चित्र सौजन्य: permacultureusa.org |
"रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून.
पानी बिना ना ऊबरे मोती, मानस, चून."
आज से कुछ दशक पहले हम सोच भी नहीं सकते थे कि पीने का पानी बोतलों में खरीद कर पिया करेंगे. अब शुद्ध/मिनरल वाटर के नाम से पानी खरीदना हमारी मजबूरी/आदत हो गयी है.
पानी बिना ना ऊबरे मोती, मानस, चून."
आज से कुछ दशक पहले हम सोच भी नहीं सकते थे कि पीने का पानी बोतलों में खरीद कर पिया करेंगे. अब शुद्ध/मिनरल वाटर के नाम से पानी खरीदना हमारी मजबूरी/आदत हो गयी है.
पानी की महिमा अपरम्पार है. इस दुनिया में दो हिस्सा पानी है और एक हिस्सा जमीन, फिर भी हम पानी के लिए रोये जा रहे हैं. पञ्च भूतों में जल एक महत्वपूर्ण घटक है. यदि जल ना हो तो प्रकृति की प्रक्रियाएं बन्द हो जायेंगी. वैज्ञानिक लोग दूसरे ग्रहों में खोज करके जानने की कोशिश करते आ रहे हैं कि अन्यत्र कहीं पानी है या नहीं. हम तो इतनी दूर की नहीं सोचना चाहते हैं. गर्मियां आ रही हैं और हमारे जल स्रोत सूखते जा रहे हैं. कई शहर-कस्बों में पानी के लिए खाली बर्तनों की लम्बी कतारें लगने लगी हैं. जहां पानी का अच्छा साधन है वहाँ भी लोगों से अपील की जा रही है कि ‘जल ही जीवन है, इसे व्यर्थ बर्बाद ना करें.’
मेरे एक नजदीकी मित्र हैं, जिन्होंने ‘जल-संसाधनों’ में पी.एच.डी. की है और जीवन भर इसी विषय वे पढ़ते-पढ़ाते रहे हैं और बड़े बड़े पदों पर काम करते रहे हैं, साथ में रिसर्च भी करते रहे हैं. लेकिन ऐसे बड़ी सोच-समझ वाले लोग देश के बाहर विदेशों में जा कर बस जाते हैं क्योंकि उनको यहाँ पर जरूरी सुविधाए व धन नहीं मिलता है.
ये तो ईश्वर/प्रकृति की माया है जिसका पार किसी ने नहीं पाया है. अमेरिका में अमेजन नदी, अफ्रीका में नील नदी, चीन में यांग्त्से नदी, पश्चिमी एशिया में दजला और फरात नदियाँ, भारत में गंगा नदी, इसी प्रकार सभी देशों में अपनी अपनी नदियाँ लाइफ लाइन की तरह हैं. पुरातन काल से ही जितनी बड़ी बड़ी सभ्यताएं दुनिया में विकसित होती रही सभी नदियों की तटों पर ही हुई हैं. जबसे मनुष्य खेती पर निर्भर रहने लगा है, सिंचाई के लिए जल संसाधनों की आवश्यकता रहने लगी, चाहे वह कुआँ-बावडी हो या गूल-नहर. आजादी के बाद देश में जल प्रबंधन के लिए कई विभाग बने, आयोग बने, और डैम तथा नहरों का जाल बिछाया गया फिर भी बहुत बड़ा मैदान इस क्षेत्र में खाली लगता है. हाल में पूरे देश की नदियों को आपस में जोड कर, बर्बाद जा रहे पानी से जरूरत वाले प्रदेशों को सिंचित करने की बात को नए सिरे से स्वीकृति मिली है.
आबादी बढ़ने से नदियों पर दबाव भी बहुत बढ़ गया है. और ओद्योगीकरण के कारण नदियों में कैमिकल प्रदूषण भी हद दर्जे तक बढ़ गया है. नदियों की सफाई व उन्हें प्रदूषण मुक्त करने के लिए सरकारी व गैर सरकारी अनेक संगठन काम कर रहे हैं लेकिन ये सब कसरत ऊँट के मुँह में जीरा साबित हो रहे हैं. इसके अलावा समस्या ये भी है कि इस मद में जो राशि आवंटित की जाती है, वह सही ढंग से संयोजित नहीं हो रही है. जो लोग इसमें जुड़े हुए हैं, वे दिखावा ज्यादा तथा असल काम कम कर रहे हैं.
आबादी बढ़ने से नदियों पर दबाव भी बहुत बढ़ गया है. और ओद्योगीकरण के कारण नदियों में कैमिकल प्रदूषण भी हद दर्जे तक बढ़ गया है. नदियों की सफाई व उन्हें प्रदूषण मुक्त करने के लिए सरकारी व गैर सरकारी अनेक संगठन काम कर रहे हैं लेकिन ये सब कसरत ऊँट के मुँह में जीरा साबित हो रहे हैं. इसके अलावा समस्या ये भी है कि इस मद में जो राशि आवंटित की जाती है, वह सही ढंग से संयोजित नहीं हो रही है. जो लोग इसमें जुड़े हुए हैं, वे दिखावा ज्यादा तथा असल काम कम कर रहे हैं.
गंगा, यमुना नर्मदा आदि कई नदियाँ हमारी धार्मिक आस्थाओं से भी जुड़ी हुई हैं, पर अब इनका जल सीधे सीधे पीने योग्य नहीं रह गया है. गत दो वर्ष पूर्व मेरी एक रिश्तेदार, जो अति धार्मिक आस्थाओं वाली हैं, इलाहाबाद गयी थी गंगा में एक डुबकी लगाने के बाद एक लोटा पानी इसलिए पी गयी कि वह ‘गंगा जल’ था, फलस्वरूप उल्टी-दस्त की ऐसी शिकायत हुई कि बड़ी मुश्किल से एक महीने में सम्हल पाई.
आज की तरह पिछली शताब्दी में पीने के पानी के शोधन के लिए फिल्टर्स/आर-ओ आसानी से उपलब्ध नहीं थे. बड़े शहरों में जरूर जलशोधन के लिए रिज़रवोयर्स में बड़े फिल्टर्स लगाए जाते थे, जिसमें फिटकरी, क्लोरीन अथवा ब्लीचिंग पाउडर डाल कर पानी को पीने योग्य बनाया जाता रहा है. ये सब होते हुए भी पीने के पानी के लिए जो अंतर्राष्ट्रीय मानक है, हमारा ग्राफ उससे बहुत नीचे रहा है. मैदानी इलाकों में कुँए बावडियों के पानी में भी बहुत शिकायतें होती हैं. पश्चिम बंगाल के कुछ इलाकों में पानी में आर्सनिक की इतनी मात्रा है कि बड़ी जनसंख्या उसके दुष्प्रभाव से विकलांगता की शिकार है. पानी का खारापन भी एक अभिशाप जैसा ही है.
पहाड़ों में बरसात का पानी पेड़ों की जड़ों द्वारा संगृहीत होता है, जो ऊंचाई पर भी वर्ष भर झरनों, धाराओं, या चश्मो-नौलों में उपलब्ध रहता है. ये वास्तविक मिनरल वाटर होता है. अन्यथा छोटी या मध्यम श्रेणी की नदियों में जो पानी बहता है, उसमे गंदे नालों-गधेरों की गन्दगी भी समाहित रहती है, जो बिना उचित ट्रीटमेंट के कत्तई पीने योग्य नहीं होता है. ट्रीटमेंट प्लांटों की गुणवत्ता पर भी कई बार सवाल उठाये जाते हैं क्योंकि नलों में कीड़े-मकोड़े, केचुए, सांप-मेढक के बच्चे निकल आते हैं. भारत में नदियों के किनारे पर शव दाह करने अथवा मरे हुए जानवरों के बह कर आने से पानी बेहद प्रदूषित रहता है. इसके लिए बड़े स्तरों पर जन जागृति एवं मैनेजमेंट की जरूरत है. शहरों के गंदे पानी की निकासी भी बड़ी चुनौती है. इसकी रीसाइक्लिंग करके अन्य उपयोगों में लिया जाना चाहिए. इस मामले में हम सिंगापुर व चीन के प्रबंधन से बहुत कुछ सीख सकते हैं, जिन्होंने इस क्षेत्र में काफी सफलता हासिल कर ली है. अपशिष्ट डिस्पोजल भी सीधे सीधे तौर से पानी की शुद्धता के प्रश्न से जुड़ा हुआ मामला है. ग्रामीण क्षेत्रों में इस ओर ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है.
बारिश कम होने अथवा जल स्रोतों के अत्यधिक दोहन से धरती का जल स्तर निरंतर नीचे जा रहा है, ये भी चिंता का विषय है. बात ये भी सही लगती है कि हमारे देश में समस्या पानी की उपलब्धता की उतनी नहीं है जितनी कि उसके ठीक से प्रबंधन की है.
जहाँ तक पूरे विश्व का सवाल है, अलग अलग देशों/महाद्वीपों की अपनी भौगोलिक स्थितियों पर पानी का मामला विचारणीय होगा लेकिन ये भी कहा जा रहा है कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए लड़ा जाने वाला है. इधर ग्लोबल वार्मिंग का दुष्प्रभाव ये भी खतरे के रूप में बताया जा रहा है कि ग्लेशियर्स धीरे धीरे पिघलते जा रहे हैं और उनका पानी समुद्र का जलस्तर बढाता जा रहा है. एक समय ऐसा आएगा कि मालदीव जैसे समुद्री टापू देश तथा खाडियों में बसे हुए शहर पानी की डूबत में आ जायेंगे, जो कि बड़ी त्रासदी होगी.
अंत में, अंग्रेजी का एक पानीदार मुहावरा:
"We know the worth of water when the well is dry. (हमको पानी की अहमियत तब मालूम पडती है जब कुँवा सूख जाता है.)"
"We know the worth of water when the well is dry. (हमको पानी की अहमियत तब मालूम पडती है जब कुँवा सूख जाता है.)"
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