सन १९८४ में मैं ए.सी.सी. के लाखेरी कारखाने में कार्यरत था. किसी कार्यवश अपने कॉर्पोरेट आफिस (सीमेंट
हाउस, चर्चगेट) मुम्बई गया था. वहां प्रवेश द्वार के पास स्वागत कक्ष के सामने एक
भव्य, विशाल दृश्यावली वाली तस्वीर प्रदर्शित की गयी थी. उसे देखते ही मुंह से निकल पड़ा, "वाह." दृश्य बहुत मनोहारी था. नीले अम्बर के नीचे बड़े-बड़े खड़े पहाड़, जिनके तल पर गाँव-खेत और नीचे बीचोंबीच
सर्पीली नदी, और तलहटी में एक नया सीमेंट कारखाना स्थापित हुआ था, जिसे नाम दिया
गया था "गागल" (वैसे गागल हिमांचल
में ही धर्मशाला के पास एक अन्यत्र स्थान का नाम भी है). यहाँ पहले से बसे गाँव का नाम बरमाना है.
सन १९९७ में मुझे
यूनियन प्रतिनिधि के रूप में उत्तर-पश्चिम भारत के माईन्स विभाग द्वारा आयोजित एक
सिम्पोजियम में भाग लेने के लिए यहाँ आना हुआ तो मैं अति उत्साहित था क्योंकि यहाँ
की सुरम्यता मेरे मन मस्तिष्क में पहले से विद्यमान थी. जब मैं यहाँ पंहुचा तो सीधे
ए.सी.सी. के सतलुज गेस्ट हाउस में ले जाया गया, जहां से मंत्रमुग्ध करने वाली नैसर्गिक
छटा का दर्शन सुलभ था.
सतलुज नदी, जिसे
प्राचीन साहित्य में ‘सत्द्रुत’ कहा गया है, अपनी
लाखों वर्ष पुरानी तेज धारा को निनादित
करती हुई अविरल बहती जाती है. अब तो व्यास नदी का भी जल सुरंगों के माध्यम से
इसमें लाया जाता है, जो आधुनिक भारत के तीर्थ भाखड़ा डैम में जाकर मिलता है. सतलुज के
किनारे पर प्राचीन कस्बा डेहर बसा हुआ है जो किसी जमाने में हिमांचल का मुख्य
द्वार व व्यापार का केंद्र भी रहा होगा.
उसके पृष्ट पर पर्वत मालाएं हैं, जिन पर दूर से ही देवालय-देवस्थानों के दर्शन होते
हैं.
कुल्लू-मनाली मार्ग
पर बरमाना एक छोटा सा गाँव किसी समय मात्र १०-२० घरों की बस्ती रही होगी. बिलासपुर
से आगे घाघस पार कर जहां पंजगाई-बैरी तक हम आते हैं तो घाटी के गोद में बसे हुए इस
बड़े सीमेंट उद्योग की कल्पना नहीं करते हैं, लेकिन जब पूरा परिदृश्य सामने होता है
तो कंपनी के उन कर्णधारों को साधुवाद कहने का मन होता है जिन्होंने इसकी स्थापना
की परिकल्पना की होगी. जहां इस कारखाने के उत्पादन से राष्ट्रनिर्माण हो रहा है
वहीं इस पूरे इलाके के वैभव में अपार वृद्धि हुई है.
कारखाने और रिहायसी कालोनी के आसपास जो सघन वृक्षारोपण हुआ है, उससे ये क्षेत्र अनुपम हो गया है. इसके
साथ ही जो जो पुष्पवाटिका सतलुज उद्यान के आसपास पल्लवित और पुष्पित की गयी है, उससे इसे जंगल में मंगल की संज्ञा दी जा सकती है. खदान और कारखाने के बीच में एक
फलोद्यान भी बनाया गया है, जहाँ हर आने जाने वाले विशिष्ठ व्यक्ति द्वारा एक पौधा
लगाया जाता रहा है. मैंने भी एक आम का पौधा यहाँ लगाया था. तब इस कारखाने के
प्लांट हेड सूरी जी व माईन्स मैनेजर चावला जी थे, जिनके द्वारा किया गया स्वागत-सत्कार
की यादें इतने वर्षों के बाद भी जेहन में ताजा हैं.
ये
संयोग रहा कि मेरा कनिष्ठ पुत्र प्रद्युम्न सन २००६ में इसी कारखाने में एच. आर. हेड
स्थानान्तरित होकर आया. और मैं अगले तीन वर्षों तक उसकी पोस्टिंग के दौरान यहाँ रहा आता जाता रहा. श्री वासुदेव ठाकुर का जिक्र करना भी मैं नहीं भूलूंगा, जिन्होंने गागल को खूबसूरत
बनाने में ही अपने सुनहरे दिन बिता दिए. वे अब रिटायर हो चुके हैं. इसके अलावा डॉ. पुष्पेन्द्र
हांडा, जो वर्षों तक गागल के प्राण रहे, अब मुम्बई की वादियों में रह कर जरूर पुराने घरौंदे को याद करते होंगे. गागल में लाखेरी मूल के अनेक कर्मचारी आज भी कार्यरत हैं. ए.सी.सी. का पुराना कर्मचारी होने के नाते मुझे
ये जानकर आनंद व सुख का अनुभव होता है कि ये कारखाना बहुत अच्छी स्थिति में चल रहा
है. सब को शुभ कामनाएं.
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