डॉक्टरी व्यवसाय को
परमार्थ का कार्य माना जाता रहा है, पर अब इसका बुरी तरह बाजारीकरण हो गया है. इसमें बहुत विद्रूपता आ
गयी है.
हमारे शहर हल्द्वानी
में एक मेडीकल कॉलेज है, बड़ा राजकीय बेस अस्पताल है, सब सुविधाओं वाला जनाना अस्पताल है, आयुर्वैदिक व होम्योपैथी के सरकारी अस्पताल हैं, दर्जनों डाईग्नोस्टिक सेंटर्स
हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में प्राइवेट अस्पतालों की बाढ़ सी आ गयी है, जो बड़ी
भारी बिल्डिंगों में बड़े तामझाम वाले हैं. स्थानीय अखबारों में पूरे पेज पर अपना ऐड
देकर विज्ञापित रहते हैं. कहने को इनमें सभी आधुनिक चिकित्सा सुविधाएँ हैं, पर ईलाज
के नाम पर खुली लूट चल रही है. जिस पर किसी प्रशासनिक शक्ति का नियंत्रण नहीं है.
तगड़ी कंसल्टेशन फीस,
जरूरी/ गैर-जरूरी पैथोलॉजिकल जांचों, आपरेशन चार्जेज, दवाओं की ऊँची
दरें, भर्ती मरीजों के थ्री-स्टार होटलों के स्तर बेड चार्जेज; सब मिलाकर मरीजों को
आर्थिक रूप से निचोड़ लिया जाता है.
कुछ बड़े नामी प्राइवेट
अस्पतालों ने सरकारी पैनल पर होने के प्रमाण पत्र ले रखे हैं इनमें यदि कोई बीमाशुदा मरीज
(फ़ौजी / ई.एस.आई. कवर्ड/ मेडीक्लेम-बीमित ) आ पड़े तो उसका डिस्चार्ज
बिल अविश्वसनीय रूप से बड़ा बनाया जाता है, जिसे सरकार या बीमा कंपनियाँ चुकाने को मजबूर
होती हैं. ऐसा भी नहीं है कि इस लूट पर बीमा या सरकारी अधिकारियों की नजर नहीं पड़ती
होगी, पर लूट के हिस्सेदार कभी नहीं बोल सकते हैं.
कई उदाहरण हैं जहाँ बीमित मरीज को मामूली सी बीमारी में भी आई.सी.यू.
में लम्बे समय तक रोक कर रखा जाता है ताकि बड़ा बिल बन सके. हाल में एक डाईबिटीज के
मरीज का रात में शुगर लेवल कम होने से उसे कम्पन व अर्ध-चेतना हो गयी. घरवाले उसे
तुरन्त एक नामी प्राइवेट अस्पताल ले गए. ग्लूकोज का ड्रिप लगते ही मरीज आधे धंटे में
नार्मल हो गया, लेकिन जब अस्पताल वालों को बताया गया कि बीमार व्यक्ति का बेटा रुद्रपुर
के कारखाने में काम करता है और ई.एस.आई. कवर्ड है तो उसे चार दिनों तक अनावश्यक रूप
से आई.सी.यू में रखा गया और दवाओं व बेड चार्जेज का कुल बिल ५६,००० रूपये बना दिया. इस पर एकाएक विश्वास नहीं होता है, पर ये सब चल रहा
है.
गली मुहल्लों में प्रेक्टिस करने वाले फिजीशियन/ डॉक्टर मजबूर-मजलूम लोगों का कितना शोषण कर रहे है, कोई नहीं
जानता है. ऊपर से असली-नकली दवाओं का भेद करना मुश्किल हो गया है. इस तरह के गोरखधंधे-भ्रष्टाचार
की कोई सीमा नहीं रही है. आखिर में इस लाइलाज बीमारी को देखकर ऐसा लगने लगा है मानो पूरे कुँवें में भाँग पड़ी है.
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ये ठगी ही अब चिकित्सा कहलाती है। पेनल वालों का तो ये मरने के बाद भी (तक) भी इलाज़ करने की ताक में रहते हैं।
जवाब देंहटाएंराजीव जी अच्छे सेतुओं की दावत दी है आपने आभार हमें बिठाने का चर्चा में
जवाब देंहटाएंसच कहा, इस स्थिति के लिये विद्रूपता ही सही शब्द है।
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