"प्रथम सीमेंट
वर्कर्स वेज बोर्ड" के तहत आने वाले समस्त कर्मचारियों के लिए ‘नॉमेंक्लेचर’ व
तदनुसार ‘पे-स्केल’ श्री जी.एल. गोविल (तब एसीसी के सीनियर एक्जेक्युटिव) की सदारत
में तैयार किये गए थे. मंथली-पेड स्टाफ के पे-स्केल में दस साल की सर्विस के बाद E.B. यानि ऐफिशेन्सी बार का प्रावधान रखा गया था. यदि
कर्मचारी अपने काम में सक्षम नहीं हो तो इस प्रावधान के तहत उसकी वेतन वृद्धि पर
रोक लगाई जा सकती थी.
नियुक्ति पत्र के
अनुसार मुझे हर साल १० रुपयों की मूल वेतन वृद्धि प्राप्त होती रही. जब ९ वर्षों
के बाद E.B. पर पहुंचा तो मुझे वार्षिक वेतन वृद्धि नहीं दी गयी. मैं शिकवा-शिकायत लेकर तत्कालीन पर्सनल ऑफिसर श्री वीरेंद्र सिंह जी से मिला तो उन्होंने रूखा सा जवाब दिया कि “E.B. पर कंपनी कोई कारण बताये बिना वेतन वृद्धि रोक सकती है.”
उन वर्षों में मुझे अपनी ड्यूटी के सम्बन्ध में या ड्यूटी के अलावा यूनियन आदि की
एक्टिविटीज (खुराफातों) के लिए कोई नोट, वार्निंग या सजा नहीं मिली थी इसलिए मैं
अपनी ‘ऐफिशेन्सी’ के बारे में ज्यादा सैन्सिटिव हो गया था. मैं असिस्टेंट मैनेजर
(प्रशासन में नंबर २) स्व. धोतीवाला जी से मिला. वे बड़े सरल व सुहृद पारसी जेंटलमैन
थे. मुझसे उनकी पूरी हमदर्दी थी, पर ऐसा लगा कि तब मैनेजमेंट में उनकी बात को कोई
तवज्जो नहीं मिला करती थी. मेरी बात सुन कर वे बोले, “Why don’t you go to the labour court?”
मैंने अपनी शिकायत
एक रजिस्टर्ड पोस्ट से लेबर कोर्ट (तब जयपुर में हुआ करता था) को भेज दी. बाद में
तारीख पड़ी तो मैं ढूंढते हुए वहाँ पहुंचा. मैनेजमेंट की तरफ से श्री वीरेंद्र सिंह जी
के साथ एक बुजुर्ग+खुर्राट एडवोकेट स्व. माथुर (उनका पूरा नाम अब मुझे याद नहीं
है) वहाँ पहुचे थे. जज भी कोई बुजुर्ग व्यक्ति थे, जो हाई कोर्ट से रिटायर्ड थे. मेरे
साथ कोई बहस नहीं हुई, पर मैनेजमेंट ने अगली पेशी से पहले मुझे एरियर सहित मेरा रोका गया ऐनुअल इन्क्रीमेंट दे दिया. बाद में
मुझे मालूम हुआ कि मेरे उस प्रयास से अन्य 9 कर्मचारियों को भी लाभ मिला, जिनमें
श्री बालकृष्ण सेनी (तब स्टोनोग्राफर), श्री गोपाल लाल महेश्वरी ड्राफ्ट्समेन, तथा अन्य
थे. सबने मुझे धन्यवाद दिया, लेकिन मैनेजमेंट को अवश्य तकलीफ हुयी होगी. उसके तुरंत
बाद सन 1970 में मेरा ट्रांसफर शाहाबाद, कर्नाटक को कर दिया गया. ट्रान्सफर में कई
कारक थे, परंतु उनमें इस घटना का भी संयोग रहा था.
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