मेरे शहर हल्द्वानी
में अनगिनत फेरीवाले कबाड़ी हैं. ये साईकिल पर सवार होकर गली-गली बस्ती-बस्ती आवाज लगाते जाते हैं. लोहा,
पीतल, अल्म्युनियम आदि धातुओं से लेकर कांच के बोतल, प्लास्टिक का टूटा-फूटा सामान, तथा रद्दी अखबार, गत्ते, पुरानी कॉपी किताबें, सब कुछ ओने-पौने भाव में खरीद कर ले
जाते हैं, और उसे कबाड़ के बड़े व्यापारियों तक पंहुचाते हैं. इन बेकार समझी जाने
वाली चीजों की रीसाईक्लिंग होती है. ये धंधा कब शुरू हुआ इसका कोई निश्चित इतिहास
नहीं है. मैं सोचता हूँ कि अगर ये कबाड़ यों ही घरों में पड़ा रहता है तो बदसूरत ढेर सा लगता है, पर अपने सही मुकाम पर पहुंचकर रूप बदल लेता है. ये जहाँ एक तरफ से सफाई है, दूसरी तरफ कुछ लोगों की आजीविका है. धूप हो, गर्मी हो,
बारिश हो, या ठंड का मौसम हो, ये निरंतर फेरी लगाने वाले गरीब लोग अपने परिवारों का पेट पालने के लिए कसरत करने पर मजबूर रहते हैं. हल्द्वानी में अधिकांश कबाड़ी मुस्लिम हैं. किताबों व अखबारों को उठा कर तो ले जाते हैं, पर शायद ही पढ़-लिख पाते हों. यदि पढ़ना आता भी होगा तो उन्हें पढ़ने की फुर्सत नहीं होती होगी.
कबाडियों का ये माजरा
केवल हल्द्वानी तक ही सीमित नहीं है. देश के सभी छोटे बड़े शहरों-कस्बों में ये
डंडीमार तराजू लेकर दर दर आवाज देते हैं. बहुत से लोग मजबूर व मजलूम भी होते होंगे, लेकिन कुछ
शातिर भी होते हैं. आखिर हैं तो हमारे ही समाज से, जिसमें अनेक अन्दुरुनी विकृतियां हैं. यह पेशा ही ऐसा है कि अगर तोल में नहीं मारेंगे तो कमाई बहुत कम हो जायेगी. ठगते
भी इस बखूबी से हैं कि आप देखते ही रह जाएंगे. इस कूड़े कबाड़ को बेचने वाले भी कम चिकचिक नहीं
करते हैं. आप लाख कमाते हों, पर कबाड़ बेचते समय ऐसा मोल-भाव करेंगे, मानो हीरे बेच रहे हों.
पुलिस वाले या
सुरक्षा प्रहरी इनको चोर व उठाईगीर समझा करते हैं. कुछ अपवाद हो सकते हैं, क्योंकि यह सच है कि कबाड़ी के वेश में चोरी डकैती करने वाले कभी कभी रेकी भी करते हैं, और पकडे भी जाते हैं. कई बार इस विषय पर गम्भीरता से चर्चा होती है कि कबाडियों को लाईसेंस या परिचय पत्र देने चाहिए, पर यह कार्यान्वित नहीं हो पाता है.
मेरे घर में पुराने
अखबारों के अलावा कोई अन्य प्रकार का कबाड़ा नहीं होता है. जब कुछ महीनों में जमा हो
जाते हैं तो एक बुजुर्ग, इकराम कबाड़ी, आकर
ले जाता है. वह अपने हिसाब से पैसे भी दे जाता है. कोई बहस हुज्जत नहीं होती है. कई वर्षों से ऐसा चलता आ रहा है. इकराम बड़ा सीधा और सरल आदमी है. मैंने जब उसको बताया कि “अमरीका
देश में घरों में क्विंटलों के हिसाब से अखबार आते हैं, और वहां कोई कबाड़ी नहीं
घूमता है, म्युनिसिपैलिटी कूड़े के साथ उठाकर ले जाती है, तो वह वहाँ का रास्ता पूछने लगा था. इस बार सर्दियों में करीब दो माह मैं
हल्द्वानी से बाहर रहा और वापस आकर तीन महीनों में इकराम के दर्शन भी नहीं हुए. इसलिए मैंने
एक अन्य नौजवान कबाड़ी को रोक कर पूछा, “अखबार किस भाव लेते हो?” तो वह बोला, “दस रूपये.” जब मैंने कहा, “इकराम
चाचा तो बारह के भाव ले जाते हैं?” तो ये नया आदमी जिसने बाद में अपना नाम जाकिर बताया बोला, “ठीक है, मैं भी बारह दे दूंगा.”
उसने रद्दी अपने ढंग से तोली और वजन दस किलो बताया. जब १२० रूपये देने की बारी आई
तो रुपयों के बजाय अपना तराजू मुझको पेश करके बोला, “अभी
आप इसको रख लीजिये. मैं बाद में रकम दे जाऊंगा.” मैंने पूछा, “क्यों
रूपये नहीं हैं क्या?” वह रुआंसे स्वर में बोला, “मैं
बीमार चल रहा था. बड़े दिनों के बाद आज ही काम पर आया हूँ.”
मुझे स्वाभाविक रूप से उसकी बात पर हमदर्दी हो आई. मैंने कहा, “कोई बात नहीं, बाद में दे जाना. तुम्हारा
तराजू रख कर मैं क्या करूगा?” उसने जल्दी जल्दी सामान समेटा और “सलाम
साहब” कह कर चलता बना. मुझको अपने मन में बड़ा संतोष सा हो रहा था कि उसकी मजबूरी पर मैंने कोई शर्त नहीं लगाई. सोचा, वह ना जाने किस मजबूरी में होगा.
बात आई-गयी हो गयी. मैं उस धटना को भूल सा गया था. सचमुच, मैं उसकी शक्ल भी भूल गया था. इस बीच हमारी
सीनियर सीटीजंस की बैठक में किसी बात पर मैंने इसका जिक्र किया तो साथियों ने मेरी
दानवीरी का मजाक बनाया. एक सज्जन बोले, “मियाँ,
सतयुग को गुजरे तीन युग हो चुके हैं, तुम कहाँ जी रहे हो?”
आज सुबह मुझे सुखद
आश्चर्य तब हुआ जब जाकिर घंटी बजाकर रूपये देने के लिए घर के गेट पर खड़ा मिला. इस
युग में बड़े बड़े लोग बेशक बेईमानी करते हैं, लाखों-करोड़ों डकार जाते हैं, पर जाकिर जैसे गरीब लोगों ने इस अंधेरे में ईमान का दिया जलाए रखा है.
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