शनिवार, 1 अप्रैल 2017

मेरा ड्राइविंग लाइसेन्स

मेरे ‘टू ह्वीलर्स & फ़ोर ह्वीलर्स’ ड्राइविंग लाइसेन्स को पिछले ३५ वर्षों में किसी परिवहन अधिकारी ने सड़क पर चेक नहीं किया क्योंकि मैंने कभी भी ऐसी नौबत नहीं आने दी. पिछली बार, सन 2012 में मेरे गृहनगर हल्द्वानी के रीजनल ट्रांसपोर्ट ऑफिस (RTO) में 5 वर्षों के लिए नवीनीकरण हुआ था. उस बार मुझे किसी हील-हुज्जत के, या यों कहूं कि बिना लाइन में लगे, बिना सुविधा शुल्क (रिश्वत) दिए ही सफलता मिल गयी थी क्योंकि मेरे एक निकट संबंधी यहीं हल्द्वानी में विजिलेंस विभाग में S.P. थे. उन्होंने मेरी सहायतार्थ एक इन्स्पेक्टर को साथ में भेज दिया था. RTO ऑफिस में चाय पीते हुए सारा काम हो गया था.

इस बार मैं थोड़ा शंकित भी था कि इस कार्य में मेरी उम्र व्यवधान बन सकती है. मैं अब एक महीने बाद ७८ का हो जाऊंगा. हल्द्वानी के बेस अस्पताल (जिसका प्रमाणपत्र उत्तराखंड परिवहन विभाग में मान्य होता है) में मेरी शारीरिक क्षमता तथा ज्ञानेन्द्रियों की तपास करने के बाद सब प्रकार से ‘फिट’ घोषित होने के बाद मैं प्रमाणपत्रादि लेकर RTO ऑफिस चला गया. ये मार्च 31 का दिन था. सरकारी कारोबार में साल का आख़िरी दिन होने से कार्यालय परिसर में बला की भीड़ थी. वाहन एवं वाहन मालिकों का हुजूम होने से मुझे अपनी गाड़ी दूर सड़क पर जाकर पार्क करनी पड़ी. उस मेले जैसे माहौल में अपने अपने काम से आये लोगों के अलावा ‘दलालों’ की टीम भी सक्रिय थी. दलाल की परिभाषा यह है कि वह सम्बंधित कर्मचारियों व अधिकारियों से सेटिंग रखता है, और सुविधा शुल्क लेता है. एक दलाल ने दूर से ही भांप लिया कि मुझे किसी की सहायता की दरकार है. वह मुझ से आकर बोला “खर्चा-पानी लगेगा. मैं करवा दूंगा, आपका लाइसेन्स रिन्युअल."

मुझे वहाँ गाइड करने वाला PRO का कार्यालय भी नहीं मिला. बिल्डिंग की बाहरी खिड़कियों पर दोपहर की चिलचिलाती घूप में वाहन मालिकों, टैक्सी ड्राइवरों, रजिस्ट्रेशन कराने वालों या कागजात ट्रांसफर कराने वालों की लम्बी लम्बी लाईनें, तथा फीस जमा कराने वालों की धक्का-मुक्की देखकर मेरे पास दलाल से ‘हाँ’ कहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.  

वर्षों पहले से एक मिथक दिमाग में रहा है कि RTO का मतलब भ्रष्टाचार का बोलबाला. कई बार समाचारों में पढ़ा भी है कि छापामारी में कई लोग पकड़े जाते रहे हैं, पर फार्मूला भी हमेशा रहा है कि "रिश्वत लेते पकड़े गए और रिश्वत देकर पाक साफ़ हो गए."

मुझे सन 2007 के रिन्युअल का दिन भी याद है. मैंने सम्बन्धी क्लर्क को सीधे सुविधा शुल्क देकर ‘मित्रता?’ कर ली थी. बातों ही बातों में मालूम हुआ कि इस ‘मलाईदार’ पोस्ट से उसका ट्रांसफर अल्मोड़ा RTO ऑफिस को हो रहा था. वह बड़े आहत स्वर में मुझे बता रहा था कि “अल्मोड़ा ऑफिस में कोई कमाई नहीं है. अपने वेतन से ही गुजारा करना पड़ेगा.”

मैं यह नहीं कहूंगा की हर सरकारी कर्मचारी बेईमान होता है, सच तो ये है कि हम हिन्दुस्तानियों के जींस में बेईमानी बस गयी है. एक ट्रक के पीछे जुमला लिखा था, "सौ में से नियानाब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान." चुनावों में जीत कर आने वाली सभी पार्टियों के नेता ऊंचे ऊंचे स्वरों में कहा करते हैं, "भृष्टाचार को ख़तम कर देंगे." लेकिन ये जुमले थोड़े दिनों में भुला दिए जाते हैं. लोकतंत्र को सबसे अच्छी शासन व्यवस्था कहा जाता है, पर चुनाव जीतने के लिए अनाप-सनाप खर्चा होता है, जिस पर कानूनी लगाम बेअसर है. राजनीति एक व्यापार बन गयी है; निवेश करके पांच साल में कई गुना वसूली का लक्ष्य रहता है. आंकड़े बताते हैं कि जीतने वालों की परिसंपतियों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हो जाती है. दूसरा कारण है, "ठेकेदारी प्रथा." हर ठेके के व्यापार में सिस्टम इतना बिगड़ चुका है कि कमीशन की रेट तय हैं. जिनका बँटवारा संतरी से लेकर मंत्री तक ऑटोमेटिक पहुँचता है. दलाल तो गुड़ की मक्खी की तरह दौड़े चले आते हैं. जब खून मुंह लग जाता है तो लोई उतर जाती है. ये सिर्फ परिवहन विभाग की बात नहीं है, लोक निर्माण विभाग और राजस्व विभाग का और भी बुरा हाल है.

बहरहाल मेरा ड्राइविंग लाइसेन्स अगले पांच सालों के लिए रिन्यू हो गया है, शायद ये आख़िरी रिन्युअल भी हो.
***

3 टिप्‍पणियां: