शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

मौत का मंजर


(प्रस्तुत कथानक मेरे एक मित्र ने मुझे सुनाया था, पात्रों के नाम मैंने काल्पनिक रख लिए हैं.)
   हरि, विष्णु और कृष्ण तीन मित्र, बचपन के साथी और अब तीनों साठ के पार पँहुच चुके हैं. तीनों बुद्धिविलास में पारंगत, संजोग ऐसा कि बुढापा भी साथ साथ कट रहा है. व्यक्तिगत समस्याएं सभी की रहती है, पर सामान्य जीवन चक्र सबका ठीक-ठाक चल रहा था.

   आषाढ़ माह के एक काली घटा वाले दिन वे तीनों नित्य की तरह शाम को टहलने के लिए निकले. वातावरण काफी सुहावना था. मौसम की अनदेखी कर वे बहुत आगे तक निकल आये थे. अचानक एक अनअपेक्षित अनहोनी घटित होने लगी कि बड़ी जोर से बिजली कड़कने लगी जिसकी धार बार-बार उनके करीब से गुजर रही थी. ये आकाशीय बिजली का ताण्डव उनके चारों ओर इस तरह होने लगा कि यह उनकी जान ले लेगा. मृत्युभय स्वाभाविक था. इस विषय पर तीनों मी विवेकपूर्ण विवेचन होने लगा और निष्कर्ष निकाला कि तीनों में से किसी की मौत इस तरह मंडरा रही थी. चूंकि तीनों एकजुट हो गए थे इसलिए यम का अश्त्र सटीक नहीं बैठ रहा था.

   विष्णु ने कहा कि मृत्यु तो एक शाश्वत सत्य है, अगर विधि-विधान में ऐसा ही लिखा तो हमको घबराना नहीं चाहिए अत: वह स्वेच्छा से ग्रुप से निकल कर २० कदम दूर खडा हो गया. ताण्डव रुका नहीं. वह वापस ग्रुप में आ मिला. और कृष्ण को उसी प्रकार २० कदम दूर किया गया, पर आश्चर्य उस पर भी बिजली का प्रहार नहीं हुआ. अब बचा हरि, सो वह अतीव भयभीत हो गया क्योंकि जब बिजली ने उन दोनों को अपने लपेटे में नहीं लिया तो वह मान रहा था कि उसी की बारी है. उसने अपने दोनों साथियों को जकड लिया. कहने लगा, मुझे बचा लो मैं अभी मरना नहीं चाहता हूँ. विष्णु और कृष्ण ने अपने ऊपर आई बला से निजात पाने के लिए हरि से २० कदम दूर जाने को कहा लेकिन वह जाने को तैयार नहीं था. अब होनहार देखिये, विष्णु और कृष्ण ने जबरदस्ती धक्का दे कर उसको अपने से अलग किया और दोनों २० कदम दूर हो गए. अविलम्ब ही विष्णु व कृष्ण पर बज्र गिरा, वे दोनों एक साथ भगवान को प्यारे हो गए. हरि हतप्रभ हो कर अपने मित्रों के शवों को देख कर प्रकृति के इस खेल पर ठगा सा खडा रहा. उधर बिजली का ताण्डव बंद हो चुका था.

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