ये पुरानी कहावत है कि सांप पकड़ने वाले को सांप ही खाता है. जीवनसिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ.
जीवनसिंह के दादा अपने
गाँव के कई साथियों के साथ लगभग अस्सी साल पहले पिथौरागढ़ के कम्स्यार इलाके से भाबर
आये थे. ये लोग लकड़ी चिरानी का काम करते थे फिर जंगल साफ़ होने पर इन्होने वहीं अपनी
बस्ती बना ली और खेती करने लगे. बस्ती बरेली को जाने वाली मुख्य सड़क (हाईवे) के अगल-बगल है. समयांतर में सरकार ने ये जमीनें उन्ही काश्तकारों के नाम कर दी थी. गाँवों के अजीब
अजीब नामकरण भी हो गए, जैसे हैडा गज्जर, हाथी खाल, पदमपुर देवलिया, बच्ची धरमा, गौजाझाली आदि आदि.
समय बदला, पंचायती राज
आया तो जीवनसिंह अपने गाँव के सभापति बना दिये गए. इन तीस चालीस वर्षों में जब हर व्यवस्था
का राजनीतिकरण हो गया तो सभापति (ग्राम प्रधान)
के पद का महत्व बढ़ गया. प्रधान बनना बड़ी बात हो गयी. इसमें कमाई के भी अनेक स्रोत निकल आये. हालाँकि इससे गाँवों में आपसी स्पर्धा और दुश्मनियाँ भी पैदा हो गयी.
जीवनसिंह पढ़े लिखे नहीं
थे, पर इस संचारयुग के संसाधनों ने अनायास ही उनको जागरूक बना दिया. उन्होंने अपने इकलौते
बेटे कमलसिंह को हाईस्कूल तक पढ़ाया तथा अपने अनुभवों के राजनैतिक गुर सिखाते रहे. नजदीक
के शहर हल्द्वानी की खबरें जानते सुनते हुए कमल जान गया कि सुर्ख़ियों में आने के लिए
सड़क जाम करने का टोटका बड़ा कारगर है. जीवनसिंह ने भी इसे नेतागिरी का शॉर्टकट समझते
हुए बेटे पर कोई लगाम नहीं लगाई. कमल आये दिन हाईवे पर छोटी छोटी समस्याओं के समाधान
के लिए वाहनों को रोक कर जाम की स्थिति पैदा करने लगा. कुकिंग गैस की सप्लाई में विलम्ब हो, नलकूप पर बिजली
का पम्प फुंकने का मसला हो, गाँव के किसी व्यक्ति के साथ सड़क हादसा हो जाये या राशन-चीनी
की दूकान में वितरण व्यवस्था में देरी/अव्यवस्था हो तो कमल सक्रिय होकर सड़क जाम करने
में देर नहीं करता था. आलम ये हो गया कि जहाँ
कहीं खुराफात की बात हो कमल का उसमें फोटो निकल कर स्थानीय अखबारों में आने लगा. प्रशासन
उसकी खुराफातों से बहुत परेशान रहा क्योंकि हाईवे जाम करने की बीमारी से आने जाने
वाले लोगों को भारी परेशानी झेलनी पड़ रही थी. इस बात पर बहुत आलोचनाएं छप रही थी, पर
प्रशासनिक अधिकारियों की डाट डपट ज्यादा काम नहीं कर रही थी.
उधर जीवनसिंह बेटे की
इस प्रगति पर खुश रहते थे और लोगों को कहते नहीं थकते थे कि “मेरा बेटा इस इलाके का विधायक बनने लायक है.”
कमल को राजनीति में फिट
करने के लिए उन्होंने उसे उत्तराखण्ड राज्य बनते ही उसे भाजपा में शामिल होने की सलाह
दी और फिर जब काँग्रेस की सरकार बनी तो पाला
बदलने को भी कह दिया. जीवनसिंह का मानना था कि सत्तासुख भोगने के लिए सत्तानशीं पार्टी
के साथ जुड़ा रहना फायदेमंद होता है.
प्रकृति अपना सामंजस्य
बनाए रखती है. हर दिन एक सा भी नहीं रहता है. एक दिन अचानक जीवनसिंह को ‘ब्रेन स्ट्रोक’ हुआ और वे बेहोश हो गए. उनको हल्द्वानी के एक नामी अस्पताल
में शिफ्ट किया गया, जहाँ आईसीयू में रखा गया. तीन दिनों तक हाथ-पावों में हरकत न होने पर कमल नेता अपने स्वभाव के अनुसार डॉक्टरों
को हड़काने लगा तो अपनी खाल बचाने के लिए उन्होंने आनन-फानन में जीवनसिंह को बरेली
के अस्पताल को रेफर कर दिया. एम्बुलेंस में चार साथियों के साथ कमल अपने बाप को ले चिंतातुर
होकर चल पड़ा.
किच्छा-पुलभट्टा और बहेड़ी
के बीच कोई वाहन दुर्घटना होने के कारण स्थानीय लोगों ने हुल्लड़ किया हुआ था और लम्बा
जाम लगाया हुआ था कई घंटों तक फंसे रहने के दौरान कमल ने जाम खुलवाने के लिए हंगामा
करने वालों व पुलिस वालों के बड़े निहोरे किये. एम्बुलेंस ऐसी जगह फंस रही थी, जहाँ से
आगे या पीछे कहीं नहीं निकला जा सकता था. इस बीच दुर्भाग्य ये रहा कि एम्बुलेंस में ऑक्सीजन सिलैंडर में गैस चुक गयी. नतीजन जीवनसिंह ने वहीं दम तोड़ दिया.
कमल अपने मृत पिता की
लाश पर खूब रोया. जाम लगाने वालों को गालियाँ देता रहा. आज उसकी समझ में आ गया कि सड़क
जाम करना कितना बड़ा गैरजिम्मेदाराना कृत्य है.
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जाके पैर न पड़ी बिवाई, सो का जाने पीर पराई।
जवाब देंहटाएंनव-संवत्सर पर हार्दिक मंगलकामनाएँ। कहानी "सड़क जाम" का ऑडियो निम्न लिंक पर सुना जा सकता है:
जवाब देंहटाएंरेडियो प्लेबैक इंडिया