर का निवासी था, उसका एक रिश्तेदार सुदर्शना के शहर में किसी पुलिस थाने का इंचार्ज था. देवानंद ने उसके मार्फ़त चुपचाप सुदर्शना के बारे में सारी जानकारियाँ हासिल कर ली. अब उसने सुदर्शना को भी बता दिया कि ये पुलिस अफसर उसका रिश्तेदार है. आपसी मुलाक़ात के लिए घर या किसी होटल अथवा सुनसान जगह के बजाए उसके थाने में ही मिलने का सुझाव रखा तो सुदर्शना खुश हो गयी और मिलने के लिए उतावली भी थी.
सुदर्शना ने अपने छोटे भाई विजय को हमराज बनाया और अपने साथ ले गयी. पुलिस थाने में दोनों भाई-बहन पंहुचे तो इन्स्पेक्टर को परिचय देने की जरूरत नहीं पड़ी. क्योंकि उसने परदे के पीछे से सारी मालूमात की हुई थी. उसकी आत्मीयता और व्यवहार से लगा कि वह देवानंद का परम हितैषी भी है.
देवानंद अभी वहाँ पहुँचा नहीं था. इस बीच सुदर्शना का दिल व्यग्र था. जोरों से धड़क रहा था. अचानक जैसे नाटक के लिए स्टेज का पर्दा उठता है, एक पछ्पन-साठ वर्ष का पकी उम्र वाला व्यक्ति जिसका चेहरा अनाकर्षक भी था, मुस्कुराते हुए दाखिल हुआ. इन्स्पेक्टर उसका स्वागत करने के लिए गर्मजोशी के साथ खड़ा होकर कहने लगा, “आइये, आइये, देवानंद जी. आपका बेसब्री से इन्तजार हो रहा है.”
आगंतुक को अपनी गुलाबी कल्पनाओं के विपरीत प्रत्यक्ष देखकर सुदर्शना गश खाकर लुढ़क गयी. थोड़ी देर में होश में आने पर पानी पिलाया गया. वह बिना कुछ कहे, भाई के साथ ऑटो रिक्शा में घबराई सी बैठकर ग़मगीन हालत में अपने घर लौट गयी.
इस घटना के बाद सुदर्शना को यह सीख मिल गयी कि इंटरनेट की दुनिया में किसी पर अँधा विश्वास नहीं करना चाहिए. और कुछ दिनों बाद यह घटना सुदर्शना और उसके मित्रों के बीच एक मनोरंजन का विषय बन कर रह गयी.
आज शहरी मध्यवर्गीय परिवारों की सोच रहती है कि बच्चे जल्दी से पढ़-लिख जाएँ और किसी अच्छी नौकरी पर लग जाएँ. बच्चे भी समाज के अन्य लोगों की देखा देखी मानसिक रूप से खुद को इसी ढर्रे में ढाले हुए चलते हैं. अब वे दिन चले गए हैं जब माता-पिता बेटी की शादी के बारे में २५ वर्ष होने से पहले ही कोई चिंता करने लगते थे.
सुदर्शना ने पॉलिटिकल साइंस में एम.ए. किया वह साथ साथ आई.ए.एस. की भी तैयारी करती रही, लेकिन प्रिलिमिनरी पास करने के बाद मेन परीक्षा पास नहीं कर पाई. उसने बी.एड. की डिग्री हासिल कर ली और एक अच्छे पब्लिक स्कूल में अध्यापिका हो गयी. अध्यापन को नोबल प्रोफेशन समझा जाता है और अध्यापक/अध्यापिका समाज के आदर्श भी होते हैं. विवाह के बारे में यद्यपि सुदर्शना टाल-मटोल करती थी, पर माता-पिता ने अपनी जिम्मेदारी समझते हुए किसी योग्य वर की तलाश शुरू कर रखी थी पर कहीं बात बन नहीं रही थी. दूर दुनिया के सब्ज-बाग बहुत सुहावने होते हैं. मानव मन तो करता ही है कि कोई मनभावन मिल जाये.
इन्टरनेट की सोशल साइट्स पर अनेक जाने-अनजाने लोगों से संपर्क होता है. अक्सर लोग मित्र बनाने में कोई संकोच या जाँच पड़ताल नहीं करते है. अधिक से अधिक मित्र बनाने की होड़ रहती है. सुदर्शना ने भी अपने मित्रों की सूची ३०० से लम्बी बना डाली. फेसबुक चेक करना अब रोजनामचे का अभिन्न अंग हो गया है. साइबर अपराधों के अलावा भी ये संपर्क बहुत से गुल खिलाने लगे हैं.
सुदर्शना के संपर्क में देवानद प्रिंस नाम का एक व्यक्ति अपने फेसबुक के माध्यम से आया, जिसने अपने प्रोफाइल पर सदाबहार स्व. फिल्म अभिनेता देवानंद की युवावस्था का फोटो लगा रखी थी. यों संयोगवश उससे मित्रता हो गयी और गाहे बगाहे चैटिंग शुरू हो गयी. देवानन्द ने अपनी लच्छेदार भाषा में अपनी ‘दिल की लगी’ लिख दी तो सुदर्शना का कोरा कागज़ सा मन प्यार के हिचकोले खाने लगा. इस प्रकार प्यार भरे शब्दों का आदान प्रदान गुपचुप तरीके से तीन-चार महीनों तक चलता रहा. स्वाभाविक था वह अपने रंगीन सपनों में विचरने लगी थी.
देवानंद प्रिंस दूसरे शहर का निवासी था, उसका एक रिश्तेदार सुदर्शना के शहर में किसी पुलिस थाने का इंचार्ज था. देवानंद ने उसके मार्फ़त चुपचाप सुदर्शना के बारे में सारी जानकारियाँ हासिल कर ली. अब उसने सुदर्शना को भी बता दिया कि ये पुलिस अफसर उसका रिश्तेदार है. आपसी मुलाक़ात के लिए घर या किसी होटल अथवा सुनसान जगह के बजाए उसके थाने में ही मिलने का सुझाव रखा तो सुदर्शना खुश हो गयी और मिलने के लिए उतावली भी थी.
सुदर्शना ने अपने छोटे भाई विजय को हमराज बनाया और अपने साथ ले गयी. पुलिस थाने में दोनों भाई-बहन पंहुचे तो इन्स्पेक्टर को परिचय देने की जरूरत नहीं पड़ी. क्योंकि उसने परदे के पीछे से सारी मालूमात की हुई थी. उसकी आत्मीयता और व्यवहार से लगा कि वह देवानंद का परम हितैषी भी है.
देवानंद अभी वहाँ पहुँचा नहीं था. इस बीच सुदर्शना का दिल व्यग्र था. जोरों से धड़क रहा था. अचानक जैसे नाटक के लिए स्टेज का पर्दा उठता है, एक पछ्पन-साठ वर्ष का पकी उम्र वाला व्यक्ति जिसका चेहरा अनाकर्षक भी था, मुस्कुराते हुए दाखिल हुआ. इन्स्पेक्टर उसका स्वागत करने के लिए गर्मजोशी के साथ खड़ा होकर कहने लगा, “आइये, आइये, देवानंद जी. आपका बेसब्री से इन्तजार हो रहा है.”
आगंतुक को अपनी गुलाबी कल्पनाओं के विपरीत प्रत्यक्ष देखकर सुदर्शना गश खाकर लुढ़क गयी. थोड़ी देर में होश में आने पर पानी पिलाया गया. वह बिना कुछ कहे, भाई के साथ ऑटो रिक्शा में घबराई सी बैठकर ग़मगीन हालत में अपने घर लौट गयी.
इस घटना के बाद सुदर्शना को यह सीख मिल गयी कि इंटरनेट की दुनिया में किसी पर अँधा विश्वास नहीं करना चाहिए. और कुछ दिनों बाद यह घटना सुदर्शना और उसके मित्रों के बीच एक मनोरंजन का विषय बन कर रह गयी.
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बहुत रोचक और साथ ही साथ सबक लेने वाली घटना है। मानव मन लच्छेदारी में पता नहीं क्यूं फंस जाता है। अमूमन जो लच्छेदार भाषा में व्यक्त होता किया जाता है वैसे व्यक्ति बहुत कम होते हैं।
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