गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

शुभ आशीषें (माँ के पत्र -1)


                       पहला पत्र

प्यारी बिटिया,
शुभ आशीषें.
मैं सोचती हूँ कि तुम प्रसन्न और सानंद होगी. मैं भगवान से बार बार तुम्हारी कुशलता की मनौतियां करती रही हूँ. तुम्हें घर से गए हुए सिर्फ दस दिन ही हुए हैं लेकिन ये दस दिन मुझे दस वर्ष की तरह लगे हैं तुमको पहली बार अपने से दूर भेजा है. उधर तुम्हारे हॉस्टल में अन्य लडकियां भी तुम्हारी तरह नई नई आई होंगी. और सभी को घर की यादें सता रही होंगी. मैं ऐसा भी सोचती हूँ कि मेरी तरह सभी की माताएं भी वियोग से व्याकुल होंगी. ऐसा भी हो सकता है कि तुम हमउम्र बालिकाओं में ही व्यस्त हो गयी होगी और यदा-कदा शाम सुबह घर की याद आती होगी. मैं तो तुम्हें हर वक्त अपनी पुतलियों में फिरती पा रही हूँ. कभी कभी तो इतनी विह्वल हो जाती हूँ कि सुध-बुध भूल जाती हूँ. मन करता है कि तुमसे मिलने तुरन्त तुम्हारे पास पहुँच जाऊं.

तुम मेरा ये पत्र पाकर मन छोटा मत करना, मैं तो केवल अपनी मनोदशा तुमको लिख रही हूँ. मैं यह भी सोच रही हूँ कि तुम उम्र में अभी बहुत छोटी हो और मेरे मन की गहन भावनाओं को समझाने योग्य नहीं हुई हो फिर भी एक माँ की ममता और नारी ह्रदय की तरलता मुझे इस पत्र द्वारा बहा कर तुम तक ले आना चाहती है.

विछोह का दु:ख अवश्य ही बहुत हो रहा है, पर तुमको अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए भेजना भी आवश्यक था. मैं मन को बार बार यही सान्त्वाना देती हूँ कि मेरी बिटिया सर्वगुणसंपन्न होकर लौटेगी और मैं अपने आप पर गौरव करूंगी.

अब तुम सातवीं कक्षा में पढ़ रही हो लेकिन मुझे वे दिन याद हैं जब तुम छोटी सी गुडिया थी और पढ़ने- लिखने की नकल किया करती थी. मैं तभी से तुमको उच्च शिक्षा दिलाने के अनेक सपने देखा करती थी. इतिहास में अनेक महान नारियाँ हुई हैं जिन्होंने अपनी शिक्षा और योग्यता के आधार पर समाज को नई दिशाएँ दीं, मैं उन्हीं को आदर्श मान कर तुम्हारे अन्दर उनका प्रतिरूप देखते आई हूँ. मै अपने पत्रों में उन महांन नारियों के सन्दर्भ में तुमको लिखती रहूंगी.

तुम मन लगा कर पढाई करना, जो विषय समझ में ना आये तो नि:सकोच अपनी अध्यापिकाओं से पूछती रहना. अध्यापिकाएं तुम्हारी गुरू हैं, उनकी गुरुता का सम्मान करती रहना. जो विद्यार्थी गुरुओं का सम्मान नहीं करते हैं उन पर सरस्वती की कृपा नहीं होती है और वे अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते हैं. तुमने एकलव्य नाम के बालक की पौराणिक कथा सुनी और पढ़ी है, उसने द्रोणाचार्य को गुरू मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास किया और पारंगत हुआ. यद्यपि गुरु दक्षिणा के रूप में उसे अपने अंगूठे को देना पड़ा लेकिन ये क्या कम है कि हम लोग उस बालक की निष्ठा व कुशलता की गाथा आज भी पढते हैं.

यद्यपि मुझे ये सब बातें लिखने की जरूरत नहीं थी क्योकि प्रस्थान के पूर्व भी ये सब बातें मैं तुमसे करती रही हूँ पर ये इस दुनिया की परम्परा है कि पिछली पीढ़ी अगली पीढ़ी को अच्छाई की शिक्षा देकर जाये. वेदों का एक नाम श्रुतियाँ भी है ये इसलिए है कि हजारों वर्ष पहले कागज़-पेन या छापेखाने नहीं होते थे, तब ज्ञान व शिक्षा लेखन के अभाव में सुना कर ही बताई जाती थी. सुनी हुई बातें इस तरह आगे के लिए कंठाग्र कर ली जाती थी सो श्रुतिया कहलाई. पुस्तकाकार होने की बातें तो बहुत बाद की हैं. इसी प्रकार एक माँ के लिए बाहर सी बातें अपनी बेटी को कहने के लिए होते हैं. मैं तुमको नियमित पत्र लिखा करूंगी और तुमको इनसे जीवन में मार्गदर्शन मिलता रहेगा. मुझे भी आत्मसन्तोष मिलेगा.

आत्मसन्तोष की बात तो लिख रही हूँ पर तुम अपने खाने पीने में कोई संकोच मत करना. जो बच्चे शर्माते हैं भूखे रह जाते हैं. तुम अब दीपावली पर घर आओगी तो मैं देखूंगी कि तुम कितनी दुबली होकर आती हो. तुम कहोगी कि माँ बहुत ही शंकालु है और अनावश्यक चिंता करती है, पर बिटिया, मैं माँ हूँ और माँ शब्द की व्याख्या कितनी विस्तृत है मैं दूसरे पत्र में तुमको लिखूंगी अभी तो बस तुमसे ये कहना है कि तुम भरपेट भोजन करना कोई स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानी हो तो तुरन्त अपनी वार्डन को बताना क्योंकि वही तुम्हारी संरक्षिका हैं.

इस पत्र के पहुँचाने से पहले तुमने अगर पत्र लिखकर नहीं प्रेषित किया हो तो तुरन्त लिख भेजना, मैं तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा करती हूँ.

भैया तुमको बहुत याद करता है. बेचारा अकेला हो गया है. तुम्हारा नाम लेते ही टुकुर-टुकुर इधर उधर ताकता है. तुम्हें भी उसकी बहुत याद आती होगी. तुम्हारे जाने के बाद इसने क्या-क्या अनुभव कराये अवर्णनीय हैं. मैं तुमको ज्यादा होमसिक नहीं करना चाहती हूँ. तुम छुट्टियों में आओगी तब सब बातें बताऊंगी.

भैया और पापा का बहुत-बहुत प्यार.

तुम्हारी माँ.
                                           ***

2 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे याद आ गया वो जमाना जब में छोटी सी थी और माँ -पिताजी लम्बे लम्बे पत्र ढेर सारी हिदायतों के साथ लिखते (लगभग ११ वर्ष की आयु से में हॉस्टल में चली गयी थी).उस समय कुछ समझ में आता और कुछ समझने की जरुरत न लगती पर आज माँ बनने के बाद समझ में आता है बच्चों को अपने से दूर भेजने के लिए सच में कितने साहस की जरुरत है ,आभार

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