महावीर नगर
(प्रथम), कोटा, राजस्थान में बजरंगबली का मंदिर तथा बजरंग व्यायामशाला एक अच्छे बड़े दूबाच्छादित पार्क में स्थित हैं. इसमें बड़े छायादार पेड़ हैं. पार्क के किनारे पर जगह
जगह बैठने के लिए बैंच लगाई गयी हैं. बच्चों के लिए झूले डाले गए हैं. चौहद्दी में
अन्दर की तरफ घूमने के लिए चौकोर पथ बनाया गया है, जिसमें पक्की टाईल्स बिछाई गयी
हैं. इस पार्क की नगर निगम कोटा द्वारा देखरेख की जाती है. मंदिर में भजन कीर्तन
होते रहते हैं, घन्टियां बजती हैं, जीवन की आपाधापी के बीच ये सुन्दर मनभावन
परिदृश्य बहुत सुकून देता है. मैं पिछले दस-बारह सालों से जाड़ों में जब भी कोटा
अपने बच्चों के पास आता रहा हूँ तो आधा-एक घंटा इस पार्क में घूमने व विश्राम करने
में बिताया करता हूँ.
इस बार घूमते हुए
मैंने देखा कि एक अफ्रीकी नस्ल का सा व्यक्ति रोज नियमित रूप से आकर एक बैंच पर
निर्विकार बैठा रहता है और घूमने वाले लोगों को बड़े गौर से घूरता रहता है. पिछले
सप्ताह वह नित्य मुझसे हर राउंड पर आँखें चार करता रहा. कल वह गैरहाजिर था. थकान
मिटाने के लिए मैं उसकी वाली बैंच पर पत्नी सहित बैठ गया, और खेलते हुए बच्चों का
तमाशा देखने लगा. थोड़ी देर बाद वह अजनबी भी आकर उसी बैंच पर बैठने के लिए हमारे
सामने खड़ा हो गया. मैंने खिसक कर उसके लिए जगह बनाई और अपने स्वभाव के अनुसार उससे
परिचय प्राप्त करने की पहल “गुड
ईवनिंग” कह कर की. इसके जवाब में उसने भी गुड ईवनिंग कहा और मुस्कुराते
हुए मेरी तरफ मुंह किया तो मैंने देखा उसने राख का दक्षिण भारतीय स्टाईल का
लिंगायाती टीका माथे पर लगाया हुआ था. मुझे अपनी गलती का तुरंत अहसास हो गया कि ये सज्जन
अफ्रीकी कदापि नहीं हैं. मैंने मेलजोल बढ़ाने के लिए उससे हिन्दी में बातचीत शुरू की
तो पाया उसकी हिन्दी में हल्का दक्षिण भारतीय लहजा जरूर था, पर वह साफ़ साफ़ हिन्दी बोल
रहा था. मैंने खोद खोद कर उससे उसके बारे में पूछ डाला और वह एक अच्छे अनुशासित
बच्चे की अपनी राम कहानी सुनाता रहा. उसने जो भी कहा मैं अपने शब्दों में लिख रहा
हूँ.
“मेरा नाम टापूमुत्थूकृष्णन है. आप मुझे
सिर्फ टापू कह सकते हैं. मैं तमिलनाडु का रहने वाला हूँ. यहाँ राजस्थान
विद्युत निगम में मैं सुपरवाईजर था. अब रिटायर हो चुका हूँ. मैंने यहाँ महावीर नगर
प्रथम में बीस साल पहले एक जमीन का प्लॉट खरीदा और मकान बना लिया था. मैं विद्युत निगम में काम करने के लिए अपने गाँव के आसपास से 25 और आदमियों को भी साथ लेकर आया
था, लेकिन वे सब धीरे धीरे सबके सब यहाँ से
चले गए हैं. कोटा में मेरे अलावा तमिल लोग बहुत से होंगे लेकिन मेरा किसी से
संपर्क नहीं है. मैं किसी तमिल सोसाइटी या संगठन से भी जुड़ा हुआ नहीं हूँ. यहाँ
मेरे परिवार में हम तीन लोग हैं, मैं, मेरी पत्नी और हमारा एक बेटा. हमारा बेटा एक
फैक्ट्री में इंजीनियर है. मैं साल-दो साल में तमिलनाडु अपने सगे लोगों से मिलाने
जाया करता हूँ. रास्ता बड़ा लंबा है, पूरे ३० घंटे लगते हैं. इस बार मैं काफी दिनों
तक साउथ में रहा. बेटे के लिए बहू की तलाश करता रहा. उसकी उम्र ३५ से ऊपर हो चुकी
है. मैं उसकी शादी नहीं करा सका क्योंकि अपनी जाति में कहीं रिश्ता बन ही नहीं
पाया. जहां भी बात होती है, बाद में बिगड़ जाती है क्योंकि कोई भी अपनी लड़की को इतनी
दूर नहीं भेजना चाहता. मैं बहुत दु:खी हूँ. आज मैं सोचता हूँ कि मैंने इतनी दूर आकर नौकरी की और यहीं घर बना लिया, ये
बड़ी गलती थी. मुझे यहाँ से चले जाना चाहिए था.” कहते हुए उसकी आँखें
डबाडब भर आई.
मैंने उसे सांत्वना देते हुए बात बदलने की कोशिश की. मैंने उसको बताया कि मैं उसे नाईजीरियन समझ रहा
था. मुझे कन्नड़ भाषा के लगभग एक सौ शब्द आते हैं (जो कि मैंने पिछले सत्तर के दशक
में अपने कर्नाटक प्रवास में सीखे थे) टापू को भी मामूली कन्नड़ समझ में आती है. वह
बात करते हुए मेरे और निकट खिसक आया. उसने बताया कि उसकी रसोई में दाल, रोटी.
सब्जी ही बनती है, इडली, डोसा, साम्भर आदि साउथ-इन्डियन खाना कभी कभी बन पाता है. "अड़ोस-पड़ोस में पंजाबी या जैन लोगों के घर हैं. हम लोग उनमें मिक्स नहीं हो पाए
हैं.” उसने बड़ी मासूमियत से बताया कि वह ज्यादा पढ़ा लिखा भी नहीं है
और जिन्दगी के इस मुकाम पर बिलकुल अलग थलग पड़ा हुआ है. त्रिची वापस जाना चाहता है, जहाँ गोदावरी नदी के किनारे उसका गाँव है, लेकिन बेटा वहां जाना पसंद नहीं
करता है. उसका बचपन राजस्थान में बीता और यहीं पढ़ाई-लिखाई हुई तथा यहीं नौकरी भी
लग गयी. उसको यहीं अच्छा लगता है. मैंने टापू को सलाह दी कि बेटे की शादी यहीं
किसी उत्तर भारतीय लड़की से करा दे, आजकल अंतरजातीय विवाह बहुतायत में हो रहे हैं.
समय बदल गया है. इसके अनुसार चलने की कोशिश करो. अखबार में मैट्रीमोनियल द्वारा
बहुत रिश्ते आ जायेंगे. तुम्हारे घर में किलकारियां और खुशियाँ अपनेआप आ जायेंगी.
वह बोला, “मेरा बेटा भी मेरी तरह पक्के रंग का है,
इसलिए यहाँ की लड़किया उसे पसंद नहीं करेंगी.” मैंने उसे बताया कि दुनिया की एक
तिहाई आबादी पक्के रंग की है. तुम इस काले-गोरे वाली मानसिकता से बाहर निकलो. ये
रंगरूप तो भगवान ने दिया है. इसके बारे में ज्यादा मत सोचा करो. तुम लम्बी छुट्टी
दिलवाकर बेटे को तमिलनाडु ले जाओ कोई ना कोई रिश्ता सजातीय भी मिल जाएगा. मेरी
बातों से उसे जरूर सांत्वना मिली होगी. वह बोला, “मैं कल अपने बेटे को
भी आपसे मिलाने के लिए लाऊंगा। आप उसे समझा देना.”
ये नौकरीपेशा लोगों
की दूर निर्वासन की पीड़ा सिर्फ इस अकेले की नहीं होगी. ऐसे बहुत से परिवार होंगे, जो ऐसी ही त्रासदी से जूझ रहे होंगे. यहाँ ‘टापू’ अपने नाम को
पूर्णतया सार्थक कर रहा है.
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Bahut sunder prastuti
जवाब देंहटाएंये नौकरीपेशा लोगों की दूर निर्वासन की पीड़ा सिर्फ इस अकेले की नहीं होगी. ऐसे बहुत से परिवार होंगे, जो ऐसी ही त्रासदी से जूझ रहे होंगे. यहाँ ‘टापू’ अपने नाम को पूर्णतया सार्थक कर रहा है.
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह बहुत सशक्त संस्मरण और भी सशक्त सन्देश से संसिक्त।
शर्मा जी नमस्कार. बहुत दिनों के बाद आप से सामना हो रहा है, मैं इन दिनों कोटा अपने बड़े बेटे के परिवार के पास आया हूँ.पता नहीं क्यों अब लिखने पढने का मन ही नहीं होता है , उम्र की दखल भी है,भूल जाया करता हूँ. आपका कबीर की साखी/नीति दोहों पर सुन्दर बिवेचन कल ही पढ़ा, आप बहुत सुन्दर ढंग से व्याख्या करते है.शुभ कामनाओं सहित.
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