शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

कटुसत्य - २

कालूराम जवानी में ही बुढ़ा रहा है. यही हाल उसकी जोरू घीसी का है. नन्नू अभी साल भर का भी पूरा नहीं हुआ,  घीसी फिर उम्मीद से लगती है. प्रथम दृष्ट्या फटे हाल हैं. सड़क के किनारे ईंटों से बने हुए चार फुट ऊँचे अस्थाई झोपड़े पर रैक्सीन की अधफटी काली चादर डाल कर इनके रहने का इन्तजाम ठेकेदार ने किया है. झोपड़े पर दरवाजे के नाम पर सीमेंट की खाली फटे कट्टों का पर्दा डला हुआ है. अन्दर गन्दी अधफटी गुदड़ी के अलावा दो ईंटों का चूल्हा बना रखा है, जिसके आसपास एलुमिनियम के घिसे-पिटे दो कटोरे. एक भागोना व तसला पड़े हुए हैं. एक मिट्टी का तवा भी रखा हुआ है. कोने में ईंधन के रूप में जंगली बनाड़ के सूखे झाड़-टहनियाँ, शीशम के कुछ पत्ते तथा कुछ पुराने फटे बांस की खपच्चियाँ रखी हुई हैं.

एक पौलिथिन की थैली में आधा किलो सस्ते-मोटे चावल और दूसरे में नमक रखा हुआ है. एक गंदे से पुराने शराब के खाली पौव्वे में सरसों का थोड़ा तेल भी पड़ा है. एक मैले से दस किलो पेन्ट के खाली प्लास्टिक के डब्बे में पानी सहेज कर भरा हुआ है. उसी में एक प्लास्टिक की काटी गयी बोतल का निचला भाग पड़ा है जो मग का काम देता है. कुल मिला कर गृहस्थी का इतना ही सामान उनके घर में है.

कालू के पैर में टायर की चप्पल और घीसी के पैर में दो अलग अलग साइज व रंग की पुरानी हवाई चप्पल हैं. नन्नू कमर से नीचे नंगा है. उसके शरीर में मैल की परत यों ही नजर आ रही है.

यह परिवार कहीं दूर झाबुआ, मध्यप्रदेश से रोजगार की तलाश में कोटा, राजस्थान आया है. एक बहुमंजिला इमारत बनाने वाले ठेकेदार ने इनको काम पर रख लिया है. उसने कालू को १५० रूपये रोज व घीसी को १०० रूपये रोज देने का करार किया है. इनको रोके रखने के लिए २५० रूपये की अग्रिम राशि भी दी है. १४ घन्टे रोज काम करते हुए इनको २० दिन हो गए हैं, पर ठेकेदार ने पूरे पैसे नहीं दिये. कहता है कि मेरे पास जमा हैं, तुम्हारी चोरी हो जायेगी. यह आवास इनको ठेकेदार ने ही उपलब्द्ध कराया है. मिक्सर में कंकड़, रेत और सीमेन्ट तगारी से डालते रहने का काम इनको दिया गया है. थक जाते हैं तो बीड़ी पीकर ऊर्जा प्राप्त कर लेते हैं. थोड़ी दूरी पर एक चाट, पकोड़ा, समोसे, नमकीन की ठेली लगती है. कभी कभी वहाँ से ये नमकीन-स्वादिष्ट मनभावन खरीद कर खाते हैं. एक दूसरे के मुँह देखते हुए चटखारे लेते हुए निहाल हो लेते हैं.

इनको राशनकार्ड, आधारकार्ड, गैस सिलेंडर, पेट्रोल-डीजल की कीमत से कोई लेना देना नहीं है. सेंसेक्स, शेयर बाजार, ए.सी. का रेल टिकट, इन सब के बारे में कोई जानकारी नहीं है. रेडियो, टी.वी, मोबाईल, कार आदि के बारे में इतना ही मालूम है कि ये सेठ लोगों के लिए होते हैं. झोपड़े में उजाला सड़क की लाईट से हो जाता है. संडास के लिए इनको दूर खुले नाले में जाना पड़ता है. शौच के लिए वहीं का गंदा पानी इस्तेमाल करना होता है. आज घीसी को रास्ते में एक गोबर करती हुई गाय नजर आई तो वह बहुत खुश हो गयी. एक उड़ते हुए अखबारी पन्ने में पूरा गोबर उठा लाई. उसने उसको थेप कर उपलों का रूप दे दिया है. अखबार में क्या लिखा उसको इससे कोई सरोकार नहीं है, पर अखबार पढ़ने वाले ने उन शीर्षकों को अवश्य पढ़ा होगा, जिनमें लिखा है, "सत्ताधारी पार्टी का चिन्तन शिविर जयपुर में, भावी राजनीति पर नौजवान नेतृत्व, विपक्षी पार्टी को भी सत्ता की चिंता, ठेकेदार सत्ता के गलियारों में, अपराध-बलात्कार पूर्ववत".

कटुसत्य यह भी है कि गणतंत्र बने ६३ वर्षों के बाद भी, यद्यपि देश के सभी बाजार कपड़े, राशन, फल, दवाओं, और तमाम जीवनोपयोगी वस्तुओं से लदे-भरे पड़े हैं, पर जो इकाई राष्ट्रनिर्माण के मूल में है, उसकी हालत कालूराम, घीसी और उनके बालक नन्नू से बेहतर नहीं है.
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3 टिप्‍पणियां:

  1. जिन्हें तो बस पेट की पुकार विकास की अट्टालिकाओं से अलग किये है।

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  2. काल चिंतन इससे आगे और क्या होगा एक शब्द चित्र आपने भारत बनाम इंडिया का खींच दिया .इंडिया भाग लेता है गणतंत्र दिवस की झांकियों में भारत देखता है .कृपया आजका सेहतनामा ज़रूर पढ़ें .आभार आपकी नित्य टिप्पणियों का .हमारे लिए ताश अखबार सी कीम्तीं हैं आपकी टिप्पणियाँ हर पल कुछ नया देती हुईं .

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  3. सार्थक एवं कटु सत्य ... आज़ादी के इतने समयांतराल के बाद भी ' यह दशा', हमारे नीति निर्धारकों का ही कमाल है।

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