शनिवार, 3 मई 2014

बीतराग

एक आम कहावत है कि 'अनहोनी को कोई नहीं टाल सकता है'. ऐसी ही कुछ अनपेक्षित घटनाएँ मुझे तब याद आ रही थी जब इसी ८ अप्रेल को मैं स्वयं आपरेशन थियेटर की टेबल पर लेटा था और एनेस्थिसिस्ट ने मेरे कमर में इंजेक्शन देकर निचले हिस्से को सुन्न कर दिया था. मैं सामने दीवार पर लगे मॉनीटर पर अपने प्रोस्टेट ग्लैंड को लेजर से कटते हुए आराम से देख रहा था. तब मुझे पड़े पड़े पूर्व में घटी तीन दुखद घटनाएँ याद आ रही थी.

(१) पिछले अस्सी के दशक की शुरुआत में एक दक्षिण भारतीय डॉक्टर एस. नागराजन हमारे साथ काम करते थे, बहुत मिलनसार व अच्छी प्रकृति वाले थे (वे बाद में कोयम्बटूर से सी.एम.ओ. होकर रिटायर हुए.) तब उनके ससुर जो हाल में कर्नाटक सरकार की सेवा से कृषि विभाग के डाइरेक्टर पद से रिटायर हुए थे, बेटी-दामाद से मिलने लाखेरी राजस्थान आये थे. उनको प्रोस्टेट सम्बन्धी तकलीफ रही होगी. दामाद डॉक्टर थे. उन्होंने जिद की कि इसका आपरेशन करवाकर निजात पाया जाय. वे बैंगलूरू गए, जहाँ किसी अच्छे अस्पताल में आपरेशन के लिए भर्ती किया गया. दुर्भाग्य ये रहा कि कि ससुर जी की आपरेशन के दौरान मृत्यु हो गयी. ये एनेस्थीसिआ में लापरवाही थी या हृदयाघात था, पर अनहोनी हो गयी. डॉक्टर नागराज उनको याद करके बहुत दिनों तक सिसकते रहते थे.

(२) लगभग तीस वर्ष पुरानी बात है कि मेरे एक मित्र मोहम्मद इस्माईल हनीफी हमारे कारखाने में वैल्डिंग चार्जहैंड थे, बहुत मिलनसार, हँसमुख और हरदिल अजीज थे. उनके भाई भी मेरे निकट के साथी और सहयोगी रहे हैं. इस्माईल भाई को गॉल ब्लैडर में स्टोन थे. देर से डायग्नोस हो पाया, जब तक कोटा के महाराव भीमसिंह अस्पताल में आपरेशन के लिए ले जाया गया, सारा पित्त खून में फ़ैल गया था. गंभीर हालत थी. आपरेशन थियेटर में ऐन वक्त पर बिजली चली गयी, जिससे ऑक्सीजन की सप्लाई बाधित हो गयी और टेबल पर ही उनका इंतकाल हो गया. उनके सभी बच्चे तब नाबालिग थे, परिवार के लिए अपूरणीय क्षति थी.

(३) एक थे हमारे इलेक्ट्रिकल इंजीनियर स्वर्गीय टी. एस. भल्ला. सबकी मदद करने का जज्बा रखते थे. खरी बोलने में भी कसर नहीं रखते थे. रिटायरमेंट के बाद कोटा जाकर बस गए थे, पर स्वास्थ्य ने उनका साथ नहीं दिया. आँखों के आपरेशन किये तो एक आँख की रोशनी चली गयी. उसके बाद सफलता पूर्वक हार्ट की बाईपास सर्जरी करवाई. ये सब चलते हुए भी वे व्यस्त और चुस्त बने रहते थे. दुर्भाग्य से उनको प्रोस्टेट का आपरेशन भी करवाना पड़ा. पता नहीं डॉक्टरों की लापरवाही रही या एनेस्थिसिस्ट की गलती, आपरेशन के बाद उनका कमर से नीचे का हिस्सा सुन्न ही रह गया. बहुत ईलाज कराया, उनके बच्चे उनको जयपुर-मुम्बई के अस्पतालों में भी ले गए, लेकिन वे फिर बिस्तर से नहीं उठ सके. सन २०१२ में उनका देहावसान हो गया.

एक घन्टे के बाद मैं अपनी पैर की अँगुलियों में हरकत महसूस करने लगा और आपरेशन की टेबल से शिफ्ट कर दिया गया. ये वे क्षण होते हैं जब बीमार व्यक्ति बीतराग होकर अपने जीवन के आगे व पीछे के बारे में सोचा करता है.

मुद्दे की बात ये भी है कि सर्जरी हमेशा अच्छे सर्जन द्वारा, विशिष्टता वाले अस्पताल में ही करवानी चाहिए.
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3 टिप्‍पणियां:

  1. शरीर का सम्मान करना हो तो गुणवत्ता का ध्यान रखना पड़ता है।

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-05-2014) को "संसार अनोखा लेखन का" (चर्चा मंच-1602) पर भी होगी!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. सर्जन के हाथों अपना जीवन सोंपना हिम्मत का काम है। पर अब नई तकनीकों के चलते सुविधा तो हो ही गई है।

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