आजादी के पश्चात
देश में औद्योगिक प्रसार के जोर पकड़ने पर मजदूरों के शोषण व उनके प्रति अन्याय को
रोकने के लिए विधायिका ने चिंता जताई तथा मालिकों की निरंकुशता पर लगाम लगाने के
लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम के अलावा अनेक अध्यादेशों, वेतन आयोगों व द्विपक्षीय
समझौतों के तहत सुरक्षा देने के पक्के इंतजाम किये गए. इसमें अंतर्राष्ट्रीय
मानकों का बी ध्यान रखा गया; इसे मेहनतकश लोगों के सच्चे हितैषियों के अनवरत
संघर्षों की उपलब्धि भी कहा जा सकता है. मुख्यत: काम के घंटों, न्यूनतम वेतन,
मानवीय सुविधाओं तथा सामाजिक सुरक्षा के बारे में एक लक्ष्मण रेखा खींच दी गयी और
इसकी निगरानी के लिए श्रम विभाग का पूरा तंत्र स्थापित किया गया जिसमें इंस्पेक्टर
से लेकर न्यायालयों तक का एक जाल बना दिया गया.
अब जब दक्षिणपंथी /
पूंजीपतियों के पोषक सरकारें सत्ता में आई हैं तो हम देख रहे हैं कि बड़ी बड़ी
सरकारी उद्योगों/ कंपनियों का निजीकरण का दौर जारी है . नए ठेकेदारों को खुलाहस्त
देने के लिए श्रम कानूनों को सस्पेंड करने की साजिश हुई है; बहाना कोरोना से
उत्पन्न परिस्थिति बताई जा रही है. ये दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय है जो अंधेरगर्दी को
जन्म देनेवाला है.
अफ़सोस इस बात का है
कि देश में श्रमिक आन्दोलन विभाजित तथा निष्क्रिय अवस्था में है, सत्ता से जुड़े
हुए मजदूर नेता अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता के कारण या तो चुप हैं या दबी जुबान से
बेमन से बोल रहे हैं. अघोषित आपदकाल में विपक्षी नेता भी बिलों में घुसे पड़े हैं.
कुल मीजान ये है कि
जो होने जा रहा है उसके दूरगामी दुष्परिणाम होंगे.
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चेतावनी के साथ सार्थक आलेख।
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