हिन्दू समाज में
पौराणिक काल में जो वर्ण व्यवस्था तय की गयी थी वह २० वीं सदी तक आते आते विकृत
होकर कोढ़ बन गयी थी. इसीलिये समाज को बांटने वाली इस परम्परा के विरुद्ध समाज
सुधारकों, अग्रगण्य लोगों व कानूनविदों ने आवाज उठाई. देश आजाद हुआ और अपना
संविधान बना तो उसमें सभी बर्गों के लोगों की समानता के लिए अनेक कानूनों की व्याख्या
दी गयी. दलित व पिछड़ी जातियों के लोगों को ऊपर लाने के लिए कई तरह से सुविधाओं में
आरक्षण दस बर्षों के लिए घोषित किये गए, जिनके अनुसार इन वर्गों के समस्त लोगों को
पढाई में कम अंकों में उतीर्ण करने, स्कूल फीस में भारी छूट, अनेक वजीफे, तथा
सरकारी नौकरियों में आरक्षण के अलावा सभी संवैधानिक व लोकतांत्रिक संस्थाओं के
पदों में अनुपातिक आरक्षण दिया गया और इसके बहुत अच्छे सकारात्मक परिणाम आये भी.
इन पिछड़े वर्गों प्रबुद्ध पढ़े लिखे लोग बराबरी या बराबरी से भी ऊपर निकलते रहे.
पिछली सरकारों ने इस आरक्षण व्यवस्था को कई बाए फिर फिर बढाया भी. कुछ राज्य
सरकारों ने दलित व अनुसूचित जन जातियों के अपने कर्मचारियों को प्रमोशन में भी
प्राथमिकता का नियम बनाया. फलत: इस वर्ग में एक ‘क्रीमी लेयर’ अलग से बन गयी. ये
भी सच है कि एक बहुत बड़ा तबका अज्ञानता की वजह से आज भी वहीं है जहां आजादी के समय
था. जाग्रति जरूर आई लेकिन दुर्भाग्य ये रहा कि इन दलित जातियों व आदिवासियों के
अपने अन्दर से ठेकेदार उभरकर सामने आये, नतीजन आरक्षण का भरपूर लाभ कुछ ही लोगों
तक सीमित रहा है
इधर नामनिहाल गरीब सवर्णों
में व अन्य धर्मावलम्बी गरीबी रेखा के नीचे जीने वाले लोगों में स्वाभाविक रूप से
असंतोष घर करता रहा है. दलितों के मुकाबले तमाम सुविधाओं में निरंतर उपेक्षा किये
जाने के कारण हार्ट बर्निंग व आपसी टकराव होते रहे हैं. इसी के परिणाम
स्वरुप राजस्थान में ‘गुर्जर आन्दोलन’ ,
हरियाणा में ‘जाट आन्दोलन’, गुजरात में ‘पटेल आन्दोलन’ जैसे घमासान हुए हैं और आज
भी उनकी आग ठंडी नहीं हुई है.
आरक्षण के बरदान
स्वरुप दलित व पिछड़ी जातियों की जो पीढियां सम्रद्धि व पद पाकर ऊपर आ चुके हैं वे
अब इसे जन्मजात हक़ समझकर छोड़ना नहीं चाहते हैं, सभी राज नैतिक दलों में इनकी
लाबियाँ प्रबल हैं इसलिए चाहते हुए भी कोई दल रिस्क नहीं लेना चाहता है कि ये वोट
बैक उनसे टूटे.
आज जब देश के
राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, अनेक राज्यपाल, अनेक मंत्रीगण व नौकरशाह आराक्षित वर्गों
के ही विराजमान हैं तो ये उम्मीद करना कि
ये आरक्षण में कोई परवर्तन लाने की दिशा
में सोचेंगे या कार्य करेंगे एक दिवास्वप्न से ज्यादा कुछ नहीं होगा.
ये भी सच है की इस
तरह की आरक्षण व्यवस्था दुनिया के किसी देश में नहीं है तथा आरक्षण के फलस्वरूप
योग्य व्यक्तियों के पिछड़ने से एक बड़ी सामाजिक कुंठा पैदा हो रही है जो नए वर्ग संघर्ष
का रूप ले सकता है. ऐसे में देश के सर्बोच्च न्यायालय ने इस जातिगत आरक्षण पर अपने
फैसले में कुछ आवश्यक सुधार किये थे ; जैसे कि जाति सूचक आक्षेप पर बिना जांच
पड़ताल के गैर जमानती गिरफ्तारी ना की जाए,
क्योंकि पिछला इतिहास बताता है ऐसे ७० से ८० प्रतिशत मामले झूठे निकले हैं.(हाल
में नोयडा में एक दलित एस.डी.एम्. द्वारा बुजुर्ग कर्नल को अपमानित करने के लिए
इसी प्रावधान का इस्तेमाल किया जिसकी कलई बाद में खुल गयी है.) प्रमोशनों में
योग्यता/ बरिष्ठता को आधार माना जाए नाकि जातिगत योग्यता. इस पर हो-हल्ला व सडकों
पर आन्दोलन होने लगे तो वर्तमान सरकार ने एक अध्यादेश जारी करके सर्बोच्च न्यायालय
के फैसले को निरस्त करने की जो गलती की है उसका दुष्परिणाम लम्बे समय तक देश को
भुगतना पडेगा.
अब सवर्णों में
जबरदस्त उबाल है, जो लोग कल तक मोदी जी के अंधभक्त थे उनमें से कई ने अपने जहरीले
उदगार व्यक्त किये हैं. एक पंडित जी ने फेसबुक पर यहाँ तक लिखा है कि “बीजेपी के
लिए वोट का बटन दबाने में मुझे अब ऐसा लगेगा की मैं अपने बच्चों का टेंटू दबा रहा
हूँ.” नाराज लोग ‘नोटा’ की सलाह भी दे रहे हैं, पर ये समस्या का कोई हल नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निरस्त करने का कलंक मोदी सरकार पर रहेगा, निश्चय ही
इसका नुकसान उनकी पार्टी को उठाना पडेगा.
सबसे अच्छा ये होता
कि आरक्षण पूरी तरह आर्थिक विपिन्नता तथा व्यक्तियों की विकलांगता को आधार मान कर
तय किया जाता. ये लक्षण भी अच्छा है कि प्रबुद्ध लोग इस विषय को गंभीरता से ले रहे
हैं और बहस जारी है.
आज मेरे इस लेख के
समापन से पूर्व एक खबर ये भी एक टी.वी. चेनल द्वारा प्रसारित की है कि गुजरात
हाईकोर्ट ने सभी जातिगत आरक्षण समाप्त करने पर एक महत्पूर्ण निर्णय दिया है. इसकी
पड़ताल अभी बाकी है.
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