जब हमारे बच्चे
नहीं थे या वे बहुत छोटे थे तो मुझे कुत्ता, बिल्ली, व कुछ अनौखे प्राणी पालने का
शौक भी रहा था. उसी दौरान की कुछ बातें आज सुनाता हूँ.
१. मिस्टर बर्नट, जो कि वर्कशॉप में कार्यरत थे, ने मुझे एक लाल रंग का dachshund ब्रीड का पिल्ला दिया था, जिसके पैर छोटे
छोटे और बॉडी लम्बी थी. करीब साल भर वह हमारा लाड़ला रहा. गर्मियों में हम जब अपने
गाँव अल्मोड़ा गए तो उसे डॉ सी.एम्.पी.सिंह जी के घर छोड़ गए. उन्होंने उसे संभाला नहीं, और वह आवारा हो गया. हमारे लौटने पर बर्नट जी के सहचर सफिया (किन्नर) ने
रिपोर्ट दी कि कुत्ता गन्दगी खाने लगा था. दुखी होकर उसे किशोर जमादार को दे दिया। किशोर के बेटे सन्नूलाल ने बाद में मुझे बताया था कि कुत्ता बहुत बढ़िया था. वह कई बरस
उनके साथ रहा था.
२. फैक्ट्री में एकमात्र एन्ग्लोइन्डियन कर्मचारी स्व. V. Farrar से मेरी मित्रता हो गयी थी. (मि. फरार के ससुर Mr. Tom Pelly अंग्रेज थे, और PWI के पद पर कारखाने में कार्यरत रहे थे. उन्होंने ही ACC में कर्मचारियों के लिए PF और ग्रेच्युटी लागू करवाई थी.) उन्होंने मुझे दो खरगोश के बच्चे दिए. वयस्क होने पर इनका परिवार बढ़ा, पर एक दिन बिल्ली ने आकर मुख्य मादा को मार दिया. बचे हुए खरगोशों के
मैंने किसी को दे दिया. बड़े नर खरगोश को पिंजड़े सहित प्यारी दाई ले गयी, जो काफी दिनों तक उनके गरमपुरा स्थित क्वार्टर की शोभा बढ़ाता रहा था.
३. गांधीपुरा में रहने वाले श्री चंद्रप्रकाश इलेक्ट्रीशियन ने मुझे एक सफ़ेद कबूतरों का जोड़ा दिया, जिनके लिए एक बड़े लकड़ी के खोखे में जाली लगा कर घर बनाया
गया. उसे एल टाईप १६ के बरामदे की सीमेंट की जालीदार दीवार पर फिक्स किया गया. सब कुछ
ठीक था. एक दिन घात लगाकर बिल्ली ने छापा मारा और एक कबूतर को खा गयी. बाकी तीनों
कबूतर डर के मारे मुकाम पर नहीं आये और जंगली हो गए.
४. श्री मिट्ठूलाल से मेरा परिचय तब हुआ जब मैं लाखेरी गाँव में भाई नजर
मोहम्मद जी की डिस्पेंसरी की बगल में अपनी पार्ट टाइम क्लीनिकल लैब में बैठता था.
वह मेरा अनन्य सेवक व मित्र बना रहा. मैंने उसे अखबारी कागज़ के लिफ़ाफ़े बनाने की
कला सिखाई थी तथा उसके द्वारा बनाए लिफाफों को सहकारी समिति में खपाया भी था. एक
दिन वह मुझे देने के लिए एक जंगली कांटेदार ‘झाऊ चूहा’ लेकर आया. यह छोटा सा
प्राणी L type 16 के दोनों कमरों में लुढ़क लुढ़क कर चलता था, और हमारे पैरों से टकराकर गेंद की तरह छटक कर दूर जा गिरता था. अफ़सोस इस बात का है कि
उसके बारे में आज ना मुझे और ना मेरी अर्धांगिनी को कोई याद है कि उसे किसी को दिया था या वह बाहर
निकल कर कहीं खो गया था!
५. एक वाचमैन (नाम याद नहीं रहा) क्वारी ड्यूटी से छूटकर मुझे एक नेवले का
छोटा बच्चा दे गया. हमने चम्मच से दूध पिला कर उसे बड़ा किया. वह कुछ महीनों में ही
बड़ा हो गया और कीड़े मकौड़ों का शिकार करने लगा. क्वार्टर में तार बाड़ की फैंसिंग थी. हमारा नेवला अन्दर घुसने वाले स्व. मकबूल मसीह (सिस्टर शीला त्यागी के पिता) की मुर्गियों के
साथ घूमने वाले चूजों को पकड़ कर अपना निवाला बनाने लगा. पड़ोस में स्व. दोजीराम
वायरमैन के बच्चों ने देखा तो बात चूजों के मालिक तक चली गयी. नाराजी हुयी. उसी
बीच एक बड़ी नेवली ने प्रेमजाल में बांधकर उसे अपने साथ ले गयी; वह फिर वापस नहीं
आया.
६. श्रीमती चंदेल (वे सिविल में एक वर्कर थी. उनके पति स्व. देवीलाल चंदेल भी
ब्लैकस्मिथ का काम करते थे. उनका एक बेटा डॉक्टर, एक बेटा इंजीनियर तथा एक बेटा
एयरलाइन्स में ऑफिसर हुए) ने मुझे ‘मनोहर’ नस्ल की दो लाल मुर्गियां
व एक मुर्गा मात्र १५ रुपयों में बेचे। लकड़ी के खोखों का पिंजडा बनाकर कुछ
समय तक पाला, ये रोज अंडा देने वाली मुर्गियां थी. कुड़क होने पर एक मुर्गी को चूजे
निकालने के लिए बिठाया तो आठ चूजे पैदा हो गए, पर जब मेरी माताश्री जाड़ों में
लाखेरी आई तो उनके आने से पहले मुर्गियों का यह परिवार अपने चाहने वाले श्री
मिट्ठूलाल तम्बोली (बाद में सेनीटेशन विभाग में अपने पिता की एवज में लगे, और जब
सेनीटेशन विभाग ठेके पर दिया गया तो उनको भी ठेकेदारी दी गयी) को सौंप दिए.
७. शुद्ध दूध की चाहत में कांकरा के ठाकुर साहब स्व. धनुर्धारीसिंह हाडा जी
के बाड़े से एक देसी नस्ल की बकरी खरीदी, उसके घर आने पर अहसास हुआ कि दूध कम तथा
आफत ज्यादा थी. अत: तीसरे दिन ही वापस करने के लिए ले गया.
८. उपरोक्त सभी वृतान्त शाहाबाद स्थानान्तरण के पूर्व के हैं. शाहाबाद से
सन १९७४ में लौटने के बाद १९७६ में श्री
अनिल तिवारी उर्फ़ सोना जी ने मुझे मेरे निवेदन पर एक सफ़ेद पामेरियन नस्ल का प्यारा
पिल्ला दिया. उसे रोमी नाम दिया गया. वह मेरे परिवार का लाड़ला कुत्ता लगभग दस वर्ष साथ में रहा. एक बार जब
तीनों बच्चे अपने अपने कालेजों में थे तो हमें एक विवाहोत्सव में नैनीताल आना हुआ
तो रेलवे के स्लीपर डिब्बे में उसने
फर्स्ट क्लास के टिकट पर हमारे साथ यात्रा भी की. पर एक बकरा ईद पर मेरे TRT क्वार्टर नम्बर २४ के सामने नफीस भाई (कैंटीन सुपर वाईजर) के आगन से हड्डी
का टुकड़ा लेकर आया जो उसके गले में अटक गया. यही उसकी मौत का कारण बना. दुर्योग था
कि मैं उस दिन जयपुर गया था. वापस आया तो घर में मातम छाया था.
९. उक्त रोमी नामक पामेरियन कुत्ते के साथ के लिए मैं एक सफेद बिल्ली का
बच्चा भी सन १९८२ में आगरा के मोहनपुरा निवासी पूर्व में मेरे पड़ोसी रहे मालबाबू श्री
मोहनलाल शर्मा के घर से लेकर आया. आगरा पार्थ और गिरिबाला को एक PMT कोचिंग प्रोग्राम में लेकर गया था. ये
बिल्ली का बच्चा घर परिवार से बहुत अच्छी तरह घुलमिल कर रौनक बनाए हुए था. करीब ६
महीने रहा. ठीक दीपावली के दिन जब वह रोज की तरह सुबह-सवेरे बाहर घूमने निकला तो
वापस नहीं लौटा; बहुत खोजबीन की पर वह हमेशा के लिए चला गया. शायद कोई चील उठा कर
ले गयी थी.
उसके बाद हमने इस तरह का कोई प्राणी नहीं पाला है, पर प्यारे रोमी को अभी
तक हम सभी परिवार के सदस्य याद किया करते हैं.
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें