माघ माह के शुक्ल
पक्ष की पांचवी तिथि बसंत पंचमी / श्री पंचमी / बागेश्वरी पंचमी के नाम से जानी जाती है. पौराणिक गाथाओं के अनुसार यह देवी सरस्वती का जन्मदिन होता है और उनकी
पूजा की जाती है. भगवती सरस्वती को ज्ञान, संगीत तथा बुद्धि की अधिष्ठाता माना गया
है. सनातन विश्वासों के अनुसार इस दिन छोटे बालक/बालिकाओं को कलम पकड़ाने का
अनुष्ठान किया जाता है.
हमारे उत्तराखंड
में इसे कृषक त्यौहार के पारंपरिक रूप में मनाया जाता है, जौ की हरी पत्तियाँ घरों के मुख्य दरवाजों और जानवरों के गोठ/गोशाला में दोनों तरफ चिपकाए जाते हैं तथा जौ की पत्तियाँ शुभ कामनाओं के साथ माथे पर रखी जाती हैं. छोटी बालिकाएं अपना कर्णछेदन व नकछेदन बसंत पंचमी के दिन करवाती हैं. यह दिन
विशेष रूप से पीले वस्त्र, पीले पकवानों, और पीले रंग के फूलों का होता है. ऋतुराज
बसंत का आगमन यों भी खुशियों पूर्वक मनाया जाता है कि मौसम परिवर्तन होने से ठिठुरती
ठण्ड से मुक्ति मिलती है. बसंत पंचमी को होलिकोत्सव (मदनोत्सव) का आगाज भी हो जाता है. पेड़
पौधों पर नई कोपलें व पुष्प प्रस्फुटित होने लगते हैं.
मेरे परिवार के लिए
इस विशिष्ठ दिन का महत्व ये है कि आज ही के दिन सन १९९७ को मेरी पूज्य माताश्री का स्वर्गवास हुआ था.
माँ, जिनकी कोई तुलनीय उपमा नहीं होती है, उनसे बिछुड़ने का दर्द इस तिथि पर अवश्य
हरा होता है, परंतु इस नश्वर संसार का शाश्वत सत्य है. इसलिए हर वर्ष उनको श्रद्धा पूर्वक याद
करते हैं.
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें