सोमवार, 23 अप्रैल 2012

शुभ आशीषें (माँ के पत्र - 10)


                                                   श्रंखला का दसवाँ एवँ अन्तिम पत्र

प्यारी बिटिया,
सब प्रकार से सुखी रहो.

तुम्हारे प्रधानाचार्य का पत्र तुम्हारे पापा के नाम आया है. उन्होंने तुम्हारी बहुत सराहना की है साथ ही उन्होंने तुम्हारी भविष्य की पढाई के लिए पूछा है कि क्या विषय दिलाना चाहेंगे तथा क्या बनने का लक्ष्य रखा है? तुम्हारी रूचि के अनुसार ही तुम्हारे पापा प्रत्युत्तर देंगे. तुमसे फोन पर बात करेंगे.

जहाँ तक बनने-बनाने का प्रश्न है मुझे एक प्रेरणास्पद घटना का विवरण याद आ रहा है कि एक माता-पिता के सामने इसी प्रकार का प्रश्न चिन्ह आ खड़ा हुआ कि उनके इकलौते लाड़ले को क्या बनाना चाहिए? आपस में सोच-विचार व विमर्श के बाद भी ये तय नहीं कर पाए कि उसे क्या पढ़ाया जाये. बेटा भी इस स्थिति में नहीं था कि यह बताए कि वह क्या बनना चाहता है? अंत में माता-पिता को विचार आया कि पड़ोस के घर में एक विद्वान संत पुरुष रहते हैं, उनसे इस बारे में मार्ग दर्शन लिया जाये. संत ने उनकी समस्या को गंभीरता से सुना और यह कह कर सही हल निकाला कि दुनिया में डाक्टर बहुत हैं, इंजीनियर भी बहुत हो गए हैं, इसी प्रकार प्रोफ़ेसर, पायलट आदि की भी कोई कमी नहीं है, मैं समझता हूँ कि आप अपने बेटे को कुछ ऐसा बनाइये जिसकी वास्तव में आज कमी हो गयी है, और वह है, नेक इंसान.

यह बात शाश्वत सत्य है कि विषय कुछ भी पढ़े जायें, प्रतिभावान हर जगह सफलता पाता है. प्रतिभा केवल धैर्य, मेहनत और ईमानदारी की पराकाष्ठा है. मनुष्य की उन्नति इस बात पर निर्भर रहती है कि वह अपने आस-पास समाज को किस प्रकार स्वीकार करता है, अर्थात अपने आचार-विचार से किस प्रकार प्रभावित करता है. इसके लिए उदारता की परिभाषा को भी समझना होगा तथा अपने आप को उदार बनाये रखना होगा.

हमारे चारों तरफ प्रकृति का जो सुन्दर व व्यवस्थित साम्राज्य है, उसने हमको हर ओर से भरपूर नियामतें दी हैं. तुम अनुभव करो कि:
     सूर्य निरंतर प्रकाश और ऊर्जा देता है.
     बादल समय समय पर पानी दे जाते हैं.
     हवा निरंतर गति और स्पंदन देती है.
     पौधे अन्न और पेड़ फल देते हैं.
     श्रमिक श्रम और गुणी जन ज्ञान देते हैं.
निस्वार्थ भाव से हमें इतना प्राप्त होता रहता है कि हम इसका हिसाब किताब भी नहीं रख पाते हैं. फिर भी यदि हम दूसरों को देने में कृपणता करेंगे और उदार नहीं बनेगे तो यह कृतघ्नता ही कहलायेगी. देने से विनम्रता पैदा होती है और विनम्रता के साथ अनेक गुण अपने आप आ जाते हैं. नित्यचर्या में हमें ऐसा व्यवहार करना चाहिए जो आत्मसंतोषी के साथ साथ दूसरों को भी सुखकर लगे. कई बार हम दूसरों के बारे में ऐसी बातें जान जाते हैं, जिनका असर उनके लिए बहुत हानिकर हो सकता है, इसलिए वाणी को हमेशा संयत रखा चाहिए. किसी को भी नुकसान न पहुंचे, यह सोच होनी चाहिए.

कई बार ऐसा भी होता है कि हम अपनी इच्छित वास्तु को नहीं पाते हैं और बहुत निराशा का अनुभव करने लगते हैं. यदि हम व्यापक दृष्टिकोण अपनाएँ तो मोह से अपने आप मुक्ति पा सकते हैं. इसके लिए हमें अपने भावावेशों को नियंत्रण में रखना होगा क्योंकि अधिकाँश गलतियाँ भावावेश में ही होती हैं.

मेरी एक अध्यापिका, जो किसी भावावेश की भुक्तभोगी थी कहा करती थी कि गुस्से में कोई काम नहीं करना चाहिए पत्र भी नहीं लिखना चाहिए, यदि लिख भी लिया है तो डाक में नहीं डालना चाहिए.

यहाँ सब लोग स्वस्थ हैं और आशा करते हैं कि तुम सब प्रकार से अपने स्वाथ्य का ध्यान भी रख रही होगी. अब तुम सयानी हो गयी हो. तुमको समझाने के लिए कोई बात बची भी नहीं है. इस बीच मेरे एक दांत में काफी दर्द रहा. अंत में निकलवाना ही पड़ा. ये मेरी अपनी गलती से ही हुआ. दांतों के बीच कुछ फंसने पर लोहे की सुई या आलपिन से निकालती थी परिणामस्वरुप दांत का इनेमल कट गया था और उसमें कैविटी बन गयी थी. अब सबक भी मिला और दर्द से मुक्ति भी. मैं अब शेष दांतों के प्रति सजग हो गयी हूँ.

भैया, और पापा का प्यार.
जल्दी मिलेंगे.
तुम्हारी माँ.
                                           ***

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