हमारे पूरे अंचल में ‘तारबाबू’
के नाम से प्रसिद्ध हीरावल्लभ भट्ट अब अपनी उम्र के 95 बसंत देख चुके हैं. बुढ़ापा सबसे बड़ी बीमारी है, और उसमें भी अकेलापन बड़ी त्रासदी है. कभी कभी तो तारबाबू उन
तमाम लोगों को गालियाँ देने लगते हैं, जो अब भी उनकी और लम्बी उम्र की दुआ करते
हैं. क्यों ना हो, जब आँखों की रौशनी बहुत घट जाये, कान जवाब देने लग जाएँ और आदमी
चलने-फिरने में लाचारी महसूस करने लग जाए तो जीवन दुखदायी हो जाता है. पर क्या करें, ऊपर वाला कभी भी किसी के
लिए उसकी मौत की तारीख का खुलासा नहीं करता है और माँगने से मौत भी नहीं देता है.
उनकी पैदाईश पिछली सदी
के तीसरे दशक के प्रारम्भ में हुई थी. इलाहाबाद जाकर एंट्रेंस पास करने के बाद वे
डाक विभाग में क्लर्क/तारबाबू बन गए थे. भगवत कृपा थी, घर में पिता के समय से ही
धन-धान्य व अमन सुख था. विवाह हुआ पत्नी लाछिमा देवी एक समर्पित सदगृहणी मिली. देर
से ही सही घर में वैभव और विराट दो जुड़वा पुत्रों का जन्म हुआ. कालांतर में दोनों लायक बेटों ने लखनऊ जाकर
उच्च शिक्षा प्राप्त की. बाद में एक बेटा अपनी पत्नी व बच्चों के साथ लन्दन जाकर बस गया. दूसरा बहुत समय तक तो स्वदेश में ही था, परन्तु अवसर पाकर अपनी पत्नी सहित
आस्ट्रेलिया चला गया. बच्चे विदेश जाकर खूब कमायें, गाहे बगाहे माँ-बाप के हालचाल
लेते रहें, तथा आर्थिक रूप से मदद करते रहें, तो सबको लगता है कि माता-पिता बहुत
भाग्यवान हैं.
सत्तर के दशक में
सरकारी नियमों के अनुसार 58 वर्ष की उम्र में वे रिटायर हो गए थे. तब वे पोस्ट एंड
टेलीग्राफ में पूरे डिविजन के बड़े अधिकारी बन चुके थे. जब वे फकत तारबाबू हुआ करते
थे, तब आज की तरह टेलेकम्यूनिकेशन सिस्टम एस.टी.डी., मोबाईल फोन या तीव्र संवाद प्रेषक इलैक्ट्रॉनिक साधन भारत में नहीं आये थे. टेलीग्राफ का ‘टक
टक –डिस' आवाज से संवाद सम्प्रेषण सुलभ साधन था.
तारबाबू ने अपने कार्यकाल में ना जाने कितने तार भेजे या प्राप्त किये उनका
लेखा-जोखा अलग से रखा जाता तो आज जरूर वह गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज
होता. अब जब टेलीग्राफिंग बंद हो गयी है तो भट्ट जी को लगता है की उनके सतयुग का
अंत हो गया है.
तारबाबू बहुत
संवेदनशील व सहिष्णु व्यक्ति रहे हैं. जब भी दूर दराज गांवों के लोगों/ महिलाओं के
नाम कोई तार आता था तो वे उन की मजबूरियों को ध्यान में रखते हुए उस सन्देश का
हिन्दी अनुवाद भी साथ में लिख कर दे दिया करते थे क्योंकि ग्रामीण लोगों को तार
पढ़वाने में बहुत दिक्कत होती थी. कभी कभी तो अर्थ का अनर्थ भी हो जाता था. पड़ोसी
देशों से लड़ाई/युद्ध के दिनों में जब सिपाहियों के शहीद होने या गुम होने की खबर
उनके पास आती थी तो वे खुद भी बहुत बेचैन हो जाया करते थे.
तारबाबू ने अपने जीवन
में अनेक अनुभवों को आत्मसात करते हुए रिटायरमेंट के बाद नैनीताल जिले के रमणीक
स्थान भीमताल में अपना एक सुन्दर सा घर बनवाया. पति-पत्नी दोनों प्राणी सुखपूर्वक रह
रहे थे. बेटे अपने बीवी-बच्चों सहित साल-दो साल में अवश्य आकर उनका उत्साह कम नहीं
होने देते थे. रिटायरमेंट पर जो विभागीय फोन उनके आवास पर लगा था वह कई सालों तक
सम्पर्क स्रोत बना रहा तब मोबाईल क्रान्ति नहीं हुई थी. दुर्भाग्य ये हुआ की
रिटायरमेंट के दस साल बाद सुलक्षिनी अर्धांगिनी का थोड़ी ही अस्वस्थता के बाद
देहांत हो गया. बच्चे रिश्तेदार सब मातमपुर्सी के लिए आये और चले गए. तारबाबू उसके
बाद नि:सहाय अकेले रह गए. बेटों ने उनसे बहुत आग्रह किया कि अब वे उनके ही साथ
रहने के लिए चलें, पर उनका मन नहीं माना. जिन अरमानों के साथ अपना आशियाना
बनाया था और जिसमें लछिमा देवी की छाया बसी हुयी थी उसे छोड़ना उनको बिलकुल नहीं
भाया. अत: निपट अकेले रह गए. हाँ, घर का कामकाज व देखभाल के लिए बागेश्वर के दानपुर
क्षेत्र का एक सेवक दरबानसिंह उनको मिल गया और तब से वही उनका पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर सब कुछ है. दरबानसिंह अपने मालिक तारबाबू को अच्छी तरह से समझने लगा है. उनकी हर जरूरत का ध्यान रखता आया है. पर लछिमा देवी की बात कुछ और ही थी, पति या
पत्नी के आपस में बिछुड़ने के बाद उनकी जो कमी महसूस की जाती है उसे कोई भी वफादार
सेवक पूरा नहीं कर सकता है.
छ: साल पहले जब वैभव
भारत आया था तो तारबाबू ने उसको बताया कि बी.एस.एन.ल के लैंडलाइन फोन अकसर डेड हो जा
रहे हैं इनकी बहुत बार शिकायत करनी पड़ रही है, तो वैभव ने पिता के लिए
एक स्मार्ट फोन खरीद दिया और लैंड लाइन को हटवा दिया. उसने उनको फोन के तमाम फंक्शन समझा दिए लेकिन तारबाबू की अंगुलियां इस बेतार के टच स्क्रीन के ऐप्स पर
नहीं चल पा रही थी. उनको अब बेटों से खुद फोन करके बात करने में परेशानी होने लगी
थी. नजरों में कमी तो थी ही, सुनने में भी दिक्कत होने लगी थी. फोन आने पर कानों में
माईक्रोफोन के तार लगा कर सुना करते थे. इस तरह काम चला रहे थे.
पिछले 20-25 दिनों से
उनके फोन में कोई घंटी नहीं बजी. तारबाबू परेशान रहने लगे. दरबान तो बेचारा इस बारे में कुछ समझता नहीं है इसलिए मालिक की कोई मदद
नहीं कर पा रहा था. आशंकाएं ये थी कि या तो फोन खराब हो गया है या बच्चे लापरवाह हो गए हैं. वे अब ये भी सोचने लगे कि “मुझसे तो ये सर्व साधारण लोग अच्छे हैं, जिनके बच्चे परिवार पास पास रहते हैं, दुखी-सुखी, लड़ना-झगड़ना भी तो जीवन का आनंद
ही है”. कभी इस हद तक विचार करते हैं कि “मैंने
पिछले जन्म में जरूर कोई ऐसा पाप किया
होगा जिसका फल मुझे इस विछोह की त्रासदी के रूप में मिल रही है”.
इस प्रकार अनेक मनोविकारों से ग्रस्त तारबाबू का संदेह पक्का होता जा रहा था कि “बच्चे
जरूर फोन मिला रहे होंगे, और मेरे फोन में ही खराबी आ गयी है.”
रात-दिन फोन में ही ध्यान रखने लगे जब प्रतीक्षा लम्बी हो गयी तो एक दिन दरबान को
साथ लेकर बाजार में मोबाईल रिपेयरिंग शॉप तलाश करके मैकेनिक से फोन दुरुस्त करने को
कहा. इस वक्त उनको अपने उन पुराने दिनों की याद ताजा हो आई जब लोग अपने प्रियजनों
से तार द्वारा संपर्क साधने के लिए पोस्ट आफिस में चिंतातुर हालत में
उनके पास आया करते थे.
मैकेनिक ने मोबाईल
फोन को जांचा-परखा और बोला, “बाबू जी, इस फोन में कोई खराबी नहीं है.” ये सुन कर तारबाबू
बहुत भावुक हो गए उनकी धंसी हुयी आँखों की कोटरे आसुंओं से भर आई. अवश्य ही बच्चों
ने उनको कोई फोन नहीं किया होगा. सब लापरवाह हो गए हैं.
तारबाबू ने मैकेनिक
को अपने परदेसी बेटों के फोन नंबर दिए. एक एक कर दोनों को फोन मिलाये, वे “हैलो-हैलो" करते रहे, पर तारबाबू के गले से कोई शब्द नहीं निकल पाया, गला
बुरी तरह रुंधा हुआ था, आँखें नम थी.
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bahut maarmik
जवाब देंहटाएंमैं भी ब्रह्माण्ड का महत्वपूर्ण अंग हूँ l
New post भूख !
सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (24-02-2015) को "इस आजादी से तो गुलामी ही अच्छी थी" (चर्चा अंक-1899) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'