शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

सिंदरी से - ५ धन- धान्यवाद - धनबाद


एक समय था जब खदानों के बारे में पढाई सिर्फ धनबाद में ही हुआ करती थी, एसीसी की खदानों में कार्यरत इंजीनियर्स सभी धनबाद रिटर्न हुआ करते थे.

धनबाद शहर झारखण्ड का रांची के बाद सबसे बड़ा शहर है. इस शहर की बनावट भी आम भारतीय कस्बों की तरह ही विक्सित हुई है. सन १९५६ से पहले ये इलाका बंगाल  प्रांत के मनभूम का हिस्सा था, इसे बाद में जिला की पहचान दी गयी औए ये बिहार का हिस्सा बन गया.

इतिहास में दर्ज है कि इसे सन १९१८ में ‘धान बाईद’ से संशोधित करके धनबाद नाम दिया गया था. कोयलांचल के इस उपजाऊ धरती पर एक विशिष्ट धान (चावल) ‘बाईद’ पैदा होता था/ है.

यहाँ के सभी प्राइवेट कोल माईन्स का राष्ट्रीयकरण स्व.प्रधान मंत्री इंदिरा गाधी के समय में हुआ था. कोल इंडिया का मुख्यालय धनबाद में ही है. इतिहास में दर्ज है कि सन १७६४ में अंग्रेजों ने बक्सर के युद्ध में मुग़ल शासक को पराजित करके एक संधि कर ली जिसे (‘इलाहाबाद संधि’ के नाम से जाना जाता है) इस इलाके को अपने अधीन कर लिया था.

अंग्रेजों के कब्जे के बाद आदिवासी लोग बेदखल किये जाने लगे तथा उनकी महिलाओं पर अत्याचार होने लगे थे तो एक क्रांतिकारी नौजवान ‘बिरसा मुंडा’ ने हथियार उठाकर अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे. अपने इस महानायक को आदिवासी लोगों ने भगवान् का दर्जा दिया हुआ है. बाद में प्रशासन ने अनेक स्कूल-कालेज, पार्क व संस्थानों को बिरसा मुंडा नाम से जोड़कर अमर किया हुआ है. बिरसा मुंडा इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी तथा रांची स्थित बिरसा एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी इसके बड़े उदाहरण हैं.

हावड़ा के मुख्य रेल मार्ग से जुड़ा हुआ धनबाद, सिंदरी से महज २८ किलोमीटर दूर है. समृद्ध बाजार व मॉल देखकर लगता नहीं है कि ये खनिज अ वन संपदा वाला इलाका कभी ‘बीमारू राज्य’ का हिस्सा रहा होगा.
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