यों तो मेरा नाम
इस्लाम मोहम्मद है, धर्मपरायण मौलवी साहब और मेरे अम्मी-अब्बू ने ये नाम बहुत खुशी
खुशी दिया होगा. ये नाम ऐसा है कि इसके उच्चारण से ही मालूम हो जाता है कि मैं धरम
से मुसलमान हूँ. पहली झलक में ही ये नाम ट्रेडमार्क की तरह मेरी पहचान है.
मैं उत्तर प्रदेश के
उस इलाके के ग्रामीण परिवेश में बड़ा हुआ हूँ, जिसे मुजफ्फर नगर-मेरठ कहा जाता था. पिछले साल मेरे परिवार ने भी हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों/दंगों की त्रासदी झेली है.
राजनैतिक रोटियाँ सेकने वालो ने इस इलाके का भाईचारा बिगाड़ कर रख दिया है, जिसके
घावों को भरने में लंबा समय लग सकता है. शंकाएं, असहिष्णुता, व डर के भूत आज भी दिन
रात सताते हैं.
मैं अपने वाल्देन की
सात संतानों में सबसे बड़ा हूँ. मैं जब आठ साल का हुआ तो मुझे मेरी फूफी के पास
मेरठ शहर में भेज दिया गया जहां मैं फूफा की छोटी सी मोटर रिपेयेरिंग वर्कशाप में
काम सीखने लग गया था. मैंने कुछ ही सालों में स्कूटर, बाईक और मोटर कार
रिपेयरिंग सीख लिया था तब मुझे अच्छा जेबखर्च मिलने लगा. १८ साल का होने पर
मेरे फूफा ले मेरा ड्राईविंग लाईसेंस भी बनवा दिया था मेरे गाँवखेडा के चचा
दिलावरखान पेपर मिल में ड्राईवरी करते हैं, जिन्होंने मेरी नौकरी वहाँ के एक
मैनेजर उपाध्याय साहब के प्राईवेट ड्राईवर के बतौर ६००० रूपये माहे पर लगा दी तो मेंरी जिन्दगी की गाड़ी बढ़िया ढंग से चल पड़ी.
मैंने साहब की होंडा सिटी कार चार सालों तक चलाई। साहब पहले तो मुझे बच्चा समझ कर नौकरी देने में बहुत झिझके थे, पर बाद में
पूरा भरोसा करने लगे थे. चूँकि मैं मैकेनिक भी था इसलिए वे मेरी अहमियत समझने लगे
थे. मैं उनके बच्चों के साथ खूब घुलमिल भी गया था. उनके वहा काम करते हुए खुद के
मुसलमान होने का या उनके हिन्दू होने का वैभिन्य भाव कभी प्रतीत नहीं हुआ. उसी बीच
मेरी शादी भी गाँव में हुई तो साहब ने मेहरबानी करके अपनी कार मुझे शादी समारोह में
ले जाने के लिए दे दी, जिससे मेरे परिवार नाते रिश्तेदार भी खुश हो गए थे. निकाह के
वक्त खुद हाजिर होकर साहब ने मेरी शान बढ़ा दी थी. बाद में जब साहब की बदली दिल्ली
को हो गई तो मैं भी उनके साथ ही दिल्ली आ गया था. मेरे रहने का इंतजाम एक डॉरमेटरी
में था जहां अन्य बहुत से ड्राईवर भी रहते थे आपस में नोकारियों और तनखाह की बातें
होती रहती थी. उनमें कुछ तो बड़ी तनखाह वाले भी थे. मुझे लगा कि मुझे कम तनखाह मिल
रही है. एक दिन मैंने उपाध्याय साहब की नौकरी छोड़ कर एक कर्नल साहब (सरदारजी) के
वहाँ दस हजार रुपयों की नौकरी पकड़ ली. कर्नल साहब की गैराज में तीन गाड़ियां थी, पर
तनखाह बढ़ने के साथ ही यहाँ मेरी नौकरी चौबीसों घंटे की हो गयी थी. कर्नल साहब बड़े
सख्त मिजाज के हैं. उनका गुर्राना, डांटना मुझे बहुत खलता था. मेरा चैन हराम हो गया
था. जैसे तैसे एक साल काम किया फिर एक दिन जब नहीं सहा गया तो मैंने वह नोकरी भी
छोड़ दी.
मैंने उपाध्याय साहब
को जाकर सारी बात बताई और फिर से काम पर रखने का आग्रह किया, लेकिन उनके पास दूसरा ड्राईवर व्यवस्थित हो कर
काम कर रहा था. मुझे उन्होंने भरोसा दिया कि जब भी जरूरत पड़ेगी फोन करके बुला
लेंगे.
मैं पिछले आठ महीनों
से बेरोजगार हूँ. गाँव में अपने परिवार के पास ही रहता हूँ. इस बीच मेरे भी दो
बच्चे हो गए हैं. ये बेरोजगारी का दर्द वही समझ सकता है, जिसे ये व्यापी हो. मैंने
कई जगह नौकरी के लिए संपर्क किया लेकिन बड़े दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि मेरा नाम
अब मेरी नौकरी के आड़े आने लग गया है. जब से देश में सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ा है, हिन्दू मालिक मुझ से बिदक जाते हैं. रहा सहा दुनिया में निरीह लोगों को मारने वाले
आतंकवादियों ने माहौल में इस कदर जहर घोल दिया है कि कोई मुझे काम पर रखने को
तैयार नहीं हो रहा है. हालाकि एक बड़े नेता ने यों भी कहा है कि “सारे मुसलमान
आतंकवादी नहीं हैं, पर सारे आतंकवादी मुसलमान हैं.” अब अगर दिल चीर कर
दिखाया जा सकता तो मैं भी जरूर दिखा देता, परन्तु निर्दोष होने का प्रमाण पत्र कहाँ
से लाऊँ. देश के बहुत से माननीय साधू संत, सन्यासी, साध्वी इस्लाम के बारे में जिस
तरह की भाषा बोल रहे हैं, उन पर कोई लगाम नहीं है और ना ही वोटों की राजनीति करने
वाले मुसलमानों के रहनुमाओं के ‘बोलों’ पर कोई लगाम है.
बहरहाल इन सबका असर मेरे जैसे गरीब मेहनतकश के चूल्हे पर पड़ रहा है.
इस बीच उपाध्याय साहब
का एक फोनकाल आया कि दो तीन दिन का काम है, तो मैं दिल्ली आया. मुझे बताया गया कि उपाध्याय
जी के पिता यानि ‘बाबू जी’ को किसी ख़ास
रिश्तेदार के घर वृन्दावन लेकर जाना है, जहाँ पर किसी रिश्तेदार की मौत हुयी थी.
बाबू जी को मैंने पहले भी देखा है वे कर्मकांडी, तिलकधारी पंडित हैं, पर मुझ से वे
अपने पोते की तरह व्यवहार करते हैं. मैं बाबू जी को साहब की छोटी गाड़ी में वृंदावन
लेकर गया एक बड़े से सजीले शोकाकुल बंगले पर हम पहुचे तो गाड़ी से उतरते ही बाबू जी
ने मुझसे झुक कर कहा, “यहाँ तुम्हारा नाम प्यारेलाल
रहेगा, समझे!” और मैं समझ गया.
मेरे रहने –ठहरने
व खाने की व्यवस्था परिवार के लोगों के साथ ही थी. तीसरे दिन तेरहवीं होने के बाद
जब सब विदा होने वालों को तिलक-रोली लगाकर विदा किया जा रहा था तो मुझे भी बदस्तूर
दक्षिणा दी गयी.
बाबू जी वापसी के लिए
जब गाड़ी में बैठे तो मुझ से बोले, “चल इस्लाम, अब चलते हैं.”
तब भावविभोर होकर
मैंने बाबू जी से कहा, “बाबू जी अब मैं प्यारेलाल ही ठीक हूँ,
आप इसी नाम से मुझे पुकारा कीजिये.”
***
प्यार का भाव सब नामों से ऊपर है।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-02-2016) को "हँसता हरसिंगार" (चर्चा अंक-2245) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
श्रीमान जी, आपकी इस कहानी में एक विशेष समुदाय के व्यक्ति की उन परिस्थितियों को बड़े ही सुन्दर ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। जो वास्तव में ही शानदार है। आपको सूचित करते हुए हमें खुशी है कि आपके ब्लाॅग को हमने Best Hindi Blogs में सम्मिलित किया है और आपकी इस पोस्ट को आईब्लाॅगर में आपके चिट्ठे का लिंक देकर Visit Here प्रकाशित भी किया है।
जवाब देंहटाएंजय हो!
जवाब देंहटाएंबेरोजगारी के सन्दर्भ में समस्या वैसे तो हर जगह है लेकिन मुस्लिम समुदाय में यह बहुत चिंताजनक स्तर पर है पर यदि सहृदय व्यक्तियों का सहयोग मिल जाय तो यह समस्या भी फिर वैसी ही न रहे घटना का रोचक ढंग से वर्णन करने के लिये धन्यवाद जीवनसूत्र
जवाब देंहटाएं