दर्द दिल-ओ-दिमाग का एक
ऐसा अहसास है जो प्राणीमात्र को तड़पा देता है. कहा गया है कि "जाके
पैर फटे ना बिवाई सो क्या जाने पीर पराई" सच में, दर्द चाहे शारीरिक हो या मानसिक उसका
अहसास तभी होता है, जब खुद पर आ पड़ती है.
दर्द को दुनिया के तमाम
भाषाओं में कोई भी नाम दिया गया हो, पर अहसास सबका वही पीड़ा ही है. अंग्रेजी में "pain" व अन्य यूरोपीय भाषाओं में कहीं पीन, कहीं पाईंन, कहीं पैन उच्चारित
किया जाता है, पर टीस या पीड़ा सभी की एक है. हमारे शायरों/आशिकों ने दर्द-ऐ-दिल का प्रयोग अपनी अभिव्यक्तियों में बहुतायत से किया हुआ है. भावनात्मक दर्द-ऐ-दिल के बारे में कहा जाता है
कि इसकी कोई कीमियाई दवा भी नहीं है. हाँ शारीरिक दर्दों के लिए मेडिकल साइन्स इतना आगे बढ़ चुका है, कि दर्दरोधक या दर्दनाशक औषधियां चोट-घाव, टूटफूट व ऑप्रेशन के समय तंत्रिका को सुन्न
करके असहनीय दर्द से बचाते हैं.
दर्द चाहे सर में हो,
पेट में हो, कान-नाक-गले या दांत में हो, चैन नहीं लेने देता है. एक छोटा सा काँटा
पैर में चुभ जाए अथवा धूल का कण आँख में घुस जाए तो बहुत बेचैनी हो जाती है. दुर्घटनाओं
में शरीर की अंदरूनी चोट या कैंसर जैसे असाध्य रोग में दर्द से कराहते लोगों को देखने
भर से संताप होता है. जो लोग अनियमित भोजन या नशीली चीजों का सेवन करके अपने लीवर को
खराब कर लेते हैं, और असाध्य दर्द को निमंत्रण देते हैं, उनको इसकी बड़ी भारी कीमत चुकानी
पड़ती है. इसलिए आप्तोपदेश में बार बार कहा गया है कि सदाचारी जीवन जीने से डॉक्टर-वैद्य की जरूरत नहीं पड़ती है. शरीर तो सबके नश्वर होते हैं. आयु सीमा भी सीमित होती है. जीवन
यात्रा समापन से पहले कई तरह के दर्द बुढ़ापे में स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होने लगते
हैं. ये प्रकृति की प्रक्रिया है. जो लोग ज्ञानी या योगी होते हैं, वे अपने संकल्पबल
या योगबल से कम से कम दर्दों का अहसास करते हुए संसार त्यागते हैं.
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