सन 1960 में एक 20 वर्ष का नौजवान हिन्दुस्तान टाइम्स के विज्ञापन के माध्यम से राजस्थान की एक सीमेंट
फैक्ट्री में नौकरी पा जाता है, उसके कोई राजनैतिक संस्कार नहीं होते हैं. मिलनसारी स्वभाव में चुहुलबाजी का तड़का होने से वह वहाँ के समाज में जल्दी ही अपनी
पहचान बना लेता है. वह कोई और नहीं मैं ही हूँ.
राह चलते, बिना सोचे
समझे फैकट्री से अनुशासनहीनता के आरोप में नौकरी से निकाले गए एक कर्मचारी
हरिप्रसाद शर्मा से दोस्ती हो गयी. हरिप्रसाद ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे, पर उनके
अन्दर आक्रोश और खुराफात भरे हुए थे. वे कंपनी के मैनेजमेंट से खार खाए बैठे थे. अपने राजनैतिक गुरु स्वर्गीय श्री भंवरलाल शर्मा एम.एल.ए.(कांग्रेस) की शागिर्दी में बहुत अनुभव पा चुके थे. सन 1962 के
विधानसभा चुनावों में पार्टी टिकट पाने की कसरत में कांग्रेस से लेकर सोशिअलिस्ट पार्टी के दफ्तरों व सिपहसालारों के पीछे बहुत चक्कर काटे, लेकिन किसी ने टिकट नहीं
दिया तो भारतीय जनसंघ (जिसका तब उस क्षेत्र में कोई जनाधार नहीं था) ने पार्टी
टिकट दे दिया. लोग परिवर्तन चाहते थे और बहुत से लोगों की हमदर्दी भी हरिप्रसाद जी
के साथ थी. हालांकि भंवरलाल शर्मा बहुत वजनदार व्यक्तित्व वाले थे, सिटिंग विधायक
के अलावा हरिजन सेवक संघ और भारत सेवक समाज आदि अनेक संस्थाओं के प्रधान भी थे पर
हरिप्रसाद शर्मा ने अप्रत्याशित रूप से उनको हरा दिया था. मुझे तब पता नहीं था की ‘जनसंघ’ क्या चीज है, उसका सदस्य नहीं होते हुए भी हरिप्रसाद जी की
जिताने में भरपूर सहयोगी रहा.
कुछ समय बाद
हरिप्रसाद विधायक जी ने एक लकड़ी का ब्लैकबोर्ड बनवाकर मेरे घर भेज दिया, जिस पर मैं चॉक से तत्कालीन कांग्रेस सरकार विरोधी समाचार लिखकर तिराहे पर जगदीश पंजाबी की
दूकान के पास रखवा देता था. ये बोर्ड बहुत चर्चित रहा क्योंकि इसमें स्थानीय
जायकेदार समाचार भी होते थे और कभी कभी फैक्ट्री मैनेजमेंट पर भी चोट होती थी.
इस बीच मैं चुनाव
लड़कर सहकारी समिति के प्रबंधमंडल का अवैतनिक मंत्री भी बन गया. पर कांग्रेसी
नेताओं व फैक्ट्री मैनेजमेंट की आँख की किरकिरी भी बनता गया. (मैंने ‘मगर से बैर’ शीर्षक से एक विस्तृत लेख भी पूर्व
में अपने ब्लॉग पर डाला है.) आज मैं सोचता हूँ की ये सब मेरी नादानी और नासमझी थी. जिसका परिणाम यह हुआ की सन 1970 के कर्मचारी यूनियन के चुनावों से पूर्व ही मुझे सुदूर दक्षिण के
शाहाबाद (मैसूर- तब कर्नाटक नाम नहीं पड़ा था) कारखाने में स्थानांतरित कर दिया गया. मैंने कांग्रेस व यूनियन के नेताओं से
स्थानान्तरण रुकवाने के लिए कोई हाथाजोड़ी नहीं की, और जोश जोश में अपने परिवार के साथ
शाहाबाद पहुँच गया. वहां जाकर मालूम हुआ कि कंपनी क्षेत्र मे कन्नड़ माध्यम के स्कूल
हैं तथा हिन्दी माध्यम के लिए जिला मुख्यालय गुलबर्गा जाना होगा. किंकर्तव्यविमूढ़
अवस्था में मैं पत्नी व बच्चों को माता पिता के पास अल्मोड़ा अपने गाँव में छोड़
आया. वापसी में देश की राजधानी दिल्ली गया, जहां मेरे रिश्ते के जीजा जी (तयेरी दीदी के पति श्री मथुरादत्त भट्ट तब उद्योग
मंत्रालय में अंडर सेक्रेटरी के पद पर थे) के पास गया. उन्होंने पहले तो मुझे सत्ता के खिलाफ कारगुजारियों के
लिए डांटा फिर अगली कार्यवाही की सोचने लगे. भट्ट जी बहुत प्रभावशाली व्यक्ति थे. कुमाऊंनी
रामलीला में ‘रावण’ का किरदार भी अदा
किया करते थे, एवं कालांतर में संजय गांधी के
सहयोगी भी रहे थे. वे मुझे तत्कालीन उद्योगमंत्री स्व. फखरुद्दीन अली अहमद के
बंगले पर ले गये, पर उन्ही दिनों उनका कोई ख़ास निजी सचिव किसी रिश्वत काण्ड में फंसा
हुआ था, उन परिस्थितियों में उन्होंने कोई मदद करने में असमर्थता बता दी. उसके बाद
जीजाश्री मुझे स्व मोरारजी देसाई जी के बंगले पर ले गए, उन्होंने जल्दी से मेरी दास्तान
सुनाने को कहा फिर बोले, “ये बहुत छोटा प्रशासनिक मामला है. मैं
इसके लिए पालकीवाला (ए.सी.सी. के चेयरमैन) को कहना ठीक नहीं समझता हूँ.”
आज इतने वर्षों के बाद मैं खुद समझ रहा हूँ की हमारा वह प्रयास एक बन्दूक से मक्खी
मारने के सामान था.
शाहाबाद जाकर भी मैं
दिन-रात इस सोच विचार में रहा कि उत्तर भारत के हिन्दी क्षेत्र में किस प्रकार
अपनी बदली करवाई जाय, ताकि मेरा परिवार साथ रहे और बच्चों की पढ़ाई बाधित ना हो.
एक दिन मेरे दिमाग
में आया कि संसद सदस्य श्री अटलबिहारी बाजपेयी जी को मदद करने को लिखा जाए. मैंने
पूरा विवरण लिख कर उनको लिखा कि नानी पालखीवाला जी को कह कर मेरी बदली करवा दें. एक
साधारण डाक से मैंने अपना पत्र भेज दिया.
अटल जी से मेरी एक
छोटी सी मुलाक़ात तब हुयी थी जब वे सन 1968 में लाखेरी आये थे. मेरे दोस्त स्व. चन्द्रमोहन
चतुर्वेदी जी के टू-रूम क्वार्टर में उनके भोजन की व्यवस्था थी, और सिनेमा हॉल के मैदान में उनकी सभा हुयी थी.
हरिप्रसाद शर्मा, जो की 1967 के विधान सभा का चुनाव हार चुके थे, कर्ता धर्ता थे. मैं जनसंघ का सदस्य नहीं होते हुए भी इस लॉबी
से जुड़ा हुआ था. तब हरिप्रसाद जी ने मेरा परिचय सहकारी समिति के सेक्रेटरी के रूप
में कराया था. आज मैं सोचता हूँ कि उनसे, मेरे जैसे लाखों लोग मिलते रहे होंगे.
किस किस की याद रख सकते हैं.
मेरे पत्र भेजने के
चन्द दिनों के बाद ही अटल जी का एक हस्तलिखित पोस्ट कार्ड मुझे मिला कि “पालखीवाला
से मेरे ऐसे सम्बन्ध नहीं हैं. इस बारे में मैं बम्बई के कायकर्ता को लिख रहा
हूँ. प्रयास करते रहो, फल ईश्वराधीन है.”
उसी बीच एक अन्य धटनाक्रम
में मैं स्व. सुन्दरसिंह भंडारी (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बड़े नेता, जो बाद में
गुजरात के राज्यपाल भी रहे हैं) से शाहाबाद के सर्किट हाउस में मिला. मिला क्या, वे सो रहे थे और मैं अर्जुन की तरह
उनके पैरों की तरफ कुर्सी लगा कर बैठा रहा. वे जागे तो मेरी बात सुनने के बजाय, बिना इजाजत अन्दर आने की वजह से नाराज हो गए. मुझे उस दिन अहसास हुआ की मैं गलत
ट्रैक पर चल रहा था और मैं सीधे श्रीनिवास गुडी जी के पास गया. वे यहाँ एक स्थापित
और समर्पित कम्यूनिस्ट लीडर थे. किसान सभा व मजदूर संघों का काम देखते थे. शाहाबाद/वाडी
कर्मचारी यूनियन (एटक) के अध्यक्ष थे. उन्होंने मुझे बड़ी दिलासा दी और मदद का आश्वासन
दिया. मैंने परिस्थितियों से समझौता करने का निश्चय कर लिया और अपने बच्चों को वापस शाहाबाद
ले आया कोचिंग करवाई और यहाँ कॉन्वेंट स्कूल में दो वर्ष पीछे की कक्षाओं में भर्ती
करवाया. अंग्रेजी आधार मिलने से बाद में बच्चों को हायर ऐजुकेशन में बहुत लाभ हुआ.
सन 1972 में सीमेंट कामगारों
की 13 दिनों तक आर्थिक मांगों को लेकर एक देशव्यापी हड़ताल हुयी थी. मैं माईक पर मुखर हुआ
जिसके परिणामस्वरुप मुझे श्रीनिवास गुडी जी ने युनियन का जनरल सेक्रेटरी बना दिया. मैंने अल्पकाल में बहुत से काम मजदूरों के हित में
करवाए. मैनेजमेंट थोड़ा परेशान भी था क्योंकि ये ‘पीस जोन ’
डिस्टर्ब हो रहा था. मैनेजमेंट मेरी कमजोरी जानता था. मुझे हैड ऑफिस बम्बई बुलाया
गया और मुझे राजी करके वापस लाखेरी स्थानांतरित कर दिया गया.
इस बार मैं ट्रेड युनियन
कार्यकर्ता के रूप में वामपंथी संस्कार लेकर वापस आया था. खुद को पुन: संगठन में स्थापित
करने के लिए जद्दोजिहद की. यद्यपि बड़ी मुश्किल से सामंजस्य बिठा कर इंटक की युनियन
का अग्रणी लीडर बना रहा. लोगों का स्नेह था कि मैं अपने मिशन में सफल रहा.
आज रिटायरमेंट के १५ वर्षों
के बाद मुझे पुराने कागजातों में अटल जी का हस्तलिखित पोस्ट कार्ड जीर्ण अवस्था में
मिला तो सारे घटनाक्रम सिनेमा की रील की तरह चल पड़े. इसमें बड़ा सन्देश यह है कि, "प्रयास
करते रहो, फल ईश्वराधीन है." मैंने इसका चित्र लेकर यहाँ लगाया है. चित्र की ख़राब क्वालिटी के लिए क्षमा चाहता हूँ.
बहुत बढ़िया। अच्छा संस्मरण।
जवाब देंहटाएंएक जोशीले नौजवान को स्वार्थी नेताओं के बीच आशा की किरण ढूंढते देखना और फिर असलियत पहचानना अच्छा लगा। आम जनता नेताओं को नहीं उनकी छवि को जानती है। वाजपेयी जी पोस्टकार्ड देखकर अच्छा लगा, वह भी एक ज़माना था ।
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