सोमवार, 7 मई 2012

सूरजमुखी

वह पैदाइशी सूरजमुखी तो नहीं थी, पर उसका दुर्भाग्य ही था कि दस साल की उम्र में ल्यूकोडर्मा नामक चर्म रोग उसकी अँगुलियों के पोरों, कनपटियों, पलकों और पीठ से शुरू होकर धीरे धीरे सारे शरीर पर फैलता गया. २५ की उम्र तक पहुँचते पहुँचते वह पूरी सफ़ेद हो गयी. लोग उसका असली नाम तो भूल गए और सूरजमुखी कहा जाने लगा. सच तो ये है कि सूरजमुखी और ल्यूकोडर्मा में बहुत अंतर होता है, पर आम व्यक्ति इसे कहाँ समझ पाता है?.

पंडित दीनानानाथ शर्मा, एक कर्मकांडी सनाढ्य ब्राह्मण हैं. अभुक्त मूल नक्षत्र में बेटी के पैदा होते ही वे अनेक प्रकार से शंकित तथा चिंतित रहे. बेटी की आँखें हिरनी की तरह बड़ी बड़ी और सुन्दर थी, राशि के अनुसार भी सु शब्द  उनको शुभ लगा, अत: नाम दिया गया सुनयना. सुनयना सभी सामान्य बच्चों की तरह ही चँचल, शोख व स्नेहिल बच्ची थी. पंडित जी ने उसके अशुभ ग्रहों की शान्ति के लिए कुछ टोटके-पूजा भी किये लेकिन भविष्य और भाग्य को कौन जानता है? विधि की लेख पहले से लिखी रहती है.

ल्यूकोडर्मा कोई छूत की कीटाणुजनित या जेनेटिक बीमारी तो है नहीं, पर हमारी पुरानी किताबों व अशिक्षित समाज की मान्यताओं में इसे एक प्रकार का कुष्ट रोग कहा गया है, जो बिलकुल गलत व गैर जरूरी बात है. क्योंकि ये कुष्ट यानि लेप्रोसी कत्तई नहीं है. इस बारे में सबको अपनी सोच बदलनी चाहिए.

मेडीकल साइंस भी अभी तक इसकी जड़ नहीं पकड़ पाया है कि चमड़ी के बाहरी सेल/ऊतक अपना स्वाभाविक रंग छोड़ कर सफ़ेद क्यों हो जाते हैं. इसका सीधा सम्बन्ध लीवर से बताया जाता है. विरुद्ध भोजन जैसे दूध-मछली, दही-करेला, जिनके तत्व-प्रोटीन मेल नहीं खाते है, लीवर में प्रतिक्रया करते हैं और त्वचा पर प्रभाव डालते हैं.

जब ल्यूकोडर्मा उजागर होने लगा तो पंडित दीनानाथ ने पहले वैद्यों की शरण ली, जिन्होंने बावची का तेल और बावची मिश्रित औषधियां दी, पर कोई लाभ नजर नहीं आया. ऐलोपैथिक दवाएं भी विशेषज्ञों की सलाह पर नियमित दी पर ल्यूकोडर्मा का प्रसार रुका नहीं. अपने पूर्वाग्रहों और ज्योतिषीय विश्वासों के तहत वे इसे अभुक्त मूल नक्षत्र का प्रभाव मानते रहे, जो एक खयाल मात्र था.

अखबारों में ल्यूकोडर्मा ठीक करने के सैकड़ों विज्ञापन छपते हैं. मरता क्या नहीं करता वाली बात थी. बेटी का मामला बहुत नाजुक होता है, जिसने जैसी सलाह दी, वैसा किया. बिहार के गया और कतरीसराय से कुछ ठग वैद्यों से भी पार्सल द्वारा दवाएं मगवाई किन्तु सारी दवाईयां और प्रार्थनाएं बेकार गयी.

इन सारी प्रक्रियाओं का मनोवैज्ञानिक प्रभाव सुनयना पर जरूर पड़ा. बेचारी हीनभावनाग्रस्त रहती थी. ये स्वाभाविक भी था. इसी हालत में वह इन्टरमीडिएट तक पढ़ गयी. अब पंडित जी को उसकी शादी की चिंता सताने लगी. वे कहा करते थे, कोई लूला-लंगड़ा, काना कैसा भी सजातीय लडका मिल जाता तो बिटिया के हाथ पीले कर देता. लेकिन उनको एक ऐसा रिश्ता मिल गया जहाँ सब ठीक ठाक लगता था. लड़के में काना, लूला-लंगड़े जैसी बात नहीं थी, हाँ दहेज के लिए गोल-गोल बातें करके अप्रत्यक्ष रूप से मुंह फाड़ा जा रहा था.

पंडित रामस्वरूप शर्मा का बेटा दयानंद शर्मा किसी प्राइमरी स्कूल में अध्यापक था. ल्यूकोडर्मा के बारे में जानते-सुनते उसने हाँ कर दी. दीनानाथ जी ने भी अपनी हैसियत से ज्यादा स्त्रीधन (दहेज) देकर बेटी को विदा किया और सत्यनारायण भगवान की पूजा करके अनेक धन्यवाद अर्पण किये. ये बात बाद में महसूस की जाने लगी कि ये शादी दहेज के लोभ मे की गयी थी. खासकर दयानन्द की कर्कश, जाहिल माँ ने अपना असली रंग बात व्यवहार से बता दिया वह सुनयना के चर्म रोग पर ताने दिया करती थी. सुनयना आहत तो होती थी पर वह इसे भाग्य की विडम्बना समझ कर सह लेती थी. ससुरालियों के इस प्रकार दुर्व्यवहार को उसने अपने माता-पिता तक नहीं पहुचने दिया. वह हर तरह ते परिपक्व तथा धैर्यवान हो गयी थी.

भगवान भी ऊपर से सब देखता ही है. कहा गया है कि "निर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय." हुआ यों कि उसकी सास गंभीर रूप से बीमार हो गयी. ब्लडप्रेशर बढ़ा मिला, हार्ट की आर्टरीज में ९०% ब्लोकेज पाया गया. तुरन्त बाईपास सर्जरी की तैयारी की जाने लगी. इस प्रकरण में भी निर्दोष सुनयना को अशुभ करार करते हुए ना जाने क्या क्या सुनना पड़ा. पर जब सास के लिए ओ निगेटिव खून की जरूरत पड़ी तो इस ब्लड ग्रुप का कोई डोनर नहीं मिला. अत: आपरेशन स्थगित किया जाने लगा. दबे स्वर में सुनयना ने अपने पति को बताया कि स्कूल के दिनों में उसके खून की जाँच हुई थी और ओ निगेटिव बताया गया था. वह रक्तदान को तैयार भी थी. लेकिन परिवार वालों को लग रहा था कि श्वेत कुष्ट का रोग बुढ़िया को भी हो जाएगा, पर जब ये बात आपरेशन करने वाली डाक्टरों की टीम को बताई गयी तो उन्होंने निराकरण किया कि पहली बात तो ये कुष्ट नहीं है, और दूसरी बात रक्त लेने-देने से ल्यूकोडर्मा बुढ़िया को कतई नहीं होगा.

सुनयना ने सहर्ष रक्तदान किया. सास का सफल आपरेशन हुआ और वह धीरे धीरे स्वस्थ हो गयी. इस घटना का परिवार के लोगों पर ऐसा प्रभाव हुआ कि सब का रवैया ही बदल गया. सारे गाँव में इस बात की चर्चा हुई. पंचायत में भी ये मसला लोगों के संज्ञान में आया. पंचायत ने सभी को ताकीद कर दिया कि दयानंद की बहू को कोई भी सूरजमुखी नहीं कहेगा.

जब अच्छा समय आता है तो सब अपने आप सामान्य होता चला जाता है. अगले वर्ष जब ग्राम प्रधान का पद महिला के लिए आरक्षित हुआ तो गाँव वालों ने सर्व सम्मति से सुनयना को ग्राम प्रधान चुन लिया.

पंचायत भवन में जो स्लोगन लिखे गए हैं, उनमें से एक यह भी है, 'ल्यूकोडर्मा कोई अभिशाप नहीं है
इस बीच ये शुभ समाचार आया है कि सुनयना जल्दी माँ भी बनने वाली है.
                                   ***  

8 टिप्‍पणियां:

  1. कहानी अच्छी होने के साथ-साथ प्रेरणाप्रद भी है।

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  2. I wish all such stories have a happy ending.....but as you say,when the right time comes,everything falls into place.

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  3. बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी दी है....
    लोगो को जागृत करती बेहतरीन पोस्ट.....
    आपकी यह पोस्ट से इस तरह के लोगो को बहुत सान्तवना मिलेगी....

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  4. अंत भला तो सब भला, पढकर अच्छा लगा!

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  5. hope every such story has a happy ending.Thanks for sharing ..aur katrisaray ke vigyapan aaj bhi yaad hain..

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  6. प्रेरणा दाई, उत्तम कथानक.

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