2014 का लोकसभा चुनाव
अपना विशेष ऐतिहासिक महत्त्व रखता है क्योंकि इससे पहले सभी प्रबुद्धजनों का मानना था कि
देश में अब पूर्ण बहुमत वाली एक पार्टी सरकार नहीं आ सकती है, यानि ख्याल था कि अब जो बनेगी वह
खिचड़ी सरकार ही बनेगी. खिचड़ी सरकारों का हश्र हमने पूर्व में कई बार देख चुके हैं, जो कि बुरा ही रहा है.
इंडियन नेशनल कांग्रेस पार्टी के पराभव के अनेक कारण रहे हैं. ऐसा नहीं कि कांग्रेस सरकारों ने
कोई अच्छे कार्य या विकास के कार्य नहीं किये, लेकिन समय के साथ साथ उसमें दीमक सी
लग गयी थी; पुराने नेता अपनी बपौती समझने लगे थे, निगरानी तंत्र कमजोर होने से सर्वत्र भर्ष्टाचार पनप गया
था. पिछले वर्षों में बड़े बड़े घोटाले उजागर होते रहे; कोई दमदार नेता उभर कर नहीं
आया. अत: पार्टी बुरी तरह हाशिये पर आ गयी है.
नरेंद्र मोदी जी का
अभ्युदय देश में बहुत अरसे से जोर मारती हुई हिंदूवादी शक्तियों के एकीकरण या यों
कहिये दूसरी तरफ भी साम्प्रदायिक शक्तियों के ध्रुवीकरण के साथ आम लोगों में ‘परिवर्तन’
की तीव्र भावना के कारण स्वाभाविक तौर पर हुआ. यद्यपि भाजपा में भी बहुत से
अंतर्विरोध थे/हैं, पर मोदी जी ने अपने वाक्चातुर्य से सबको दबा दिया लगता है. कभी
कभी ऐसा भी लगने लगता है कि जिस तरह से इंदिरा गांधी वन-मैन आर्मी कही जाती थी, वैसे ही मोदी जी को भी अधिनायकवादी कहा जा रहा है. पर मोदी जी ने अल्पकाल में ही
अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी छवि बना ली है वह अभूतपूर्व है.
यूनाइटेड स्टेट्स अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा जी मोदी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित बताये जा
रहे हैं. मोदी जी ने उनको आगामी गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में बुला भी
लिया है. ओबामा जी का ‘मोदी प्रेम’/ 'भारत प्रेम’
के पीछे ओबामा के अपने संस्कार तो हैं, लेकिन अमेरिका एक ऐसा देश है जो अपने
राष्ट्रीय हितों के प्रति बहुत स्वार्थी रहा है. वह अपने व्यापारिक दृष्टिकोण से
निर्णय लेता है. विशेषकर अपने पुराने हथियारों के लिए मार्केट तलाशता रहता है. उसे
दक्षिण एशिया में वर्चश्व बनाए रखने के लिए आर्मी एवं नेवल बेस चाहिए. खाड़ी देशों में
तेल भंडारों पर अपना प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण चाहिए. पाकिस्तान जैसे धर्मांध
इस्लामिक देश को पालना उसकी नीति का जाना पहचाना चेहरा है. आज भारत के प्रति अमरीकी
नेतृत्व का प्यार कोई अबूझ पहेली नहीं है. अमेरिका में चाहे रिपब्लिकन पार्टी
सत्ता में हो या डेमोक्रेटिक पार्टी हो, दोनों की विदेश नीति में कोई सैद्धांतिक
भेद नहीं होता है. विगत सात वर्षों में पार्टी की लोकप्रियता घटने से बराक साहब की नजर
आगामी चुनाव के मद्देनजर वहां बसे हुए भारतीय मूल के निवासियों पर है, जो वोटों का बैलेंस बनाने
में मददगार सिद्ध होंगे. इसलिए एक समय जिसे घोर मानवाधिकार हनन करने वाला मान कर, अपने देश का वीजा देने से इनकार कर दिया था, उसपर अब हार्दिक प्यार जताया जा रहा है.
इधर चीन की अपनी
विस्तारवादी, विश्वासघाती नीति रही है; वह कभी नहीं चाहेगा कि कोई अन्य एशियाई देश
उसके मुकाबले में आगे आये अत: वह हमेशा से पाकिस्तान को थपथपाते हुए नेपाल, श्रीलंका व मालदीव को
प्रभावित करते हुए, भारत के भू-भागों को अपने नक्शों में चीन का हिस्सा बताता है, इसप्रकार भारत को रक्षा बजट पर
बांधे रखना चाहता रहा है. सीमा पर भी रोज छेड़छाड़ हो रही है. मोदी जी के साथ उनका झूले
पर पेंग मारना, दोस्ती का दिखावा मात्र है.
देश के अन्दर समाजवादी
नामक तत्व अब अपना असली रंग खो चुका है. वह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है, और मूल नीतियों
से हट कर परिवारवाद पर केन्द्रित होकर पूंजीवादी-सामंती व्यवहार में आ गया है. तमाम
क्षेत्रीय पार्टियों से भी आम लोगों का मोहभंग होता नजर आ रहा है. कुछ क्षत्रप हैं
जो अभी भी कुण्डली मार के बैठे हैं, पर मोदी जी के वर्तमान चमचमाती छवि उनको भी जल्दी
निगल जायेगी ऐसा सामने दीख रहा है. दिल्ली में केजरीवाल की स्थिति एक बरसाती नाले की
तरह है क्योंकि राजनैतिक पार्टी बना कर वे
अपने मूल चरित्र से भटक पड़े हैं.
सबसे बुरा हाल टुकड़ों
में बंटी हुई साम्यवादी पार्टियों का है, जो कि भारत के राजनैतिक परिदृश्य में हाशिये
के भी पल्ली तरफ जा पहुचे हैं. हाँ, कुछ अतिवादी जो अपने को आज भी साम्यवादी बताते हैं
नक्सलवादियों के रूप में नासूर बने हुए हैं. सत्ता पर काबिज होने का इनका सपना दूर
की कौड़ी है मात्र दिवादु:स्वप्न है.
ये सियासत है, सबके अपने
अपने नजरिये और स्वार्थ हैं, जो लोग कल तक विपक्ष में थे आज सत्तानशीं हैं. जो सत्ता
में थे. उनको अभी भी सत्ता के सपने आ रहे हैं. कहते हैं कि कुल्हाड़ी दूसरों के कंधे
पर हल्की नजर आती है. जब आप पर जिम्मेदारी आती है, तब आपसे ही सवाल पूछे जायेंगे. देश
के अन्दरूनी हालात क्यों नहीं बदल रहे हैं? सीमाओं पर जवान रोज शहीद हो रहे हैं, नक्सलवादी
तथा आतंकवादी रोज पूर्ववत वारदातें कर रहे हैं, विदर्भ में किसान आज भी आत्महत्या करने
को मजबूर हैं, ठेकेदार आज भी मजदूर का हक मारकर इंजीनियर/नेता जी को मोटा करता जा रहा
है. पर आशावादी लोगों का कहना है कि नई सरकार को और समय चाहिये क्योंकि समस्याओं की
जड़ें बहुत गहरी हैं.
कुल मीजान ये है कि ‘मोदी’
नाम के इस धूम्रकेतु को सभी प्रशसक उगते सूर्य की तरह अनुशंसा कर रहे हैं, पर सूर्य तो
सूर्य है, जिसके प्रभाव और प्रकाश से सारी कायनात अस्तित्व में है.
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (08-12-2014) को "FDI की जरुरत भारत को नही है" (चर्चा-1821) पर भी होगी।
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सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
bahut sunder aalekh....
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