ए.सी.सी. को 2006 में स्विस
कंपनी होलसिम ने अधिग्रहित कर लिया था. उससे पहले अम्बुजा सीमेंट कंपनी को भी खरीद
लिया था और अब फ्रैंच कंपनी लाफार्ज ने होलसिम को खरीद लिया है. अब ये ‘लाफार्ज
होलसिम’ हो गयी है. इन बड़ी विदेशी कंपनियों का भारत में व्यापार करने का
उद्देश्य मात्र मुनाफ़ा कमाना होता है. वैसे भी पाश्चात्य देशों के कल्चर में लोग ‘आज’ के लिए जीते हैं. अत:
कल परसों यानि भविष्य को केवल व्यापारिक नजरिये
से सोचते हैं. जबकि हम लोग सोचा करते हैं, ‘ये मेरी अपनी/ पुश्तैनी कंपनी है’,
‘इससे मेरी पहचान है’, या ‘ये हमारी कंपनी माता है’.
समय हमेशा परिवर्तनशील
होता है. इतिहास में कई बार अनपेक्षित घटनाएं घटती रहती हैं. मैंने हाल में अपने लाखेरी
(बूंदी,राजस्थान) सीमेंट कारखाने के पिछले लगभग १०० वर्षों का देखा-सुना इतिहास फेसबुक
पर LAKHON K LAKHERIAN ग्रुप में शब्दबद्ध किया है. बहुत सी बातें
मेरे लेखन में छूट भी गयी होंगी, पर पूरे प्रकरण में एक ईमानदार भावनात्मक अपनापन है
इसलिए पाठकों व सम्बंधित मित्रों ने इसकी बहुत सराहना की है. मेरे एक मित्र ने लिखा
है कि “पिछले पन्ने व इसके परिशिष्ट पढ़कर ऐसा लगा जैसे नानी-दादी ने दंतकथाएं
सुनाई हैं.”
अब जब मैं आज की स्थिति
का विश्लेषण कर रहा हूँ तो पा रहा हूँ कि कंपनी की ‘ऊपर की व्यवस्था’
में भारतीयता वाला संस्कार जिसे ‘चैरिटेबल थिंकिंग’
नाम दिया जा सकता है, लगभग गायब सा होता जा रहा है. कंपनी के विदेशी मालिकों को अब शायद
‘सीमेंट हाउस’ की भी दरकार नहीं होगी. अम्बुजा का कॉर्पोरेट ऑफिस जो मुम्बई में अंधेरी में है, उनका मुख्यालय हो जाएगा. भूपेंद्रा की जमीन जायदाद
तीन सौ करोड़ में किसी बिल्डर को बेची जा चुकी है. दिल्ली में ओखला वाली जमीन जायदाद
भी बेच कर टके कर लिए हैं. मुम्बई-थाणे स्थित रिसर्च इंस्टीच्यूट व सम्बंधित कार्यालय
का भविष्य/आवश्यकता अधर में है. वहां ए.सी.सी. द्वारा बसी-बसाई कॉलोनी डिमोलिश करके बहुमंजिला
इमारतें बनाये जाने की चर्चाएँ जोरों पर है. और भी बहुत सी बातें हैं, जिन पर फैसले नए
मालिक अपने प्रॉफिट वाले चश्मे से लेने वाले हैं. आगे आगे देखिये होता है क्या! पर निराश होने की जरूरत नहीं है क्योंकि ये दुनिया
ऐसे ही चलती आई है, चलती रहेगी.
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