बुधवार, 9 नवंबर 2011

आपद्काल के पीछे और आगे

आज तो हमारे देश में अनेक छोटी बड़ी सीमेंट कम्पनियां आ गयी हैं, पर ए.सी.सी. देश की सबसे पुरानी सीमेंट कम्पनी है. सन १९३७ में देश भर में फ़ैले सीमेंट कंपनियों का एकीकरण करके एसोसिएटेड सीमेंट कम्पनीज का नाम दिया गया. अब सन २००५ में स्विस कम्पनी होलसिम ने इसका अधिग्रहण कर लिया है. लेकिन होलसिम ने ACC का ट्रेडमार्क-लोगो यथावत बनाये रखा है क्योंकि इसी नाम से मार्केट में इसकी पहचान जमी हुई है.

एक समय था जब ए.सी.सी. के लगभग १७ प्लांट्स थे और दो कोल माइन्स बिहार में थे. ए.सी.सी. के मैनेजमेंट को कर्मचारियों के हितों में भी बड़ा प्रोग्रेसिव माना जाता रहा है. इस कम्पनी का पूरा इतिहास वेब-साईट पर उपलब्ध है. मैं सन १९६० में बतौर एक लैबोरटरी ट़ेक्नीशियन राजस्थान के बूंदी जिले में स्थित लाखेरी कारखाने में नियुक्त हो गया था. लाखेरी में कर्मचारियों की एक मजबूत युनियन सन १९४६ में ही रजिस्टर्ड हो गयी थी, जिसका राजस्थान में रजिस्ट्रेशन नम्बर एक था. यह यूनियन कर्मचारियों के हितों के लिए हमेशा ही जागरूक रही तथा मैनेजमेंट से नीतिगत सहयोग करती रही. मुझे ये कहते हुए हर्ष है कि हमारे इस संगठन की सोच हमेशा ही सकारात्मक व सहयोगी दृष्टिकोण वाली रही है. कम्पनी ने अस्सी के दशक में अपनी पुरानी घाटे में चलने वाली ७ ईकाइयों को बेच दिया, जो बाद में धीरे-धीरे कबाड़ियों के पास चले गए हैं. लेकिन लाखेरी को नया जीवन दिया गया है. इसके पीछे कामगार संघ का योगदान भी कम नहीं रहा है.

सन १९७१ में केन्द्र सरकार द्वारा प्राईवेट कोयला खदानों का राष्टीयकरण करने पर कम्पनी ने अपने कोयला खदान कोतमा व नौरोजाबाद के आफीसर्स को सीमेंट के बिभिन्न प्लांट्स में स्थानांतरित करके एडजस्ट किया. सीनियोरिटी के हिसाब से ये उच्च पदों पर भी आये पर ये औद्योगिक संबंधों से बिलकुल भिन्न कल्चर वाले थे. अत: कोयला खदानों वाली चाल चलने पर कई यूनिट्स में तनाव आता रहा. लाखेरी में फिर भी सामन्जस्य बनाए रखने की कोशिश होती रही. यहाँ एक माइनिग इंजीनियर को प्लांट हेड बना दिया गया. एक डाक्टर जो M.B.B.S. नहीं था को C.M.O. बना दिया गया.

मेरा सौभाग्य कहूँ या दुर्भाग्य, मुझे १९७५ में युनियन का जनरल सेक्रेटरी चुन लिया गया. सभी कार्य बदस्तूर चल रहे थे, अचानक देश की राजनीति में क्रांतिकारी भूचाल आ गया. इंदिरा गाँधी ने राजनीतिक उथल-पुथल के बीच आपद्काल घोषित कर दिया. इसका सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ा मजदूर वर्ग को क्योंकि अनुशासन के नाम पर सारे मौलिक अधिकार छीन लिए गए थे और मैनेजमेंट को मनमानी का पूरा मौक़ा मिल रहा था. अंगरेजी में एक कहावत है: 'Power corrupts, absolute power corrupts absolutly.’

हमारे पैकिग प्लांट में आपसी समझौते के अनुसार पुराने बारदाने का प्रयोग मात्र १०% होता आ रहा था क्योंकि पुराने बारदाने से पैकिंग व लोडिंग में मजदूरों को बहुत परेशानी उठानी पड़ती थी. मैनेजमेंट ने इकतरफा निर्णय लेकर ५०% पुराना बारदाना लगाने का आदेश कर दिया गया. यूनियन व मैनेजमेंट के रिश्ते तल्ख़ होने ही थे, हम मजदूर नेताओं विशेष कर जनरल सेक्रेटरी के रूप में मैं, मैनेजमेंट व जिला प्रशासन के निशाने पर आ गया. क्योंकि मैंने मैनेजमेंट के इस आदेश के विरुद्ध काम बंद करवा दिया था. हम असहाय थे क्योंकि जिला प्रशासन पूरी तरह मैनेजमेंट की भाषा बोल रहा था. इसी क्रम में जबरन नसबंदी का काम भी चल गया. ड्यूटी पर से हर उम्र के उन कर्मचारियों को समूहों में अस्पताल भेजा जाने लगा जिनके दो या अधिक बच्चे थे. राष्ट्रीय कार्यक्रम जैसा बना कर ये चलाया जाने लगा. मजदूरों में घोर असंतोष व भय व्याप्त हो गया. गुस्सा तब फूटा जब नसबंदी कराने वाले कर्मचारियों को तीसरे दिन फिट करके काम पर जाने के आदेश कर दिए गए.

मैं जब इस विषय में सी.एम.ओ. से मिला तो उसने बताया कि ये मैनेजमेंट का आदेश है. चूकि ये मेडिकल एथिक के बिरुद्ध था कि सिक-फिट करने के लिए डाक्टर स्वतंत्र नहीं था और तीसरे दिन काम पर जाने को कहा जा रहा था तो डाक्टर से मेरी गरमागरम बहस हो गयी. नतीजन मुझे कम्पनी के अनुशासन संबंधी स्टेंडिंग आडर्स का हवाला दे कर चार्जशीट किया गया कि डाक्टर के काम में बाधा डाली गई और हरामीपन जैसे शब्द का प्रयोग किया गया डिपार्टमेंटल इन्क्वारी करके मुझे अधिकतम प्रावधान वाली सजा के रूप में चार दिनों का सस्पेन्शन दिया गया.

न्याय की देवी की आखों में पट्टी बंधी रहती है गवाह जो कहे वही रिकार्ड होता है. मेरी इन्क्वारी में अस्पताल में कार्यरत एक मजदूर रामकरण को गवाह बनाया गया था जिसने मेनेजमेंट के आरोप की पुष्टि की, उसे तुरन्त प्रमोशन दे दिया गया. मुझे याद आ रहा है कि दिल्ली में सुजानसिंह पार्क एक प्रसिद्ध जगह है. ये सुजानसिंह नामी लेखक पत्रकार सरदार खुशवंत सिंह के पिता थे. जिन्होंने शहीदेआजम भगतसिंह के खिलाफ अंग्रेजों की अदालत में गवाही ही थी, उसकी पहचान तस्दीक की थी. फलस्वरूप सर की उपाधि से नवाजा गया था. हमारी आजादी के इतिहास के पन्नों में ये काला सच विद्यमान है.

रामकरण को कुछ समय बाद फिर प्रमोशन दिया गया. अपने संगठन व लीडर के खिलाफ गवाही देकर उसने जो बहादुरी की उसका इनाम तो उसे मिलना ही था, पर वह बहुत बाद तक अपनी शर्मिंदगी व अफ़सोस मुझे बताता रहा. इमरजेंसी खतम होने के बाद मेरा सस्पेंसन भी वापस ले लिया गया पर ये घटना एक बड़ा घाव छोड़ कर गयी. मैं बाद में लंबे समय (सन १९९८) तक यूनियन का चार बार अध्यक्ष चुना गया. मैनेजमेंट स्टाफ में भी परिवर्तन हुआ, नई सोच वाले प्रबुद्ध लोग आये. उस पुराने व आउटडेटेड टेक्नॉलाजी वाले प्लांट को नया जीवन देने के लिए हमने (मैंने अध्यक्ष के रूप में + मेरी योग्य टीम ने) बहुत प्रयास किये. लाखेरी में नया आधुनिक टेक्नॉलाजी वाला ड्राई प्रोसेस प्लांट लगया गया.

कोई भी मैनेजमेंट महज चैरिटी के लिए उद्योग नहीं चलाता है, अत: उत्पादन लागत कम करने के लिए तमाम उपायों में मैनेजमेंट से सहयोग किया गया. आज भी, जबकि मुझे रिटायर हुए १६ वर्ष हो गए हैं, वहाँ के कर्मचारी व आस-पास क़स्बे के बाशिंदे प्रेम से याद करते हैं क्योंकि लाखेरी में यदि सीमेंट का कारखाना बंद हो जाता तो कारखाने में कार्यरत तमाम छोटे बड़े कर्मचारियों के अलावा आस-पास क़स्बे-गाँव-बाजार में रहने वाले लोगों के लिए बड़ी त्रासदी होती क्योंकि लाखेरी का वजूद सीमेंट कारखाने से ही है.
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2 टिप्‍पणियां:

  1. सन् ९४ में मुझे I.I.M. Bangalore में अध्ययन का अवसर मिला था और A.C.C. की case study मुझे अभी भी याद है. उसका शीर्षक इसी कहानी से सम्बंधित था. Union participation in Management - how a loss making plant was converted to profit making plant by changing technology and cutting down workforce by half, that too in agreement with Trade Union.

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